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राष्ट्र की एकता–अखण्डता को 1953 के समर्पित दो ऐतिहासिक घटनाक्रम
जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद आन्दोलन के साठ साल पूरे हो गये हैं। इसी आन्दोलन में 23 जून 1953 को उस समय की भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्राणोत्सर्ग कर जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा था। उनका श्रीनगर की जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में देहान्त हो गया था। जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद का आन्दोलन पूरे उफान पर था। राज्य की सम्पूर्ण राष्ट्रवादी शक्तियां सारे प्रदेश में एक ही हुंकार लगा रही थीं– 'एक देश में दो प्रधान, दो निशान, दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे'। डा. मुखर्जी स्वयं जम्मू-कश्मीर में जाकर स्थिति का अध्ययन करना चाहते थे और उस समय के राज्य के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला से मिल कर समस्या का राष्ट्रीय हितों के अनुकूल समाधान निकालना चाहते थे। भारतीय जनसंघ, रामराज्य परिषद, हिन्दू महासभा और अकाली दल ने मिलकर प्रजा परिषद के समर्थन में देश भर में 5 मार्च 1953 को आन्दोलन प्रारम्भ कर ही दिया था। दिल्ली में हर रोज देश के अनेक हिस्सों से आकर सत्याग्रही गिरफ्तारियां दे रहे थे ।
दरअसल जम्मू-कश्मीर में संकट पैदा करने के लिये राजनीतिक षड्यंत्र 1947 में ही शुरू हो गए थे। रियासत के भारत में विलय के बाद यही उचित था कि सत्ता लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये जन प्रतिनिधियों को सौंपी जाती। लेकिन जवाहर लाल नेहरू के दुराग्रह पर जब यह सत्ता कश्मीर घाटी में सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली नेशनल कान्फ्रेंस के अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला को सौंप दी गई तो राज्य की राष्ट्रवादी ताकतों ने 17 नवम्बर 1947 को राज्य में प्रजा परिषद नाम के नये राजनीतिक दल का गठन कर लिया। उधर लद्दाख में लद्दाख बौद्ध परिषद के नाम से ऐसी संस्था पहले ही विद्यमान थी। लेकिन प्रजा परिषद का मकसद नकारात्मक विरोध करना ही नहीं था, वह शेख को विश्वास में लेकर पूरे राज्य में एक नई लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधर थी। लेकिन शेख की इसमें कोई रुचि नहीं थी। उनकी नजर केवल कश्मीर घाटी तक ही सीमित थी। वे जम्मू और लद्दाख के साथ बराबर के आसन पर बैठ कर सहयोग नहीं करना चाहते थे बल्कि उन्हें सत्ता का लालच देकर खरीदना चाहते थे। उस समय जम्मू में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक पंडित प्रेम नाथ डोगरा सबसे प्रभावी और सम्मानित जननेता थे जिन्हें शेख ने मंत्रिपद का लालच देकर अपने साथ मिलाना चाहा। यही डोगरा बाद में प्रजा परिषद के अध्यक्ष बने थे। जन संघर्षों की भट्टी में से तप कर निकले पंडित प्रेम नाथ के लिये इस प्रस्ताव की भला क्या औकात हो सकती थी, क्योंकि प्रजा परिषद राष्ट्रीय हितों की लड़ाई लड़ रही थी, व्यक्तिगत सत्ता की लड़ाई नहीं। 1949 में ही शेख ने प्रेमनाथ डोगरा को गिरफ्तार कर लिया और उन पर हत्या और बलात्कार के आरोप थोप दिये। राज्य की जनता ने शेख की इस फासीवादी सत्ता के खिलाफ लम्बा आन्दोलन छेड़ा और सरकार को अन्तत: डोगरा को रिहा करना पड़ा। लद्दाख के लोग तो शेख के व्यवहार से इतने उत्तेजित थे कि वहां के मुख्य लामा कशुक बकुला ने यहां तक कह दिया कि इस प्रकार का व्यवहार सहने से अच्छा है कि लद्दाख को पंजाब से मिला दिया जाये।
इतिहास के इस मोड़ पर जवाहर लाल नेहरू की साम्प्रदायिक सोच ने राज्य और पूरे देश के हितों को और नुकसान पहुंचाया। जम्मू-कश्मीर 26 अक्तूबर 1947 को विधिवत् देश की संघीय व्यवस्था का अंग बन गया था। अब वहां के सभी बाशिंदे अन्य नागरिकों के समान ही भारत के नागरिक थे। लेकिन नेहरू अपनी साम्प्रदायिक सोच के कारण अभी भी सारा हिसाब किताब हिन्दू और मुसलमान के हिसाब से ही लगा रहे थे। वे अपनी इस हिन्दू-मुस्लिम सोच से बाहर आने को तैयार नहीं थे। इस साम्प्रदायिक सोच का लाभ शेख अब्दुल्ला ने उठाया और जम्मू-कश्मीर में राजशाही के स्थान पर शेख शाही स्थापित करनी चाही।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण 1959 में राज्य की संविधान सभा के लिये होने वाले चुनावों में सामने आया। इस संविधान सभा को ही राज्य का भावी संविधान बनाना था, प्रदेश में नई प्रशासकीय सत्ता की रूपरेखा स्थापित करनी थी। संविधान सभा की सौ सीटें थीं। लेकिन इनमें से 25 सीटें उन इलाकों में पड़ती थीं जो अभी भी पाकिस्तान के कब्जे में थे और जहां फिलहाल चुनाव करवाना संभव नहीं था। शेष बची 75 सीटों में से दो लद्दाख क्षेत्र की थीं। बाकी की 73 सीटों में से 43 सीटें कश्मीर घाटी को दे दी गईं और जम्मू संभाग को केवल 30 सीटें दी गईं जबकि जम्मू संभाग की जनसंख्या कश्मीर घाटी की जनसंख्या से कहीं ज्यादा थी। लेकिन उससे भी बढ़कर ताज्जुब तब हुआ जब चुनाव के समय शेख अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस को जिताने के लिये या तो विरोधियों को नामांकन पत्र भरने ही नहीं दिया गया, या फिर जिन्होंने हिम्मत की उनके नामांकन पत्र ही रद्द कर दिये गये। प्रजा परिषद को संविधान सभा के चुनाव लड़ने का अवसर नहीं दिया गया। दो प्रत्याशी फिर भी डटे रहे लेकिन उनके लिये प्रचार करना असंभव बना दिया गया, इसलिये अंतिम समय वे भी मजबूर होकर चुनाव मैदान से हट गये। इस प्रकार संविधान सभा पर कब्जा कर लेने के बाद शेख असली रंग में आ गये।
विदेशी शक्तियों ने भी उनसे सम्पर्क करना शुरू कर दिया और शेख ने जम्मू-कश्मीर की आजादी का राग अलापना शुरू कर दिया। सरकारी फंक्शनों में राष्ट्रीय ध्वज के स्थान पर नेशनल कान्फ्रेंस के झंडे ही नहीं फहराने लगे, बल्कि शेख ने विरोध करने वाली राज्य की राष्ट्रवादी जनता को चुनौती देनी शुरू कर दी। जम्मू में एक सरकारी कालेज में नेशनल कान्फ्रेंस का झंडा फहराने के प्रश्न पर जन विद्रोह इतना प्रबल हो उठा कि सरकार को सेना बुलाना पड़ी और 72 घंटे का कर्फ्यू लगाना पड़ा। शेख अब्दुल्ला ने राज्य में 'कश्मीर मिलिशिया' नाम से एक सशस्त्र बल का गठन किया हुआ था, जिसका खर्च तो सरकारी खजाने से होता था लेकिन काम वह शेख की व्यक्तिगत सेना के तौर पर करती थी। जम्मू में इस मिलिशिया का आतंक था। प्रेमनाथ डोगरा समेत प्रजा परिषद के तमाम नेता जेल में डाल दिये गये । लेकिन एक बार फिर जनता की जीत हुई और जनान्दोलन के आगे झुकते हुये सभी नेताओं को छोड़ना पड़ा।
लेकिन असली लड़ाई तो अभी आगे थी। राज्य का नया संविधान बन रहा था। नेहरू और शेख ने दिल्ली में बैठ कर निर्णय कर लिया कि नया संविधान कैसा होगा। इस प्रक्रिया में न जम्मू के लोगों को शामिल किया गया और न ही लद्दाख के लोगों को। लेकिन जब इन दो दोस्तों की बातचीत का रहस्य देश के आगे खुला तो मानो भूकम्प आ गया हो। इसमें था कि-जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना अलग झंडा होगा। इसमें था कि-जम्मू-कश्मीर राज्य में संघीय संविधान के 'ख' श्रेेणी के राज्यों की तर्ज पर अब राजप्रमुख नहीं रहेगा बल्कि भारत के राष्ट्रपति की तर्ज पर राज्य की विधायिका प्रधान का निर्वाचन करेगी। राज्य का अपना अलग संविधान बना रहेगा। संघीय संविधान में दिये गये मौलिक अधिकार राज्य के नागरिकों को प्रदान नहीं किये जायेंगे। उच्चतम न्यायालय , महालेखाकार, चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में नहीं होगा। राज्य का संघीय व्यवस्था में वित्तीय एकीकरण नहीं होगा। शेख ने व्यंग्य से कहा, इन छोटी छोटी बातों पर बाद में विचार कर लिया जायेगा। शेख और नेहरू बाद में विचार कर सकते थे लेकिन जम्मू-कश्मीर की राष्ट्रवादी चेतना अब तक समझ गई थी कि यदि शेख के बेलगाम घोड़े की लगाम अभी न कसी गई तो बहुत देर हो जायेगी। इस पूरे प्रसंग में राज्य की राष्ट्रवादी शक्तियों, खासकर जम्मू के लोगों के सीने पर एक ऐसा घाव हुआ, जिसकी उन्होंने आशा नहीं की थी। महाराजा हरि सिंह ने लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस में छाती ठोक कर अंग्रेजों को कहा था कि, हम भारत के लोगों की स्वतंत्रता की आकांक्षाओं के साथ हैं और बाद में महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिए दबाव डाल रहे भारत के वायसराय माउंटबेटन से अंतिम दिन मिलने से इंकार करने का साहस दिखाया था। उनको राजप्रमुख के पद से हटाने की दुरभिसंधियां नेहरू और शेख कर रहे थे, तब महाराजा के सुपुत्र कर्ण सिंह नेहरू-शेख के पाले में मिल गये। जम्मू के लोगों को मिला यह ऐसा घाव था, जिसने राज्य की राष्ट्रवादी शक्तियों के लड़ने के संकल्प को और मजबूत किया।
बाकी सारा तो इतिहास है। 22 नवम्बर 1952 को प्रजा परिषद के नेतृत्व में राज्य में राष्ट्रीय अखंडता की लड़ाई शुरू हो गई। इसमें केवल हिन्दी, सिख, गुज्जर, शिया, पहाड़ी ही शामिल नहीं थे बल्कि बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान भी शामिल थे। शेख की 'कश्मीर मिलिशिया' ने जुल्मों की हद कर दी। घरों में घुसकर लोगों से मारपीट ही नहीं की गई, महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं हुईं। घर जला दिये गये। सम्पत्तियां नष्ट कर दी गईं। हजारों सत्याग्रही जेलों में ठूंस दिये गये। जम्मू से सत्याग्रहियों को पकड़ पकड़कर श्रीनगर की जेलों में भेजा जा रहा था। प्रेमनाथ डोगरा समेत प्रजा परिषद के सभी नेता बन्दी बना लिये गये। लेकिन अब तो यह आन्दोलन किसी राजनीतिक दल का आन्दोलन न रह कर जनता का आन्दोलन बन चुका था । गांव-गांव में इस सत्याग्रह की तपिश अनुभव की जा रही थी। पुलिस स्थान स्थान पर निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोलियां चला रही थी। सुन्दरबनी, रामबन, हीरानगर आदि स्थानों पर पन्द्रह सत्याग्रही राष्ट्रीय अखंडता के लिये शेख की गोलियों का शिकार होकर आत्मोत्सर्ग कर चुके थे, लेकिन दिल्ली में बैठे नेहरू इन शहादतों को मनगढ़न्त बता कर जले पर नमक छिड़क रहे थे। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी कभी नेहरू से और कभी शेख से प्रजा परिषद से बात करने का आग्रह कर रहे थे। लेकिन दोनों ही आन्दोलन में गिर रही लाशों की गिनती करते जा रहे थे और बातचीत से इंकार कर रहे थे।
शायद डा. मुखर्जी को लगने लगा था कि राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिये और नेहरू की आंखों पर पड़े पर्दे को हटाने के लिये किसी बड़े बलिदान की जरूरत है। कुछ वर्ष पहले ही उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था — 'मेरी तीव्र इच्छा है कि जब भी मेरा अन्त आये तो मैं कर्मक्षेत्र में निरन्तर सत्य के लिए संघर्ष करता हुआ मरूं।' लगता है उन्होंने डायरी में लिखी अपनी इस बात को पूरा करने का निर्णय कर लिया था। प्रजा परिषद के इस राष्ट्रीय आन्दोलन को सारे देशवासियों का समर्थन देने के लिये वे 11 मई 1953 को पठानकोट पहुंचे और उन्होंने जम्मू-कश्मीर में माधोपुर-लखनपुर से प्रवेश किया। राज्य की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और बन्दी बना कर श्रीनगर जेल में भेज दिया। वहां 23 जून 1953 को उनका रहस्यमयी परिस्थितियों में देहान्त हो गया। मुखर्जी के इस आत्मबलिदान से नेहरू की आंखों पर पड़ा भ्रम का पर्दा हट गया। नेशनल कान्फ्रेंस में भी शेख के खिलाफ विद्रोह हो गया। मंत्रिमंडल ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया। शेख अपदस्थ हुए। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
आज प्रजा परिषद के आन्दोलन और डा. मुखर्जी के बलिदान को साठ साल पूरे हो गये हैं। राष्ट्रवादी ताकतों की लड़ाई आज भी देश भर में जारी है। इसे निर्णायक मोड़ पर ले आना ही डा. मुखर्जी और प्रजा परिषद के आन्दोलन के शहीदों को सच्ची श्रद्धाञ्जली है। डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
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