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प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति परिषद के मथुरा अधिवेशन का प्रारंभिक सत्र था। विश्रुत विद्वानगण ब्रज की संस्कृति पर धुंआधार व्याख्यान दे रहे थे। एक व्याख्यान के बीच में ही मैंने प्रश्न किया कि 'क्या मथुरा ब्रज भूमि है, यह तो असुरों के द्वारा ही शासित रही है?'
तभी लगा कि मेरे प्रश्न से वातावरण गर्म हो चुका है। मैं चुप हो गया और मेरे प्रश्न की उपेक्षा कर दी गयी। मेरे लिखित लेख को पठित मान लिया गया। अधिवेशन की औपचारिकताओं से मुक्त होकर मैं ब्रज विचरण करने लगा। बड़े-बड़े आधुनिक मन्दिर, गोशालाओं के दानपात्र लगे थे। पर गलियों में घर के सामने भैंस बंधी थीं। विचित्र लगा, पर संतोष कर लिया कि ब्रजमण्डल में गायें भी होंगी।
दूसरे दिन शरदोत्फुल्ल मल्लिकाओं अर्थात महारास के दिन गोवर्धन जी होते हुए लाड़िली जी की जन्मभूमि बरसाना जाने का अवसर मिल गया। मथुरा से लगभग 50 किलोमीटर दूर बृहत्सानु नामक पहाड़ी की ढलान पर बसा है यह गांव। पहाड़ी को ब्रह्मदेव का शरीर ही माना गया है। दूसरी ओर भी पहाड़ी है और उपत्यका में बरसाना या वृषभानुपुर ग्राम। इस पहाड़ी के चार शिखरों-मोरकुटी मानगढ़, दानगढ़, विलासगढ़-को ब्रह्मा का मुख मानकर दर्शन करते हुए, संकरी उपत्यका की सांकरी खोह में ब्रज रज को शरीर से लिपटाते हुए जब लाड़िली जी के मन्दिर पर पहुंचते हैं तो जन्म-जन्म के पुण्य उदय हो जाते हैं।
लाड़िली जी के मन्दिर का प्रबंध जिस कुल के पास है उसने सुव्यवस्था बनाए रखी है। मन्दिर का आंगन रासपूर्णिमा के दिन के कारण खचाखच भरा था। आरती का समय था। कुछ भक्त भावविभोर होकर नाच रहे थे। देशी-विदेशी, कुछ साष्टांग परिक्रमा कर रहे थे। मैं पाण्डिचेरी से गया था। वहां श्री अरविन्दाश्रम की श्री मां फ्रांसीसी थीं और उन्होंने कभी भावविभोर होकर राधा की प्रार्थना लिखी थी। मैं अलिन्द के कोने में खड़ा होकर उसका हिन्दी काव्यानुवाद जोर-जोर से लाड़िली जी को सुनाने लगा तभी कुछ भक्तों ने मुझे घेर लिया और गायन करने लगे। वहां के भट्ट जी भी आए और सुनने लगे। सुनने के बाद उन्होंने विवरण जानना चाहा और 'प्रार्थना' को लेकर चले गए और उसे राधा जी के पास पहुंचा दिया।
मन्दिर के भट्ट जी से प्रभूत प्रसाद प्राप्त कर मैं अलिन्द पर आया। नीचे गांव पर दृष्टि डालते ही मैं आतंकित हो उठा। जहां कभी वृषभानु जी दुधारू गायों का दान किया करते थे वहां भैंसें ही भैंसें। यदि ब्रज में ही गायें लुप्त हो गयीं तो विश्व में गाएं कहां बचेंगी? यूरोप की गायों को तो गाय नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके गलकम्बल और कुकुस्थ नहीं होता है। पर यहां तो प्रवेश द्वार पर ही लगभग 20 भैंसें बंधी थीं। उत्तर प्रदेश में कागजी तौर पर गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध हैं। पर गायें घट रही हैं।
इसी उधेड़बुन में लखनऊ पहुंचकर गोसेवा आयोग की खोज शुरू की। पर यह विषय ही मानो विस्मृत हो गया है। जिस दल के राज्यकाल में गोरक्षा आयोग बड़े आन-बान और शान से बना था उसके कार्यालय से इतना ही पता चला कि आयोग जवाहर भवन के नवें तल पर है। वहां जाने पर पता चला कि अब इन्दिरा भवन के दसवें तल पर पहुंच गया है। वहां जाने पर पता चला कि इसके प्रमुख सचिवालय में विराजमान है। फिर वहां पहुंचने पर पता चला कि योगेश कुमार, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कहीं गए हैं। आज नहीं आएंगे।
दूसरे दिन पहुंचने पर पता चला कि वे कई विभागों के प्रमुख है और आज तो नहीं मिल सकते। मैं गोरक्षा आयोग के प्रमुख सचिव राज्य प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी श्री अश्विनी कुमार श्रीवास्तव से मिलूं। मैंने प्रार्थना की कि मुझे सबसे कनिष्ठ लिपिक के पास भेज दिया जाए जो आयोग की गतिविधियों का जानकार हो, पर मेरी प्रार्थना अनसुनी कर दी गयी।
श्री अश्विनी कुमार आए और गए। मैं बैठा ही बैठा वृद्ध होता रहा। अन्त में जब पता चल गया कि उनके दर्शन दुलर्भ हैं तो मुझे एक चपरासी ने बताया कि मैं जिस आयोग रूपी हाथी को देखने आया था वह आयोग नाम के वास्ते है। वास्तव में गोसेवा आयोग पशुधन मंत्रालय में छिपकली बन गया है। मैं वहां श्री पारस नाथ यादव के दर्शन करूं।
अब मेरे सामने सत्य का उदय हो गया। गोसेवा आयोग वस्तुत: पशुधन मंत्रालय में उपमुख्य पशुचिकित्सा अधिकारी के आधीन एक इकाई मात्र है।
तीसरे दिन पुन: इन्दिरा भवन के दसवें तल पर पहुंचा तो डा. संजय यादव मिले। गोसेवा आयोग के गौरवमय इतिहास की जानकारी मिली। उत्तर प्रदेश में 1955 में गोवध निवारक अधिनियम बना था। सन् 2002 में गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध लगा। गोसेवा आयोग की समिति भी बनी। राज्य के गोसेवक और विशेषज्ञ इसके सदस्य बने। श्री राजीव जी जैसे ऊर्जावन प्रशासनिक अधिकारी के नेतृत्व में आयोग सक्रिय था कि 2007 में पशुधन का विभागीय सचिव पदेन अध्यक्ष हो गए। जिलों की समितियां भी पदेन अर्थात् नाम के वास्ते हो गयी। इन सभी के स्थानान्तरित होने के विधान के कारण दूरगामी योजनाओं और विवेक की विदाई हो गयी।
अब गोसेवा आयोग के पास प्रदेश की 400 से अधिक गोशालाओं को अनुदान देना और उनके लिए दवाएं खरीदने का काम बचा है। ये विभाग राज्य के मंत्रालयों के प्रसिद्ध विभाग है। गोसेवा पारिवारिक समृद्धि का साधन है इसका प्रमाण ही गुजरात का सहकारी दूध उद्योग है जिसके प्राण-पुरुष वर्गीज कुरियन थे।
श्री संजय यादव से जो चर्चा हुई उससे स्पष्ट हो गया कि इसका उपयोग अब गाय का रक्त चूसने मात्र का ही है। गोसेवा का आत्मघाती दृष्टिकोण शासन की इच्छा और नीति है। शासन सोचता ही नहीं गाय के लिए भैंस खतरा बन गयी है और भैंस इतनी उपादेय होती तो यूरोप, अमरीका और आस्ट्रेलिया में भैंसें ही होतीं।
अस्तु, ब्रज में गायों का घटते जाना पीड़ादायक है। मेरे लिए है तो निश्चित बहुतों के लिए भी होगा। कान्हा की धरती पर गाएं निर्भय विचरें, ऐसी स्थिति बनेगी तो मन-वृन्दावन महक उठेगा। देवदत्त
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