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3 जून, 1947 भारत के इतिहास की एक बहुत महत्वपूर्ण तिथि है। इस तिथि को जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारत विभाजन की मांग के सामने भारत के राष्ट्रीय नेतृत्व ने घुटने टेक दिये थे। यद्यपि मुस्लिम समाज की ओर से सर सैयद अहमद खान ने 1885 में, कांग्रेस की स्थापना के दो वर्ष बाद ही लखनऊ और मेरठ के भाषणों में यह स्पष्ट कर दिया था कि हमें बहुमत के शासन का लोकतांत्रिक सिद्धांत स्वीकार नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ होगा हिन्दू बहुमत का मुस्लिम अल्पमत पर शासन, इस देश के विजेता और शासक रहने के नाते यह हमें कतई स्वीकार नहीं है। पर भारत के राष्ट्रीय नेतृत्व को हमेशा यह विश्वास रहा कि अपनी बहुमुखी विविधता को बनाये रखकर यदि भारत हजारों वर्षों में एक और अखंड रह सका है तो वह इस्लाम की विस्तारवादी प्रवृत्ति को भी अपने सर्व पंथ समादर भाव के द्वारा संयमित करने में सफल होगा। पर हुआ उलटा। सर सैयद, अल्लामा इकबाल से लेकर जिन्ना तक पृथकतावाद का भाव मुस्लिम मन में गहरा होता गया। 1945 के चुनावों में लगभग पूरा मुस्लिम समाज मुस्लिम लीग की 'देश विभाजन की मांग' के पीछे खड़ा हुआ तो पूरा हिन्दू समाज कांग्रेस के 'अखंड भारत आह्वान' के पीछे खड़ा हुआ। इसके बारे में यह तर्क देना बेमानी है कि इन चुनावों में दोनों समाजों के केवल 16 प्रतिशत लोगों को मतदान का अधिकार प्राप्त था, अत: उस मतदान को दोनों समाजों की भावनाओं का वास्तविक प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। इतिहास में ऐसा कभी कहीं नहीं हुआ कि किसी समाज का प्रबुद्ध और अभिजात्य वर्ग अपने समाज की भावनाओं से पूरी तरह कटा रहा हो। यदि 16 प्रतिशत हिन्दू मतदाता अखंड भारत की भावना का प्रतिनिधित्व करते थे तो 16 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भी अपने समाज की भावना के सच्चे प्रतिनिधि रहे होंगे।
लीग, मुस्लिम और कांग्रेस
3 जून, 1947 को विभाजन की स्वीकृति ने भारत की स्वतंत्रता आंदोलन को नया अर्थ दे दिया। अब यह स्वतंत्रता दो सौ वर्ष की ब्रिटिश दासता के अंत के साथ-साथ एक हजार वर्ष के मुस्लिम विस्तारवाद से छुटकारा पाना भी बन गया। इस सत्य का साक्षात्कार संविधान सभा में देखने को मिला। 1945 के चुनावों के बाद ब्रिटिश शासकों ने 'कैबिनेट मिशन प्लान' के अन्तर्गत 1946 में उसी 16 प्रतिशत मतदाता वर्ग के द्वारा भारतीय संविधान सभा के चुनाव कराये जिसमें लगभग सभी मुस्लिम सीटें मुस्लिम लीग को मिलीं। 3 जून, 1947 तक संविधान सभा की तीन बैठकें हुई किंतु मुस्लिम लीग के सभी सदस्यों ने उनका बहिष्कार किया। 3 जून को विभाजन की घोषणा के बाद 14 जुलाई, 1947 को चौथी बैठक हुई जिसमें खंडित भारत से चुने गये 23 मुस्लिम लीगी सदस्य पूरी संख्या में उपस्थित हुए थे। इस निर्णय के पीछे मुस्लिम हितों की दृष्टि से संविधान सभा की भावी कार्यवाही को प्रभावित करना रहा होगा और अनुकूल वातावरण में पाकिस्तान जाने की बजाए भारत में ही बसे रहने की योजना भी रही होगी।
यही वह क्षण था जब भारतीय नेतृत्व को मुस्लिम समाज की द्विराष्ट्रवाद की विभाजनकारी विचारधारा से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए था। शायद इसी दृष्टि से 14 जुलाई, 1947 को मुस्लिम लीग के 23 सदस्यों को संविधान सभा में बैठे देखकर दिल्ली से निर्वाचित प्रतिनिधि देशबंधु गुप्त ने यह प्रश्न उठाया कि ये मुस्लिम लीगी सदस्य द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को छोड़कर यहां आये हैं या वे अभी भी उस विचारधारा को मानते हैं। किंतु पता नहीं क्यों देशबंधु गुप्त के इस सही प्रश्न को अनसुना कर दिया गया और मुस्लिम लीगी सदस्यों से उनके वैचारिक आग्रह के बारे में कोई पूछताछ नहीं की गयी। इसके पीछे जवाहरलाल नेहरू का यह विश्वास था कि मुसलमानों को विभाजन के रास्ते पर अंग्रेज शासकों ने फेंका है। उनके जाने बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक समरस राष्ट्रीय चेतना के प्रवाह में दोनों समाज पूरी तरह घुल-मिल जाएंगे। पं. नेहरू ने इस्लाम की विचारधारा के मूल में जाने की कोशिश नहीं की। विभाजन के अपराधबोध से ग्रस्त मुस्लिम नेतृत्व ने सत्ताधारी कांग्रेस के छाते में शरण ली और 1952 के चुनाव में मुस्लिम समाज को कांग्रेस का वोट बैंक बना दिया। इस वोट बैंक को बनाये रखने के लिए नेहरू जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने एक ओर मुस्लिम आकांक्षाओं व भावनाओं की रक्षा की नीति अपनायी दूसरी ओर उनके मन में हिन्दू बहुसंख्यकवाद का भय उत्पन्न किया। इसी नीति को 'सेकुलरवाद' का नाम दिया गया।
भेद भारत–पाकिस्तान का
इस नीति पर चलते हुए देश को 65 से अधिक वर्ष हो गये हैं। समरस राष्ट्रीय चेतना के निर्माण की दृष्टि से हम आज कहां खड़े हैं? पाकिस्तान ने तो अल्पसंख्यकों से लगभग मुक्ति पा ली है और स्वयं को इस्लामी राज्य घोषित कर दिया है। भारत में मुस्लिम जनसंख्या की न केवल हिन्दुओं की तुलना में अधिक वृद्धि हुई है बल्कि शैक्षणिक, आर्थिक और प्रशासनिक क्षेत्र में उन्होंने भारी प्रगति की है। राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री तक सभी शीर्ष पदों पर पहुंचने का उन्हें अवसर मिला है। भावनात्मक एकता की दृष्टि से मुस्लिम समाज ने पूर्व राष्ट्रपति डा.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम, पत्रकार एम.जे.अकबर, आरिफ मुहम्मद खान, आरिफ बेग, नजमा हेपतुल्ला, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और अन्य अनेक विचारक व राजनेता पैदा किये हैं। इसके पहले भी मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई, मुहम्मद करीम छागला, हमीद दलवाई, मोईनुल शाकिर व रफीक जकारिया जैसे श्रेष्ठ राजनेता विचारक हो चुके हैं। किंतु प्रश्न उठता है कि क्या मुस्लिम समाज इन्हें अपना नेता मानता है? इनके पीछे खड़ा होने को तैयार है? आगामी लोकसभा चुनावों की दृष्टि से यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। मुस्लिम नेतृत्व जानता है कि लोकसभा की कम से कम 128 सीटों का परिणाम पूरी तरह उनके हाथ में है। उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता, बिहार की 40 सीटों पर 17 प्रतिशत और बंगाल की 42 सीटों पर 22 प्रतिशत, केरल की लगभग आधी सीटों का भाग्य निर्णय वे ही करेंगे। क्या वे भारतीय के नाते उनकी चिंता भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, चारित्रिक पतन जैसी राष्ट्रीय समस्याएं होंगी या उनका एजेंडा मुस्लिम हितों तक ही सीमित है?
मजहबी विचारधारा के निहितार्थ
पिछले 10-12 वर्षों के वैश्विक अनुभव से यह साफ है कि इस्लाम एक सशक्त विचारधारा है जो मजहब के आधार पर प्रत्येक देश में मानव समाज को मुस्लिम और गैरमुस्लिम में विभाजित करती है। उसने कहीं भी गैरमुस्लिम समाजों के साथ राष्ट्रीयता के धरातल में घुलना- मिलना स्वीकार नहीं किया है, यह विचारधारा भौगोलिक राष्ट्रीयता को अस्वीकार करती है और मजहब को अपनी सामूहिक पहचान का आधार मानती है। 200 वर्ष की आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने मुस्लिम समाज की जीवनशैली को तो बदला है पर उसके मजहबी आवेश को शमित नहीं किया है। कुरान और हजरत मुहम्मद के अपमान का नारा लगते ही वह आंदोलित होकर सड़कों पर उतर आता है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं तो पूरे विश्व में है। भले ही मुस्लिम देशों में शरीयत कानून न चलता हो पर गैरमुस्लिम देशों में शरीयत को लागू करने पर उनका आग्रह बना रहता है। 'इस्लाम खतरे में' का नारा उन्हें एकजुट करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए किसी गैरमुस्लिम देश में चुनाव के समय वे प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में थोक मतदान करते हैं न कि दलों की विचारधारा के आधार पर।
यही कारण है कि भारत में सभी राजनीतिक दल इस थोक वोट बैंक को रिझाने के लिए अपने को सेकुलर सिद्ध करने और हिन्दू बहुसंख्यकवाद का हौव्वा खड़ा करने की होड़ में लग जाते हैं। 1952 के पहले चुनाव से ही यह खेल शुरू हो गया है। मुझे स्मरण है कि 1952 के चुनाव में उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के एक मौलना जनसंघ के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे तो पं. नेहरू अपने प्रत्येक भाषण में जनसंघ जैसे मुस्लिम विरोधी दल का प्रचार करने के लिए उस मौलाना को कोसने से नहीं चूकते थे। पं. नेहरू ने ही 1952 से भारतीय जनसंघ और उसे जन्म देने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर मुस्लिम विरोधी छवि लादना शुरू किया। और अब यह प्रत्येक राजनीतिक दल का नारा बन गया है।
मोदी बनाम मुस्लिम
आजकल मोदी विरोध इसका आधार बन गया है। 1947 से 2002 तक के अनेक बड़े हिन्दू मुस्लिम दंगों को भुलाकर 2002 का गुजरात दंगा ही उनका तकिया कलाम बन गया है। गुजरात के मुस्लिम समाज के विकास और उनकी मोदी समर्थक भावनाओं को अनदेखा कर मोदी के प्रत्येक शब्द को मुस्लिम विरोधी रंग दिया जा रहा है। इसी का परिणाम है कि एक तरफ सोनिया पार्टी के प्रवक्ता एवं कई राज्यों के प्रभारी शकील अहमद इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी संगठन के जन्म को 2002 के दंगों की प्रतिक्रिया बताते हैं। जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-तोएबा, सिमी जैसे अनेक पुराने आतंकवादी संगठनों को वे भूल जाते हैं। हद तो हुई जब राज्यसभा के एक कांग्रेस समर्थित सांसद मुहम्मद अदीब ने नरेन्द्र मोदी को अमरीका द्वारा वीजा न देने के लिए 65 सांसदों के हस्ताक्षरों से एक अपील राष्ट्रपति ओबामा के नाम 26 नवम्बर, 2012 और 5 दिसंबर, 2012 को भेजी। इस अपील पर अनेक हस्ताक्षर जाली हैं, कुछ मुस्लिम सांसदों के हस्ताक्षर दो-दो जगह हैं। विश्वभर का मुस्लिम समाज अमरीका को अपना दुश्मन मानता है, पर नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध वे अमरीका से भीख मांगने को तैयार है। अमरीका में भारतीय मुसलमानों का एक मंच इसी काम में लगा हुआ है।
मुस्लिम नेतृत्व की ताजा रणनीति को समझने के लिए प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक 'इकानॉमिक टाइम्स' (24 जुलाई) में पहले पन्ने पर प्रकाशित दो मुस्लिम नेताओं-एक बिहार में मुंगेर के सुन्नी मौलाना मुहम्मद वली रहमानी और दूसरे लखनऊ के शिया मौलाना सैयद कल्बे जावेद नकवी से अलग-अलग लिये गये साक्षात्कार पढ़े। मौलाना रहमानी मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार के कारण बहुत सम्मानित हैं। उन्होंने आई.आई.टी. में मुस्लिम छात्रों को प्रवेश दिलाने के लिए 'रहमानी 30' नामक प्रकल्प भी शुरू किया है। उसी प्रकार मौलाना कल्बे जावेद लखनऊ शाही आसिफ मस्जिद के मुख्य इमाम है और मुस्लिम हितों के लिए आंदोलन करने के कारण 2010 में मायावती द्वारा गिरफ्तार हुए थे।
ये दोनों मौलाना नहीं चाहते कि केन्द्र में किसी एक दल को बहुमत प्राप्त हो। उनका कहना है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मुसलमानों के हित चिंतक नहीं है। इसलिए यदि उनमें से किसी एक को भी पूर्ण बहुमत मिला तो मुसलमान घाटे में रहेंगे। केन्द्र में अनेक दलों की गठबंधन सरकार बनाने पर ही मुसलमान फायदे में रहेंगे। कांग्रेस पर उनका आरोप है कि वे अपने वायदे पूरे नहीं करती और मुसलमानों को केवल वोट बैंक समझती है। फिर भी यदि कांग्रेस और भाजपा में से एक को चुनना हो तो जिन राज्यों में सीधा चुनाव इन दोनों के बीच होगा वहां मुसलमान भाजपा के विरुद्ध जाएंगे। उन दोनों का मत है कि मुसलमानों को क्षेत्रीय दलों को मजबूत बनाना चाहिए ताकि केन्द्र में गठबंधन सरकार बन सके।
वस्तुत: यह रणनीति नेतृत्व ने 1967 के चुनावों में ही अपना ली थी। जिसके द्वारा उन्होंने पहले कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ा और 2004 में भाजपा की प्रगति को रोकने के लिए सोनिया-सुरजीत गठबंधन को जिताया। क्या आजादी के 65 वर्ष बाद भी भारतीय मुसलमान इन दो मौलानाओं की द्विराष्ट्रवादी विचारधारा से चिपके रहेंगे या राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व को शक्ति प्रदान करेंगे? 25.7.2013
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