(1) महंगा पड़ेगा मजाक(2) फैसला भारतीयता की जीत
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आंकड़ों के हिसाब से 'यूपीए योजना आयोग' चाहे जिस धरातल पर हो, जानलेवा महंगाई को नकारते हुए, रोजाना गुजर बसर के लिए 27 रुपल्ली को काफी बताने वालों को गरीबी की नई परिभाषा महंगी पड़ने वाली है। कांग्रेसी नेताओं के हिसाब से दो से बारह रुपए में कोई भी व्यक्ति दिल्ली और मुम्बई में भरपेट भोजन कर संतुष्ट हो सकता है। सड़कों–फुटपाथों का हाल इन नेताओं ने कभी लिया हो कह नहीं सकते। संभवत: संसद की कैंटीन में रियायती दामों पर परोसी जाने वाली भव्य थाली के बाद डकार मारते हुए ही ऐसे 'दिव्य विचार' निकले होंगे।
दो या दस रुपए की थाली वास्तव में यदि कहीं मिलती है तो कांग्रेस प्रवक्ताओं को सबसे पहले उस जगह का पता मराठवाड़ा में भूख और कर्ज से मरते किसानों को बताना चाहिए।
अगर इस महंगाई और इस दाम में ऐसी थाली वास्तव में तैयार हो सकती है तो उन्हें यह चमत्कारी फार्मूला कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के अलावा राबर्ट वाड्रा को भी देना चाहिए क्योंकि 50 से 500 करोड़ के संदिग्ध कारोबारी कुलांचे भरने के बाद वे राजनीति में उतरने की मंशा जता चुके हैं। इस संपत्ति और सस्ती थाली के बूते तो वे किसी भी संसदीय क्षेत्र की भूख की बीमारी का पुश्तों तक इलाज किसी भी सरकारी सहायता के बगैर कर सकते हैं! चार जगह की 'जनता थाली' को हजार जगह गाने वाले नेताओं को यह भी बताना चाहिए कि यदि 'संतुष्ट' होने के लिए दहाई का आंकड़ा ही काफी था तो भ्रष्टाचार की थाली में अनगिनत शून्य लगने के बाद भी कांग्रेस का पेट आखिर भरा क्यों नहीं?
वैसे, मोंटेक सिंह आहलूवालिया के लिए यह नई बात नहीं है। गरीबों से मजाक यूपीए के लिए भी नया नहीं है। नया है लोगों का गुस्सा। हर बार ऐसे बेहूदा मजाक पर खून का घूंट पीकर रह जाने वाले आम लोगों का आक्रोश बातचीत और सोशल मीडिया में साफ झलक रहा है। जिन्हें हमारी बात पर शक हो वे सड़क पर यूपीए के प्रवक्ता बनकर 'मौसम का हाल' जानने के लिए स्वतंत्र हैं।
बिना शक कह सकता हूं कि बटला हाउस इलाके को मैं कई सेकुलर बयानवीरों के मुकाबले ज्यादा अच्छे से जानता हूं। पेचदार गलियां, घनी बसाहट और एक ही समुदाय का बाहुल्य। दिल्ली पुलिस अपराध शाखा के दिलेर इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा का वह अंतिम साहसपूर्ण अभियान भी मेरी स्मृति में एकदम ताजा है। सूत्रों के घनघनाते फोनों के बीच रिपोर्टरों की भागमभाग। दर्जनों टीवी कैमरा, सड़कों पर दौड़ते जवान, 19 सितम्बर 2008 को मकान नम्बर एल-18 में हुई मुठभेड़ इस इलाके में सनसनी पैदा करने वाली बात थी। मगर एक दिन बाद ही तुष्टीकरण को पोसते साम्प्रदायिक घृणा को बढ़ावा देते साम्प्रदायिक बयानों की चादर तन गई। इलाके में सनसनी की जगह नफरत ने ले ली। इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) की करतूत को दबाने वालों ने इंस्पेक्टर शर्मा के बलिदान पर ही सवाल खड़े करने शुरू कर दिए।
छद्म धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटते हुए शहीदों पर आतंकियों को बढ़त दिलाने का कैसा विद्रूप खेल देश में शुरू हो चुका है यह इस मामले ने दिखा दिया। अब जब न्यायालय ने तथ्यों की जांच–परख के बाद मुठभेड़ को सही ठहराया है तो उलेमा काउंसिल और सेकुलर जत्थों के उन मातमी प्रदर्शनों की खबर लेना जरूरी है जिन्होंने तब माहौल में जहर भर दिया था। बटला हाउस इलाके में राष्ट्रविरोधी भावनाओं का बारूद बिछाने वाले चेहरों को, आईएम के परोक्ष समर्थन में ट्वीट की चिंगारी छोड़ने वाले नेताओं के चेहरों से मिलाकर देखें तो मुसलमानों को भरमाने, बरगलाने वाले घृणित गठजोड़ की तस्वीर साफ हो जाती है।
बटला हाउस का फैसला ना हिन्दुओं के समर्थन में है ना मुसलमानों के विरोध में। यह फैसला भारतीयता की जीत है और कांग्रेस नेतृत्व की उस सियासी सोच की हार जो आजमगढ़ से मधुबनी और बटला हाउस तक मुसलमानों के हमदर्द दिखने के चक्कर में आतंकियों की हिमायती बन जाती है और शहीदों को भूल जाती है।
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