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सूचना का जो अधिकार जनता के लिए वरदान है वह राजनीतिक दलों के लिए अभिशाप क्यों कर होगा? लोकतंत्र के मंदिर में दागियों को रोकने की पहल में आखिर बुरा क्या था? केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले खारिज किए जाने लायक थे या फिर लोकतंत्र के पहरुओं की ही नीयत में खोट पैदा हो गया? सवाल कई हैं, परंतु एक बात जो साफ समझ आती है वह यह है कि भारतीय लोकतंत्र संभवत: अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है।
ऊपरी तौर पर भले महसूस ना हो, परंतु स्थितियां काफी खराब हैं। ज्यादा खतरनाक बात यह कि सत्ताधीशों का अहं पहले वैयक्तिक दिखता था और गुस्सा प्रत्यक्ष होता था। आज इसका दायरा और रूप बदल गये हैं। दिखता कोई नहीं, लेकिन सारी सत्ता का चेहरा एक। आज पार्टी लाइन से परे सभी दल जनाकांक्षाओं और चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए मिलकर खड़े दिखाई देते हैं। जनप्रतिनिधियों द्वारा अपनी बिरादरी को अतिविशेष और सारे कानूनों से परे मानने की यह पहल देश को किस दिशा में पहुंचाएगी यह राजनीतिक भ्रष्टाचार और शासकीय संवेदनहीनता की खबरें बताती हैं। संसद और राजनीतिक दलों की विशेष स्थिति से इनकार नहीं। यह भी ठीक कि 'एक दिन की जेल पर नामांकन रद्द करने' जैसे बिन्दु राजनीतिक दलों की चिन्ता बढ़ाते हैं। परंतु जनप्रतिनिधियों के अधिकार कुछ कर्तव्यों के खूंटे से बंधे हैं। संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 संसद को यह जिम्मेदारी भरा अधिकार देते हैं कि वह जनप्रतिनिधियों की योग्यता की कसौटी तय करे। क्या यह काम पूरी ईमानदारी से हुआ है? कर्तव्यों का खूंटा तुड़ाकर स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्छंद विचरने की आजादी आखिर क्यों मिलनी चाहिए? जनप्रतिनिधियों की ऐसी कल्पना क्या संविधान की मूल भावना रही होगी?
दु:ख की बात यह है कि शुचिता के जो स्वर संसद से उठने चाहिए थे वे सीआईसी और सर्वोच्च न्यायालय से उठे, इस पर भी उन्हें प्रजातंत्र के कथित 'पहरेदारों' ने ही शांत करा दिया। महिला आरक्षण और समान नागरिक संहिता जैसे अहम मुद्दों पर बिखर जाने वाले दलों का आरटीआई और दागियों के मुद्दे पर एकजुट होना बताता है कि सत्ता का रंगमंच धरातल पर खड़ी जनता के मुकाबले इतना ऊंचा हो गया है कि उस पर से जनाकांक्षाओं का ज्वार और जमीनी सच नहीं दिखता।
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