संघ और राजनीति
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संघ और राजनीति

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Jun 22, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 22 Jun 2013 13:58:16

'संघ और राजनीति' शीर्षक पर लेख लिखने के लिए मुझे प्रवृत्त किया 13 जून, 2013 के 'इंडियन एक्सप्रेस' नामक अंग्रेजी दैनिक के संपादकीय लेख ने। 'इंडियन एक्सप्रेस' के उस लेख का शीर्षक है 'कमिंग आउट' हिन्दी में उसका अनुवाद होगा 'प्रकटीकरण'। और भी एक कारण है, वह यह कि 13 जून को ही 'टाइम्स नाऊ' चैनल के मुंबई के प्रतिनिधि मुझसे मिलने आये और उन्होंने 'संघ और राजनीति' विषय पर मेरा साक्षात्कार लिया। रविवार 16जून को 'टाइम्स नाऊ' पर एक घंटे की 'पॉलिटिक्स' शीर्षक से वह परिचर्चा प्रसारित की गई।

'इंडियन एक्सप्रेस' के संपादकीय का निहितार्थ ऐसा है कि संघ खुलकर राजनीति में उतरे, और संघ को स्वयं के बारे में अराजनीतिक होने की काल्पनिक कहानी त्याग देनी चाहिए। भाजपा के लिए नागपुर (अर्थात् रा. स्व. संघ) वैसे ही है जैसे काँग्रेस के लिए 10 जनपथ (अर्थात् श्रीमती सोनिया गांधी का निवास स्थान)। संघ को उपदेश देने की स्वतंत्रता सभी को है, इस कारण 'इंडियन एक्सप्रेस' द्वारा ऐसा लिखने में अनुचित कुछ भी नहीं। लेकिन इस उपदेश से संघ के बारे में उसका अज्ञान और संभ्रम ही प्रकट होता है। इसे वे और बाकी सब भी समझें, इसलिए यह आलेख।

'राष्ट्र' का अर्थ

यह सच है कि संघ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को यर्थाथ में समझ लेना कुछ कठिन है। कारण सार्वजनिक जीवन में जो अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं, उनके ढाँचे में संघ फिट नहीं बैठता। लोगों के ध्यान में यह नहीं आता कि संघ संपूर्ण समाज का संगठन है, समाज के भीतर एक संगठित टोली भर नहीं है। समाज मिश्रित होता है। अर्थात उसमें जीवन के अनेक क्षेत्र होते हैं। राजनीति या राजनीतिक क्षेत्र उनमें से एक क्षेत्र है, एकमात्र क्षेत्र नहीं। संपूर्ण समाज के संगठन का अर्थ इन सब समाज क्षेत्रों और समाज घटकों का संगठन। इसका ही नाम राष्ट्रीय संगठन है। कारण राष्ट्र मतलब केवल राज्यव्यवस्था नहीं होता, राष्ट्र मतलब लोग है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

किस जनसमूह का राष्ट्र बनता है, इसके बारे में कुछ निश्चित धारणाएँ हैं। मुख्यत: तीन धारणाएँ हैं (1) जिस देश में हम रहते है, उस भूमि के विषय में हमारी भावना (2) हमारा पूर्वजों संबंधी ज्ञान और उनके साथ हमारा संबंध। उस जनसमूह का जो इतिहास होता है, वह उस समूह को अपना इतिहास लगना चाहिए। इतिहास में सब विजय और अभिमान के ही प्रसंग होते हैं, ऐसा नहीं है। पराजय और लज्जा के भी प्रसंग होते हैं, वह सबको अपने यश-अपयश और अभिमान-लज्जा के प्रसंग लगने चाहिए (3) और सबसे महत्त्व की बात यह है कि अच्छा-बुरा तय करने के समाज के मापदंड, उसकी मूल्यधारणा। यह मूल्यधारणा संस्कृति होती है और संघ इसे अपने राष्ट्रीयत्व का आधार मानता है। इस कारण हम कहते हैं कि हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। ऊपर बताई गई तीन धारणाएँ धारण करने वाले लोगों का सर्वपरिचित नाम 'हिन्दू' होने के कारण यह हिन्दूराष्ट्र है। हिन्दू एक 'रिलिजन' या मजहब नहीं बल्कि अनेक 'रिलिजन्स' को अपने में समेट लेने वाला एक महासागर है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् या अन्य किसी ने कहा है कि हम 'धर्म' शब्द का अनुवाद 'रिलिजन' करते है, इस कारण बहुत बड़ा वैचारिक संभ्रम निर्माण होता है।

अर्नेस्ट रेनाँ की व्याख्या

यहाँ मुझे अर्नेस्ट रेनाँ नामक फ्रेंच लेखक का स्मरण आ रहा है। उनका कथन है-

'The soil provides the substratum, the field for struggle and labour. Man provides the soul. Man is everything in the formation of this sacred thing that we call a people. Nothing that is material suffices here. A nation is a spiritual principle, the result of the intricate workings of history, a spiritual family and not a group determined by the configuration of the earth.”

तात्पर्य यह कि संघ का रिश्ता संपूर्ण राष्ट्र से है और राजनीति भी राष्ट्र का ही एक अंश है, इस कारण राजनीति से भी उसका संबंध है। वह आज का नहीं, बहुत पुराना है। संघ की जिन्होंने स्थापना की, उन डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना के बाद सन् 1930 में जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर कारावास भोगा था, और 1975 का आपातकाल समाप्त करने के लिए जो विशाल सत्याग्रह हुआ था, उस सत्याग्रह में संघ ने मतलब संघ के स्वयंसेवकों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। ये दोनों राजनीतिक आंदोलन थे, लेकिन उनका संबंध राष्ट्रजीवन के साथ था।

विशिष्ट कार्यपद्धति

संघ की एक विशिष्ट कार्यपद्धति है। जिस क्षेत्र का संगठन होना चाहिए, ऐसा उसे लगता है, उस क्षेत्र के लिए वह कार्यकर्ता भेजता है, नियुक्त करता है। कुछ क्षेत्रों के बारे में अगुवाई दूसरों की रही है और संघ ने उन्हें कुछ कार्यकर्ता देकर समर्थन दिया है। भारतीय जनसंघ डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्थापित किया। उसके लिए संघ ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी बाजपेयी, नानाजी देशमुख, सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे, डॉ. भाई महावीर आदि श्रेष्ठ कार्यकर्ता दिये। इनमें से डॉ. महावीर के अलावा अन्य सब संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे। डॉ. मुखर्जी के असामयिक निधन के कारण, पार्टी चलाने और उसके विस्तार की जिम्मेदारी इन लोगों पर आ पड़ी और उन्होंने वह अच्छी तरह से निभाई। 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय होने के बाद जनसंघ एक प्रकार से समाप्त हो गया, लेकिन जनता पार्टी के कार्यकर्ता संघ के स्वयंसेवक नहीं रह सकेंगे, ऐसी बात उस पार्टी में उत्पन्न होने के कारण, संघ के साथ संबंध बना रहे, ऐसा मानने वाले स्वयंसेवक उसमें से बाहर निकले और सन् 1980 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। जनता पार्टी से बाहर निकलकर भाजपा की स्थापना में आगे रहने वाले संघ के स्वयंसेवक ही थे। संघ की कार्यपद्धति की यह विशेषता है कि संबंधित क्षेत्र के कार्यकर्ता ही वह क्षेत्र चलाएं और उसे विस्तार दें, इस दृष्टि से हर क्षेत्र स्वतंत्र और स्वायत्त है। उनका स्वतंत्र संविधान होता है। संस्था के लिए आवश्यक निधि (धन व संसाधन) जमा करने की उनकी अपनी पद्धति होती है। कोई भी क्षेत्र निधि के लिए संघ पर निर्भर नहीं होता। मुझे यह आभास है कि अन्य क्षेत्रों की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक होगी, फिर भी यह बताना उपयुक्त होगा कि वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना श्री बालासाहब देशपांडे नामक एक सरकारी अधिकारी ने की थी। उन्हें संघ ने आरंभ में दो कार्यकर्ता दिये थे। भारतीय मजदूर संघ की स्थापना दत्तोपंत ठेंगड़ी नामक संघ के कार्यकर्ता ने की तो विश्व हिंदू परिषद की स्थापना में तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा.स. गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी की थी, लेकिन वे विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष नहीं बने।

स्वतंत्र और स्वायत्त

तो संघ क्या करता है? संघ आवश्यक होने पर संबंधित क्षेत्र में अपने में कार्यकर्ता भेजता है। वे कार्यकर्ता संबंधित क्षेत्र में स्वायत्तत्ता से काम करते हैं। कभी-कभार संघ के साथ परामर्श होता ही है। संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सब क्षेत्रों की प्रातिनिधित्व रहता है, लेकिन इसका अर्थ, संघ उनके पदाधिकारियों का चुनाव करता है, ऐसा विचार करना अनुचित होगा। राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों में संघ द्वारा अधिकृत रूप से दिया गया कार्यकर्ता भी हो सकता है, लेकिन इसका निर्णय संबंधित संगठन का ही होता है। किस चुनाव क्षेत्र से लोकसभा का उम्मीदवार कौन हो, यह संघ नहीं तय करता। किस प्रान्त का भाजपा का अध्यक्ष कौन होगा, यह भी संघ नहीं तय करता। क्या 10 जनपथ ऐसा ही करता है? यह 'इंडियन एक्सप्रेस' के विद्वान संपादक बताएं और फिर 10 जनपथ और नागपुर की तुलना करें। किसी विशिष्ट संदर्भ में, संबंधित क्षेत्र के लोग संघ के अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श करते हैं, लेकिन निर्णय उनका ही होता है। संघ की उनसे इतनी ही अपेक्षा होती है कि संबंधित संगठन अपने संगठन से राष्ट्र को बड़ा माने। मतलब समाज और समाज की मूल्य व्यवस्था को श्रेष्ठ माने। सही लगे या गलत लेकिन संघ यह बताता है कि व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं, संगठन श्रेष्ठ है, और संगठन से भी राष्ट्र श्रेष्ठ है, संघ में ऐसी ही पद्धति है। इसलिए संघ में 'डॉ. हेडगेवार की जय' या 'श्रीगुरुजी की जय' जैसे घोष-वाक्य नहीं हैं। संघ का एक ही घोष-वाक्य है और वह है 'भारत माता की जय'। इसका तात्पर्य समझना कठिन नहीं लगना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है,

आडवाणी प्रकरण

ताजा प्रकरण है श्री लालकृष्ण आडवाणी के त्यागपत्र का। उस त्यागपत्र का सही कारण वे ही बता सकेंगे। उन्होंने अपने  त्यागपत्र में पार्टी से कुछ अपेक्षाएँ व्यक्त की हैं, वे अपेक्षाएँ ठीक ही है। उनका त्यागपत्र अचानक आने के कारण सबको धक्का लगा। संघ के सरसंघचालक को भी लगा होगा। मेरी ऐसी जानकारी है कि भाजपा के ही किसी वरिष्ठ नेता ने इसकी जानकारी सरसंघचालक जी को दी और वे अडवाणी जी से बात करें, ऐसा आग्रह किया। पहला फोन किसने किया? आडवाणी जी ने या भागवत जी ने? ऐसे प्रश्न खड़े करने में कोई अर्थ नहीं। भाजपा में संकट निर्माण हुआ है, वह दूर हो, ऐसा ही भाजपा के सब हितचिंतकों को लगता होगा। अडवाणी जी जैसे वयोवृद्ध, अनुभवसमृद्ध, ज्येष्ठ नेता को पार्टी में रहना चाहिए और उसी दृष्टि से किसी ने सरसंघचालक जी से आडवाणी जी के साथ बात करने की विनती की होगी, इसमें अनुचित क्या है? अपने कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित कार्य सही तरीके से चलते रहे, उसमे मतभेद होने पर भी मनभेद  न हो, क्या ऐसा प्रयास करना अस्वाभाविक है?

'इंडियन एक्सप्रेस' के संपादक ने उपदेश किया है कि संघ खुलकर राजनीति में आये। लेकिन संघ उनका यह उपदेश मान्य नहीं करेगा। कारण, उसे राजनीति की अपेक्षा राष्ट्र महत्व का लगता है। और राजनीति ने भी राष्ट्र को श्रेष्ठ मान्य करना चाहिए, ऐसी संघ की अपेक्षा है। संघ चाहे तो चुनावी राजनीति में उतरने से उसे कोई भी रोक नहीं सकता, लेकिन राजनीति जैसे समाज जीवन के सिर्फ एक क्षेत्र के साथ एकरूप नहीं होना, यह संघ की भूमिका है और संकल्प भी है।(ब्लॉक से साभार)

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