'कैग' रपट से डरा दूरसंचार विभाग
|
रेडियो स्पेक्ट्रमों की पिछली दो नीलामियों के दौरान भारत सरकार टेलीकॉम कंपनियों की मूल्य निर्धारित करने वाली गोलबंदी नहीं रोक पाई, जिसके चलते देश को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। यह खरा-खरा आरोप लगाया है भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी 'कैग' की रपट ने। और यही वह बिन्दु है जिस पर दूरसंचार विभाग की त्योरियां चढ़ी हुई हैं। विभाग इतना तिलमिला गया है कि उसने 'कैग' के इस आरोप को रपट से हटवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है। इस आरोप के सीधे सीधे ये मायने हैं कि दूरसंचार विभाग की तरफदारी करते हुए संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में किसी तरह के पक्षपात या सरकारी खजाने को नुकसान न होने देने के कसमें खाकर जो बयान दिए थे, वे 'कैग' की इस रपट से खोखले साबित हो जाते हैं।
सूत्रों के हवाले से मिली इस महत्वपूर्ण जानकारी के मुताबिक, टेलीकॉम कंपनियों की गोलबंदी रोकने में सरकार की एक के बाद एक नाकामियों के चलते केन्द्र पिछले एक साल के दौरान दूसरी पीढ़ी की एयरवेव्ज के 453.50 मेगाहर्ट्ज का मुनाफेदार उपयोग करने में नाकाम रहा और उसने एयरवेव्ज की कीमत 85,014 करोड़ तय कर दी। 'कैग' ने पिछले दो महीनों के दौरान जारी कीं अपनी रपटों में इसे साफ शब्दों में बताया है। उसका प्रस्ताव है कि मार्च में खत्म हुए वित्त वर्ष की उसकी रपट में यह जोड़ा जाए कि '2 जी स्पेक्ट्रम के अक्षम आवंटन और अयोग्य प्रबंधन के चलते सरकार को नुकसान हुआ है और मोबाइल उपभोक्ताओं को बेहतर गुणवत्ता नहीं मिल पाई।'
महालेखाकार का आकलन है कि देश भर में बड़ी तादाद में स्पेक्ट्रम बिना उपयोग के पड़े हुए हैं, टेलीकॉम रेग्यूलेटरी अथोरिटी ऑफ इंडिया यानी 'ट्राई' के द्वारा किए गए सेवा ऑडिट की गुणवत्ता संदेह से परे नहीं है। सूत्रों ने बताया कि 27 मई को 'कैग' ने इस आशय की चिट्ठी दूरसंचार विभाग को भेजी थी, जिसके जवाब में विभाग ने 'कैग' के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया था। उसका कहना था कि उस पहले वाले फार्मूले पर चलते हुए ये सेवा प्रदाताओं को अतिरिक्त एयरवेव्ज नहीं दे सका जिसमें ग्राहकों की संख्या के आधार पर स्पेक्ट्रम दिया जाता था। 'कैग' का आरोप है कि जहां मौजूदा टेलीकॉम कंपनियां और ज्यादा स्पेक्ट्रम पाने के लिए हाथ-पांव मार रही हैं वहीं 2008 में लाइसेंस पाने वाले नए संचालक चार साल बीतने के बाद भी उनको मिली एयरवेव्ज का बमुश्किल ही उपयोग कर पाए हैं। अगर यह स्पेक्ट्रम अतिरिक्त स्पेक्ट्रम की मांग कर रहे मौजूदा संचालकों को ही आवंटित कर दिया जाता तो विभाग को हजारों करोड़ रुपए की आय होती, जबकि इसके मुकाबले पिछले पांच सालों में 50 लाइसेंसों से बेहद मामूली आय हुई है।
इतना ही नहीं, उससे पहले 'कैग' ने कपिल सिब्बल की अगुआई वाले दूरसंचार विभाग से पूछा था कि गोलबंदी करके स्पेक्ट्रम बिक्री के दो दौर (नवम्बर 2012 और मार्च 2013) बेकार कर देने वाले टेलीकॉम सेवा प्रदाताओं के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई।
'कैग' ने टेलीकॉम कंपनियों द्वारा बताई ग्राहकों की संख्या और 'ट्राई' के साधारण कायदों की गुणवत्ता के क्रियान्वयन पर भी सवाल खड़े किए थे। इसने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि दूरसंचार विभाग संचालकों पर रेडियो स्पेक्ट्रम नीलामी के हाल के दो दौर में भाग लेने का जोर डाल सकता था। यह वही 'कैग' है जिसकी पहले वाली रपट, जो 2010 में संसद में पेश की गई थी, ने 2 जी घोटाले का पिटारा खोला था। उस रपट में भी कायदों के प्रति लापरवाही के चलते देश को 1.76 लाख करोड़ का चूना लगने की बात उजागर हुई थी। तब उस वक्त के दूरसंचार मंत्री ए. राजा को इस्तीफा देना पड़ा था। उन पर अभी सीबीआई जांच चल रही है।
गोलबंदी के आरोपों वाली 'कैग' की यह रपट अपनी मौजूदा सूरत में छप गई तो इसमें शक नहीं कि बड़बोले मंत्री सिब्बल की कलई खुलेगी और कौन जाने, टेलीकॉम कंपनियों की गोलबंदी के सूत्रधार वे ही निकलें। ऐसा हुआ तो क्या राजा को निकालने वाली सोनिया सरकार सिब्बल पर भी वैसा ही कड़ा रुख अपनाएगी?
टिप्पणियाँ