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l क्या लातीनी अमरीकी देशों की तरह डगमगा जाएगी भारत की अर्थव्यवस्था?
l आईएमएफ की रपट का निचोड़–अर्थसंकट की चपेट में भारत
l रुपए में गिरावट से व्यापार घाटा और महंगाई बढ़ने के आसार
l नीतियों में बदलाव और चीनी सामान पर लगाम से मिल सकती है राहत
31 मई 2013 को भारत सरकार के केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने वर्ष 2012-13 में जीडीपी के अनुमानित आंकड़े प्रकाशित किए, जिसके अनुसार बीते वर्ष के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 5 प्रतिशत बतायी गयी है। गौरतलब है कि वर्ष 2011-12 में अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.2 प्रतिशत रही थी। उससे पूर्व वर्ष 2010-11 में जीडीपी की विकास दर 8.3 प्रतिशत आंकी गई थी। वर्ष 2012-13 की विकास दर के आंकड़े इस कारण से भी महत्वपूर्ण हैं कि यह बारहवीं पंचवर्षीय योजना का पहला वर्ष है। इस वर्ष के विकास के आंकड़ों को लेकर प्रारंभ से ही भारी असमंजस बना हुआ था। वर्ष पूर्व अनुमानों में सरकार की ओर से संभावित विकास दर 7 प्रतिशत बताई गयी थी, जिसे बाद में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने घटाते हुए 4.9 प्रतिशत कर दिया था। वर्ष 2013-14 के लिए सरकार का अभी भी यह मानना है कि विकास दर 7 प्रतिशत के आस-पास रहेगी।
उधर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां कुछ अलग ही दास्तान बयान कर रही हैं। अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी हाल की रपट में कहा है कि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और लातीनी अमरीकी देशों की भांति भारतीय अर्थव्यवस्था में भी गिरावट के चिन्ह दिखाई देने लगे हैं। गौरतलब है कि थाईलैंड, मलेशिया, फिलिपिन्स, इंडोनेशिया, ताईवान, दक्षिण कोरिया, हांग-कांग सरीखे देशों ने 1980 के दशक में और लातीनी अमरीकी देशों ने उससे पूर्व ही 10 से 12 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त कर ली थी। उनकी जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय में हुई वृद्धि के कारण उन अर्थव्यवस्थाओं को न केवल उभरती अर्थव्यवस्थायें कहा जाने लगा था, बल्कि लोग इन देशों को 'एशियन टाईगर' भी कहने लगे थे। बहुरराष्ट्रीय कंपनियां इन देशों में अपने उत्पादन केन्द्र खोल रही थीं और इन देशों का उत्पादन तंत्र विकसित दिखने लगा था। ये अर्थव्यवस्थाएं भारी विदेशी निवेश भी आकर्षित कर रही थीं और इनके निर्यात भी बढ़ रहे थे।
विकास के उस आभास के चलते जमीन-जायदाद की कीमतें कई गुणा हो गई थीं। लेकिन अचानक कुछ ऐसा हुआ कि जमीन-जायदाद की कीमतें घटने लगीं और निर्यात भी कम होने शुरू हो गए। भुगतान शेष केवल घाटे में ही नहीं चला गया, बल्कि असहनीय भी हो गया। विदेशी निवेशक अपना पैसा लेकर उड़नछू होने लगे और विदेशी मुद्रा संकट गहराने लगा। विदेशी निवेश की वापसी और जायदाद का बुलबुला फूटने के बाद उत्पादन घटने लगा, वास्तविक मजदूरी भी घटने लगी और लोगों के जीवन स्तर में भारी गिरावट आ गई। उनको अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन करना पड़ा था।
आईएमएफ की यह रपट भारत के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिछले लगभग 10 वर्षों तक लगातार औसत 8 प्रतिशत विकास दर होने के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर घटकर 5 प्रतिशत ही रह गई है। हालांकि चीन में विकास दर के घटने का संदर्भ भी आईएमएफ ने लिया है, लेकिन भारत में आर्थिक संकट अधिक गहराया हुआ जान पड़ता है। आईएमएफ की रपट में कहा गया है कि भारत भी उसी जाल में फंस रहा है (जिसे मध्यम आय जाल कहा जा सकता है), जिसमें पहले लातीनी अमरीकी देश और बाद में दक्षिण-पूर्व एशियाई देश फंसे थे। मध्यम आय जाल का मतलब यह है कि जो देश विकसित नहीं हैं, वे जब भी विकास की चाहत रखेंगे, बाधाओं के चलते लगातार विकास नहीं कर पायेंगे। गौरतलब है कि जब 1997-98 में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों पर आर्थिक संकट आया था, वह मुख्यत: विदेशी भुगतान संकट था, जिसके चलते इन देशों को अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा था और साथ ही साथ जायदाद की कीमतें घटने के कारण बैंकों इत्यादि पर संकट तो आया ही, रोजगार के अवसर बेहद कम हुए, यहां तक कि इन देशों में काम कर रहे भारतीयों समेत बड़ी संख्या में विदेशियों को इन देशों से बाहर जाना पड़ा। लेकिन भारत इस संकट से लगभग अछूता रहा और उसके बाद वास्तव में भारत की विकास दर भी पहले से ज्यादा बढ़ गई और 1998 के बाद वर्ष 2011-12 तक भारत में औसत विकास दर 7 प्रतिशत को भी पार गई थी।
अब है संकट की घड़ी
विषय मात्र 2012-13 के एक वर्ष में जीडीपी में विकास दर घटने का नहीं है। इस विकास दर के घटने के व्यापक संदर्भ को समझना होगा। 1997-98 में आए दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संकट से भारत बच निकला था। इसी प्रकार 2007 से प्रारंभ अमरीकी और बाद में यूरोपीय आर्थिक संकट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने आर्थिक संवृध्दि के मार्ग पर लगातार चलती रही। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के चलते जहां अमरीका और यूरोपीय देशों की आर्थिक रेटिंग को अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा लगातार घटाया जा रहा था, भारत की रेटिंग में कोई खास बदलाव उनके द्वारा नहीं किया गया।
लेकिन पिछले 2-3 वर्षों से अर्थव्यवस्था की सेहत के बारे में मिलने वाले संकेत अच्छे नही हैं। वर्ष 2010-11 की 8.3 प्रतिशत की तुलना में 2011-12 में विकास दर का घटकर 6.2 प्रतिशत रह जाना और 2012-13 में इसका घटकर मात्र 5 प्रतिशत ही रह जाना, वास्तव में अर्थव्यवस्था पर आसन्न खतरों की ओर संकेत करता है। यदि इस विकास के आंकड़ों को विश्लेषित किया जाए, तो पाएंगे कि पूर्व में जहां उत्पादन क्षेत्र की विकास दर 2004-05 से लेकर 2010-11 तक 9.3 प्रतिशत थी, वह घटकर 2011-12 तक 2.7 प्रतिशत और 2012-13 में मात्र 1 प्रतिशत ही रह गई। हालांकि कृषि की विकास दर पहले जैसी ही नीची बनी हुई है, लेकिन 2012-13 में वह भी घटकर 1.9 प्रतिशत ही रह गई है। सेवा क्षेत्र, जिसके बल पर जीडीपी झूम रही थी, में भी वह घटकर मात्र 7.1 प्रतिशत ही रह गई है।
उत्पादन क्षेत्र में पिछली लगभग 7 तिमाहियों में विकास दर औसत एक प्रतिशत के आसपास रही है, जो भारी चिंता का कारण है। हालांकि पिछले विदेशी संकटों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था बची रही थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। जो विदेशी कर्ज मार्च 2009 में 224.5 अरब डालर था, दिसम्बर 2012 तक 374 अरब डालर तक पहुंच गया। इस कर्ज का भुगतान करने हेतु ब्याज और अदायगी पर वर्ष 2011-12 में 31.5 अरब डालर चुक गए। विदेशी निवेशक भी भारी मात्रा में पैसा ब्याज, रॉयल्टी, डिविडेंट इत्यादि के रूप में विदेश में ले जा रहे हैं। उधर हमारा व्यापार घाटा भी लगातार बढ़ता हुआ 200 अरब डालर के पार पहुंच चुका है। अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी जा रही भारी रकमें और सॉफ्टवेयर निर्यात से होने वाली भारी आमदनी के बावजूद हमारा भुगतान शेष का घाटा बीते वर्ष 100 अरब डालर पार कर गया। ऐसे में घटता विदेशी मुद्रा भंडार और बढ़ते विदेशी कर्ज के चलते रुपए पर दबाव बनना शुरू हो गया है और पिछले 2-3 माह में उसमें रुपए में 8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है। रुपए में और गिरावट भी हो सकती है, जिसके चलते भारत का व्यापार घाटा और महंगाई दोनों बढ़ सकते हैं। देश में घटती आमदनियां मांग को प्रभावित कर रही हैं और उत्पादन क्षेत्र में विकास की संभावनाओं को क्षीण कर रही हैं। ऐसे में आईएमएफ द्वारा भारत को दी गई चेतावनी खासी महत्व की है। देश को अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। आयातों, विशेषतौर पर चीन से उपभोक्ता वस्तुओं, पावर प्लांटों और टेलीकॉम उपकरणों के आयातों, सोने चांदी के आयातों इत्यादि पर रोक लगानी होगी। विदेशी संस्थागत निवेशकों पर यह शर्त लागू करनी होगी कि वे अपना पैसा 3 साल से पहले न ले जा सकें। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भारत पर विदेशी मुद्रा संकट गहरा सकता है और आईएमएफ की चेतावनी सत्य सिद्ध हो सकती है।
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