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बच्चो! कुछ भी पढ़ो, मन से पढ़ो। मन से की गई पढ़ाई ही जीवन में काम आती है। किसी चीज को केवल रटने से काम नहीं चलेगा। रटी हुई विद्या समय पर काम नहीं आती है। एक रट्टू तोता किस तरह जाल में फंसा उसे यहां पढ़ो।
किसी विद्वान ब्राह्मण ने एक बार एक तोता पाला। वह तोते को दिनभर पिंजरे में बन्द रखता था। वह उसे वहीं भोजन देता, खिलाता और उससे अपना मन बहलाता था। तोता कभी-कभी आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखकर पिंजरे में से निकलने की कोशिश करता पर बेचारा विवश हो मन मारकर वहीं पिंजरे में ही इधर-उधर घूम कर रह जाता। वह पिंजरे से बाहर नहीं आ पाता था।
एक दिन उस विद्वान व्यक्ति को उसकी दशा देखकर दया आ गई। वह तोते को छोड़ने को तैयार हो गया, एकाएक उसके मन में विचार आया कि ऐसे तो फिर व्याध इसे पकड़ लेगा। अत: इसे सिखा-पढ़ा कर छोड़ना चाहिए ताकि फिर यह कभी शिकारी के जाल में न फंस सके।
बस उस दिन से उस विद्वान व्यक्ति ने तोते को सिखाना-पढ़ाना शुरू कर दिया। तोता कुछ ही दिनों में बताई गई पूरी बात पढ़-सीख गया। वह उस विद्वान की बताई गई पूरी बात जोर-जोर से दोहराने लगा। जब उस विद्वान व्यक्ति को विश्वास हो गया कि अब तोता अपनी बात ठीक से बोलने लगा है, उसने उसका पिंजरा खोल दिया।
तोता उड़कर पेड़ पर जाकर बैठ गया। वह याद किये पाठ बोलने लगा- 'शिकारी आयेगा, जाल फैलाएगा, दाना-डालेगा, हमें फंसायेगा, पर हम नहीं फंसेंगे।' यह देख, सुनकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ। तोता उड़ कर जंगल में चला गया। वह वहां अपने तोतों के झुण्ड में जाकर मिल गया। तोते ने वन में पेड़ पर बैठकर अपना याद किया हुआ पाठ दोहराना शुरू कर दिया।
कई तोते भी अब उसके साथ वह पाठ दोहराने लगे। कुछ ही दिनों में सारे के सारे तोतों ने वह पाठ याद कर लिया। वैसे भी तोते में सुनकर याद करने की शक्ति सबसे अधिक होती है। अब तो जंगल के सभी तोते एक स्वर में यह पाठ दोहराने लगे। सारा जंगल इन स्वरों से गूंज उठा।
'शिकारी आयेगा, जाल फैलायेगा, दाना डालेगा, हमें फंसायेगा पर हम नहीं फंसेंगे।'
उस वन के वहेलियों का एक बड़ा परिवार अक्सर अपने जाल फैला कर चिड़ियों को, विशेषकर तोतों को फंसाया करता था। उनकी रोजी-रोटी इन्हीं पक्षियों को बेच कर चलती थी। उनकी आय का एकमेव यही साधन था।
उस परिवार के सभी वहेलिए जब वन में अपने-अपने जाल लेकर गए तो उन्होंने वहां सभी तोतों को पेड़ों पर बैठे यह गाते सुना-
'शिकारी आयेगा, जाल फैलायेगा, दाना डालेगा, हमें फंसायेगा पर हम नहीं फंसेंगे।' वे घबरा उठे, उन्होंने अपने-अपने जाल परेशान होकर अपने घर की खूंटियों पर टांग दिए। उन्होंने सोचा कि अब जंगल के सारे पक्षी होशियार हो गए हैं। वे हमारे जाल में नहीं फंसेंगे। वे सभी बड़ा उदास और चिन्तित रहने लगे।
कई दिन तक उनके घरों में चूल्हे नहीं जले, खाना नहीं पका। सभी लोग भूखे उठे और भूखे सोए। उन्होंने अपने मकान, गांव आदि सब कुछ छोड़ कर दूसरे स्थान पर जाने का निश्चय कर लिया। वे अपना-अपना सामान बांध कर अन्यत्र जाने की तैयारी कर ही रहे थे तभी अचानक उनके बूढ़े बाबा तीर्थयात्रा से लौटकर आ गए। यह दृश्य देखकर वे बोले, 'यह क्या हाल-चाल बना रखा है। सब रोनी सूरत लिए कहां जाने की तैयारी कर रहे हैं?'
उन्होंने बाबा को सारी बात बताई। बाबा हंस पड़े और कहने लगे, 'बेटो, तोते तो तोते ही होते हैं। वे रटना जल्दी सीख लेते हैं। उन्हें कहने दो। तुम अभी जंगल में जाकर दाना डालो और अपने जाल फैलाओ। देखो, तोते अवश्य आकर फंसेंगे। वे जंगल में गए। उन्होंने दोने बिखेरे, जाल फैलाए।
धीरे-धीरे एक-एक कर के तोते आने और फंसले लगे। तोते बोलते जाते थे- उतरते जाते थे, और जाल में फंसते जाते थे। वहेलियों ने जाल खींचा तोते बंध गए पर वे अभी भी बराबर गाए जा रहे थे-
'शिकारी आयेगा, जाल फैलायेगा, दाना डालेगा, हमें फंसायेगा पर हम नहीं फंसेंगे।' सभी वहेलिए बहुत खुश हुए आज कई दिन बाद उन्होंने एक साथ सभी ने कई-कई तोते पकड़े थे। उन्हें अपने बाबा के अनुभव की बात रह रह कर याद आ रही थी- 'तोते तो तोते ही होते हैं। उन्हें रटने की आदत होती है। वे रटी बात जल्दी ही बोलना सीख लेते हैं' साथ ही उन्हें अपनी मूर्खता पर हंसी भी आ रही थी। सच है- हमें अपनी बुद्धि का
उपयोग करना चाहिए।
काश्यप
जर्मनी में संस्कृत विश्वविद्यालय
बच्चो! आप भी संस्कृत अवश्य पढ़ते होंगे। आपको यह जानकर बड़ी खुशी होगी कि संस्कृत प्राय: सभी भारतीय भाषाओं और अनेक विदेशी भाषाओं की भी जननी है। जैसे डच, इटालियन, जर्मन, स्पेनिस, फ्रैंच, रसियन इत्यादि। जर्मनी के लोग स्वीकार कर चुके हैं कि जर्मन भाषा संस्कृत की देन है और उन्होंने अपनी एयरलाइन का नाम संस्कृत में 'लुप्तहांसा' रखा है। आजकल जर्मनी के विश्वविद्यालयों में संस्कृत की पढ़ाई पर सबसे ज्यादा पैसे खर्च किये जा रहे हैं। जर्मनी दुनिया का पहला देश है जिसने अपने एक विश्वविद्यालय को संस्कृत की पढ़ाई के लिए समर्पित कर दिया है, जहां पर एक विभाग सिर्फ चरक संहिता के लिए समर्पित है। कम्प्यूटर को चलाने के लिए जो सबसे अच्छी भाषा का उपयोग हो सकता है वो है संस्कृत।
आज विश्व के अनेक देशों में संस्कृत पढ़ाने के अनेक विद्यालय प्रारंभ हो चुके हैं। परन्तु विडम्बना है कि भाषाओं की जननी संस्कृत को छोड़कर भारतवर्ष की युवा पीढ़ी-पश्चिम की नकल करने में लगी है। आने वाला समय भारतीय संस्कृति का है। अपनी संस्कृति, इतिहास एवं वेदों को समझने के लिए संस्कृत अवश्य सीखें।
'चित्र बनाओ' स्तम्भ के लिए अपने बनाये रंगीन चित्र आप भी भेज सकते हैं।
पता : सम्पादक
पाञ्चजन्य
संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग झण्डेवाला
नई दिल्ली-110055
तिलकराज सिंह सोलंकी
कक्षा-5वीं
पता:- एफ 2/28
विक्रम विश्वविद्यालय परिसर
उज्जैन 456010 (म.प्र.)
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