भगवती बाबू का जाना!
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दो बार विधायक रहे ईमानदार जनप्रतिनिधि को मिला अभावभरा जीवन और गुमनाम मौत
बहराइच में 9 जुलाई को पूर्व विधायक भगवती बाबू की जिन हालात में मृत्यु हुई वे हमारी संवेदनशून्यता और राजनीतिक विद्रूपताओं को फिर से उजागर कर गए।
तेंदुलकर कमेटी की रपट को सही मानें तो जिस देश में 33 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बसर करती है, यानी जिन्हें दो वक्त की भरपेट रोटी तक नसीब नहीं है, दुनिया के उस सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में तकरीबन 165 सांसद करोड़ोंपति हैं! इसे भारत की खुशनसीबी कहें या बदनसीबी? और संसद में ये करोड़ोंपति ही नहीं, एक से एक दागी, बाहुबलि और दबंगई के पुराने 'हिस्ट्रीशीटर' हैं जिनके सफेद कुर्तों की झीनी पाकेट में से महंगा मोबाइल और बहुराष्ट्रीय बैंकों के क्रेडिट कार्ड झलकते हैं, हाथ में सोने के मोटे कड़े और गले में कई कई लड़ों की सोने की चेन। लंबी चमचमाती गाड़ियों में जब वे इतराते हुए गेट नंबर एक से बैठते हैं तो किसी की क्या मजाल कि 'माननीय' की तरफ आंख उठाकर भी देख ले। उनके क्षेत्र की जनता तो उनके 'दरसनों' की प्यासी ही रहती है।
और सिर्फ संसद ही क्यों, विधानसभाओं के सदस्य भी रौबदाब दिखाने में किसी से कम नहीं होते। यहां तक कि पहली बार पार्षद चुने जाने के कुछ महीनों के भीतर ही बाबू साहब के नीचे 4x4 की एसयूवी होती है। पैसा जाने कहां से, कौन सा छप्पर फाड़ के बरसता है। 'जनसेवा' के आज ये ही मायने हैं और 'जनसेवा' के आतुरों का यह ही लक्ष्य।
लेकिन इसी देश में कितने ही माननीय ऐसे भी हुए हैं जो सही मायनों में सेवा का भाव लेकर राजनीति में आए और हमारी संसद तथा विधानसभाओं में अपनी गरिमामयी उपस्थिति से चार चांद लगा गए। पैसा तो नहीं ही बनाया, बल्कि जितना हो सका अपने क्षेत्र की जनता का भला ही किया। चाहते तो उस दौर के हिसाब से अपने आगे तक के सुविधा-सम्पन्न जीवन की गारंटी बांंध लेते, पर नहीं बांधी। साधारण जीवन जिया, और सबका दिल जीता। लेकिन उन्हें तब शायद नहीं पता था कि आने वाले वक्त में उनके उन जीवन मूल्यों का कोई मोल नहीं रह जाएगा। लोग उन्हें इस कदर भुला बैठेंगे कि उनका या उनके बेटे-बेटियों को कोई पहचानने वाला भी नहीं होगा।
ऐसा ही जीवन जीने वाले थे उत्तर प्रदेश के पूर्व विधायक भगवती प्रसाद राव। 70 के भगवती बाबू बहराइच के सरकारी अस्पताल में गुमनामी के हालात में सिधार गए। भगवती बाबू की कहानी सुनी तो कलेजा मुंह को आ गया। हरनिया के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल में ढेरों दुत्कारों के बाद दाखिल तो किए गए पर उनके परिवार के पास इतना पैसा भी नहीं था कि एक बोतल खून खरीद सके, उनका ऑपरेशन करा सके। खून की बोतल एक हजार रु. की थी, लेकिन बेेटे झाड़-झूड़ के 300 ही इकट्ठे कर पाए। ब्लड बैंक ने दुत्कार के भगा दिया। इससे पहले सरकारी अस्पताल वालों ने ही भगवती बाबू को दाखिल करने में हील-हवाला किया था और उन्हें गलियारे में पड़े रहने को मजबूर कर दिया था। ये तो भला हो उस पत्रकार का जिसने वहां से गुजरते हुए उन्हें पहचाना कि अरे, ये तो भगवती बाबू हैं, बहराइच के इकुना विधानसभा क्षेत्र से 1967-1969 और 1969-1974 में दो बार जनसंघ के टिकट पर विधायक रहे हैं। उस भले मानस ने फौरन अस्पताल वालों से दरयाफ्त की, भगवती बाबू की असली पहचान बताई और दाखिल करने को कहा, तब कहीं जाकर उन्हें 'बेड' मिला। लेकिन सरकारी अस्पतालों में जैसा 'इलाज' होता है सो हुआ और भगवती प्रसाद ने अंतत: प्राण त्याग दिए। उस देश में जहां आज विधायक नजले तक के इलाज के लिए सिंगापुर, न्यूयार्क जाते हैं, उसी देश में कभी विधायक रहे भगवती बाबू जीवन भर चाय की दुकान चलाकर दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करते रहे थे। वे ईमानदारी से जिए, कभी किसी के पास 'सोर्स' लगवाने नहीं गए, कभी किसी के आगे ठसक नहीं दिखाई कि 'परनाम नहीं कीजिएगा, हम विधायक रहे हैं भाई। हमसे टिकटवा का पइसा मांगिएगा?' वे तो आठ महीनों से बीमार होने के चलते पेंशन लेने लखनऊ तक नहीं जा पाए थे। तीन बेटे अपने गरीब पिता के इलाज के लिए दर दर भटकते रहे, पर इलाज लायक पैसा नहीं जुटा पाए। लेकिन हां, भगवती बाबू के मरने के बाद गांव वालों ने चंदा करके कफन ओढ़ाने और अंतिम संस्कार लायक पैसा जरूर इकट्ठा कर लिया। प्रतिनिधि
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