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उत्तराखंड में जिस विनाशलीला को देश देख रहा है, उसके मूल में हमारा वहां पर प्राकृतिक के साथ खिलवाड़ करना है।
बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है। अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे। इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा।
सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करती है, पर भागीरथी नदी अब पहाडी घाटियों में ही खत्म होती जा रही है। गंगोत्री के कुछ करीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व खत्म सा हो गया है।
उस इलाके में बन रहीं सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है। यही हालत अलकनंदा की भी है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई करीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी। इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे।
जोशीमठ जैसा पौराणिक महत्व का नगर पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड़ की वजह से खतरे में है। उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगढ़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है। कुमाऊं के बागेश्वर जिले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है। हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में पांच सौ अठावन छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही हैं। दुनियाभर के भूगर्भवैज्ञानिक कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं। लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं।
जब तक सरकारों पर चौतरफा दबाव नहीं पड़ेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खड़ा कर विकास का भ्रम पैदा करती रहेंगी।
आज उत्तराखंड में कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीक से खड़िया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है। इसका सबसे बुरा असर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों में पड़ा है। इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ़ रहे हैं। पर्यावरण से हो रही इस छेड़छाड़ की वजह से 'ग्लोबल वार्मिंग' का असर उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा है। वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीके से घट-बढ़ रहा है। सुरक्षा के उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में ग्लेशियर लापता हो जाएंगे। तब उत्तर भारत की खेती के लिए वरदान मानी जाने वाली नदियों का नामो-निशान भी गायब हो सकता है।
अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है। यह बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा। यह योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली है। इससे छह हजार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है। इसमें भी बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ जमीन बांध में समा जानी है।
लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सिर्फ बांध ही बांध नजर आएंगे। लेकिन इस विकास को देखने के लिए लोग नहीं बचेंगे। तब पहाड़ों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे। कम से कम हमें अब तो जाग जाना चाहिए।विवेक शुक्ल
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