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एक अवसर पर स्वामी जी ने पातंजल योगसूत्र की व्याख्या की थी। इन सूत्रों के माध्यम से स्वामी जी ने सुसंस्कारित जीवन और शुद्ध आचरण पर बल दिया है। यहां प्रस्तुत हैं स्वामी जी के उसी गहन विवेचन के सम्पादित अंश:
तज्ज: संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी
यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात् दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।
हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय है। एकाग्रता। हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सबों ने गौर किया होगा कि ज्यों ही तुम लोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्यों ही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार भटकने लगते हैं। ज्यों ही ईश्वर-चिन्तन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते, किन्तु ज्यों ही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और तुम्हारे मन को बिल्कुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण क्या है? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं? इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो और वे अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है। चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहते हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात में रहते हैं! उन सबको रोकना होगा।, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आए और दूसरे सब भाव चले जाएं। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देने वाली ये ही संस्कारों की विविध शक्तियां हैं। अतएव जिस समाधि की बात अभी कही गयी है, उसका अभ्यास उत्तम है, क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सभी संस्कारों का कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।
तंस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि
उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को रोक देता है) निरोध हो जाने पर सबका निरोध हो जाने के कारण, निर्बीज समाधि (हो जाती है)।
तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्म-साक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। हम लोग आत्म-साक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा की प्रकृति, मन और शरीर के साथ दादात्मय हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर को ही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है। किन्तु दोनों ही भूल में हैं। अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों के साथ कैसे एकाकार हो जाती है? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरे (वृत्तियां) उठकर आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं। और हम इन लहरों में आत्मा का कुछ प्रतिबिम्ब मात्र देख पाते हैं। यही कारण है कि जब क्रोध-वृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को क्रोध युक्त देखते हैं, कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं। जब चित्त में प्रेम की लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिम्बित देखकर हम सोचते हैं कि हम प्यार कर रहे हैं। जब दुर्बलता रूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिम्बित हो जाती है, तो हम सेचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते रहते हैं। चित्त रूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप दिखायी नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिल्कुल शान्त नहीं हो जातीं, तब तक आत्मा का प्रकृत स्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा। इसीलिए पंतजलि ने पहले यह समझाया है कि ये तरंग रूप वृत्तियां क्या हैं और बाद में उनको दमन करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है। और तीसरी बात यह सिखलायी है कि जैसे एक वृहत् अग्निराशि छोटे-छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतना प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिल्कुल लुप्त हो जाएं। जब केवल एक ही लहर बची रहेगी। तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। तब और कुछ भी नहीं बचा रहता और आत्मा अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक पदार्थ है, अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मूत्यु भी नहीं- वह अमर है, अविनश्वर है, नित्य चैतन्यधन सत्ता स्वरूप है।
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