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बंगाल के महाराज कृष्ण चन्द्र विद्वानों का बहुत आदर करते थे। इसलिए उनके दरबार में अक्सर विद्वानों की भीड़ जमा हो जाती थी। एक दिन दूर देश के एक विद्वान, महाराज कृष्णचन्द्र के दरबार में आया। वह कई भाषाओं का ज्ञाता था। आते ही उसने दरबार में घोषणा की कि जो उसकी मातृभाषा बता देगा, उसे वह अपना गुरु मान लेगा।
दरबार खत्म हो गया। लोग अपने-अपने घरों को जाने लगे। आगन्तुक विद्वान महोदय भी अतिथिशाला में जाने के लिए दरबार की सीढ़ियां उतरकर बग्घी में बैठने के लिए जाने लगे तो अचानक पीछे से किसी ने उन्हें जोर का धक्का मारा। धक्का लगने से विद्वान महोदय गिर पड़े और मारने वाले को गालियां देने लगे।
'यही, आपकी मातृभाषा है, जो आप अब बोल रहे हैं!' महाराज कृष्णचन्द्र का निजी सलाहकार व दरबारी विद्वान गोपाल बोला – 'अशिष्टता क्षमा करें, मान्यवर! मैंने आपकी मातृभाषा जानने के लिए आपको धक्का मारा था। तोते को हम तताम तरह की भाषाएं सिखाते हैं। वह उन्हें बखूबी बोल भी लेता है किन्तु जब बिल्ली उसका गला दबोचती है तो वह सभी भाषाएं भूलकर टें टें कर चिल्लाता है। संकट के समय मातृभाषा ही काम आती है।' शिवचरण चौहान
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