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उधर अमरीका का प्रसिद्ध नगर बोस्टन और इधर वहां से हजारों मील दूर दक्षिण भारत में कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू-दोनों सिर्फ एक दिन के फासले से जिहादी हमलों से लहुलुहान होकर पूरे विश्व में चर्चा और चिन्ता का विषय बने हैं। पर हमारे लिए इससे भी अधिक चिन्ता का विषय होना चाहिए हमारे दो पड़ोसियों-म्यांमार और श्रीलंका में मुस्लिम-बौद्ध संघर्ष की सुलगती-फैलाती आग। म्यांमार और श्रीलंका को हम आज भले ही अपना पड़ोसी देश कहें, पर कल तक वे भारत ही थे। दोनों भारतवर्ष की प्राचीन सीमाओं के अन्तर्गत आते थे। म्यांमार ही कल का बर्मा है और बर्मा प्राचीन ब्रह्मदेश नाम का अपभ्रंश है। आठवीं शताब्दी में चीनी यात्री इत्सिंग ने पूर्वी दिशा से बर्मा होते हुए भारत में प्रवेश किया था और उसने ब्रह्मदेश राष्ट्र का ही उल्लेख किया है। 1935 तक बर्मा (आज का म्यांमार) ब्रिटिश भारत का अंग था। अंग्रेजों ने उसे पृथक राजनीतिक इकाई का दर्जा दिया और ब्रिटिश दासता से मुक्त होते ही उसने म्यांमार नाम अपना कर अलग पहचान बना ली। श्रीलंका तो रामायण काल से ही भारत की सांस्कृतिक चेतना का अभिन्न अंग है। खैर, वह सब इतिहास की बात है, अभी तो हमारी चिंता का विषय है म्यांमार में शुरू हुआ मुस्लिम-बौद्ध संघर्ष है।
संघर्ष का पुराना इतिहास
इसी 20 मार्च को म्यांमार के मध्य में स्थित दो लाख से कम जनसंख्या वाले नगर मेखटिला में एक छोटी सी बात को लेकर यह संघर्ष भड़क उठा। एक युवा बौद्ध युगल एक मुस्लिम स्वर्णकार की दुकान पर अंगूठी खरीदने आया। मोल भाव को लेकर उनके बीच तनातनी पैदा हो गयी और तुरन्त सैकड़ों की भीड़ एक दूसरे पर हमला करने लगी। मस्जिदें जली, बाजार जले, और अब तक 42 लोगों के मरने और सैकड़ों के घायल होने की सूचना है। 6 करोड़ की जनसंख्या वाले म्यांमार में मुस्लिम जनसंख्या मात्र पांच प्रतिशत है। इसलिए मुस्लिम कट्टरवाद और पृथकतावाद उसके लिए बड़ा खतरा नहीं है। किन्तु इस ताजे संघर्ष की जड़ें इतिहास की सातवीं सदी तक जाती हैं, जब अरब में जन्मे इस्लामी उन्माद ने पूरे मध्य एशिया में फैले हुए शान्ति और अहिंसा के उपासक बौद्ध धर्म को ध्वंस करके वहां इस्लाम मजहब को थोप दिया था। जगह-जगह प्रतिष्ठित ध्यानावस्थित बौद्ध प्रतिमाओं को ध्वस्त करके 'बुत (बुद्ध) शिकन' नाम अर्जित किया था। इसी ध्वंसलीला की ताजा कड़ी थी अफगानिस्तान के बामियान में विशाल बुद्ध प्रतिमा को तालिबान द्वारा खण्ड-खण्ड करना। पर, आज भी ताजिकिस्तान में भारत के उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी निद्रालीन या ध्यानावस्थित बुद्ध की विशाल प्रतिमा देखकर भावविभोर गये थे। इस ध्वंसक रक्त लीला का घाव बौद्ध मन पर बहुत गहरा है और वह अन्दर ही अन्दर नासूर बन चुका है।
रोहिंग्या मुसलमानों का इतिहास
बौद्ध बहुमत के उस घाव को हरा करने का कारण बना पूर्वी भारत से रोहिंग्या मुसलमानों का बड़ी संख्या में म्यांमार में प्रवेश। संभवत: यह निष्क्रमण भारत विभाजन के समय हुआ था, क्योंकि रोहिंग्या मुसलमान भारत से सटे पश्चिमी मयंमार के राखीन क्षेत्र में बसे हुए हैं और बंगलादेश को अपना आत्मीय मानते हैं। मुस्लिम जनसंख्या की यह त्रासदी है कि वे शासक हों या शरणार्थी- किसी भी स्थिति में वे अन्य समाजों के साथ समरस नहीं होते, अपनी पृथक पहचान बनाये रखते हैं और दूसरों के प्रति अपनी असहिष्णुता को भी संयमित नहीं कर पाते। इसलिए वे जहां भी जाते हैं या तो पूरी जनसंख्या को इस्लाम की शरण में ले आते हैं या टकराव की स्थिति पैदा कर देते हैं। म्यांमार में भी बहुत पहले से यह कहानी लिखी जा रही होगी। पर 1962 से म्यांमार पर सैनिक तानाशाही स्थापित हो गयी। तत्कालीन राष्ट्रपति नेविन ने सब समाचारपत्रों को सरकारी नियंत्रण में ले लिया। कड़ी 'सेन्सरशिप' लागू कर दी। इसलिए म्यांमार में आन्तरिक संघर्षों के समाचार छन कर बाहर नहीं आ पाये।
अब कुछ जानकारियां तो मिल ही रही है। एक जानकारी के अनुसार 1978 में रोहिंग्या मुसलमान बड़ी संख्या में म्यांमार से पलायन कर थाईलैण्ड और मलेशिया में घुसे। दिसम्बर, 1991 से मार्च, 1992 के बीच दो लाख रोहिंग्यों ने बंगलादेश में शरण लेने की कोशिश की। 1982 में म्यांमार में एक कड़ा नागरिक कानून बनाया गया, जिसके अन्तर्गद्धत प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म की घोषणा करने वाले पहचान पत्र को हर समय अपने पास रखना अनिवार्य कर दिया गया। इस कानून के द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता से वंचित कर दिया गया। रोहिंग्या मुसलमानों की परेशानी यह है कि म्यांमार उन्हें अपने यहां रखने की राजी नहीं है और बंगलादेश उन्हें वापस लेने को तैयार नहीं है। इस कारण वहां लगातार मुस्लिम-बौद्ध दंगे होते रहते हैं। 2003 में मेखटिला के निकट क्योक्स में दंगा हुआ। 2007 में सिन ब्यूकान में मुसलमानों की दुकानों को बंद कराने के लिए हमला हुआ। इमरजेंसी लागू कर दी गयी। राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग में आरोप लगाया गया कि 1991 से रोहिंग्या मुसलमानों के इधर-उधर आने-जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी और वे द्वितीय श्रेणी के नागरिकों जैसा जीवन जी रहे हैं। इन आरोपों की सच्चाई क्या है, इसकी निष्पक्ष छानबीन जरूरी है।
पाकिस्तान–बंगलादेश की भूमिका
मार्च, 2011 में 49 वर्ष बाद सैनिक तानाशाही की औपचारिक समाप्ति के बाद म्यांमार की आन्तरिक घटनाओं की जानकारी मिलना सुलभ हो गया है। 52 वर्ष बाद अब पहली बार सरकारी नियंत्रण से मुक्त स्वतंत्र समाचार पत्रों के प्रकाशन के बाद म्यांमार की सही खबरें पाना संभव हो गया है। इस खुलेपन का लाभ उठाकर पाकिस्तान और बंगलादेश के जिहादी संगठनों, जैसे- लश्कर-ए-तोएबा, हरकत-उल-जिहादी अल-इस्लामी (हूजी), जमात-उद-दावा तथा जैश-ए-मुहम्मद आदि ने पाकिस्तान की आईएसआई की मदद से रोहिंग्या मुसलमानों में अपना जहरीला प्रचार शुरू कर दिया है। वहां से युवकों को भर्ती करके शस्त्रों का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की। इसकी प्रतिक्रिया में मांडले के एक प्रभावी बौद्ध भिक्षु विराथु के नेतृत्व में बौद्ध समाज को अपने घरों पर बौद्ध शिक्षा के प्रतीक स्वरूप '969' अंक को प्रदर्शित करने का आग्रह किया जा रहा है। इसे '969 आंदोलन' का नाम दिया गया है। अर्थात दोनों तरफ अतिवादी खेमेबंदी हो रही है। इस अतिवारी ध्रुवीकरण का भयंकर परिणाम जून-जुलाई 2012 में लम्बे और भीषण मुस्लिम-बौद्ध संघर्ष के रूप में सामने आया। इस संघर्ष में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 110 व्यक्ति मारे गये और एक लाख बीस हजार लोग बेघरबार होकर शरणार्थी बन गये।
यह सब खुलासा सितम्बर, 2012 में बंगलादेश के चटगांव में गिरफ्तार जिहादी नूर-उल-अमीन से हुई पूछताछ के बाद हुआ। अमीन ने बताया कि वह कराची में जिहादी बनाया गया और उसने रोहिंग्या कैडर के लिए नौजवानों की भरती की और उन्हें जिहाद की ट्रेनिंग भी दी। उसने यह भी बताया कि इस काम में लश्कर का साथ पाकिस्तान की आईएसआई दे रही है और उसी की मदद से रोहिंग्या कैडर को हथियार उपलब्ध कराये जा रहे हैं। रोहिंग्या मुसलमान गरीब हैं और उनकी गरीबी का लाभ जिहादी संगठन उठा रहे हें। रोहिंग्या मुसलमानों में भारतीय मुसलमानों की रुचि का प्रमाण है जमात-ए-इस्लामी के मुखपत्र रेडियन्स साप्ताहिक (14 अप्रैल, 2013) में एक हिन्दूविरोधी लेखक रामपुनियानी का लेख।
रोहिंग्या मुसलमान और कुछ बौद्ध भी भागकर दक्षिण पूर्वी एशिया के थाईलैण्ड, मलेशिया, इन्डोनेशिया आदि देशों में शरण ले रहे हैं और वहां उनके लिए शरणार्थी शिविर स्थापित किये गये हैं। पर ये शरणार्थी शिविर भी स्वयं में कटुता और हिंसा फैलाने का माध्यम बन गये हैं। म्यांमार में मेखटिला में 20 मार्च को शुरू हुए दंगों की आग अब मध्य म्यांमार के यामेचिन, वात्कोने व लेबई जैसे स्थान तक पहुंच गयी है। हिन्दू (30 मार्च) के अनुसार यह आग कम से कम 10 कस्बों और गांवों में पहुंच गयी है। सिट क्विन और बागो क्षेत्र में कर्फ्यू लागू कर दिया गया है जबकि चार कस्बों में आपात स्थिति लागू है।
वैमनस्य की फैलती आग
एक अन्य समाचार के अनुसार थाईलैंड के एक शरणार्थी शिविर में आग लगने से कम से कम 62 म्यांमार शरणार्थियों की मौत हो गयी और 200 से ज्यादा घायल हो गये। यह शरणार्थी शिविर मेहोंग सोन बान प्रांत के सुरिन नामक स्थान पर है। इस शिविर में करीब 3300 म्यांमार शरणार्थी हैं। थाईलैण्ड के दक्षिणी भाग में मुस्लिम बहुमत पहले ही थाईलैण्ड के विभाजन की मांग कर रहा है, जो थाईलैण्ड के लिए भारी चिन्ता का विषय बना हुआ है।
एक अन्य समाचार के अनुसार इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में एक संयुक्त शरणार्थी शिविर में बौद्ध व मुस्लिम शरणार्थियों के बीच दो घंटे तक चले संघर्ष में 8 लोग मारे गये और 15 से अधिक घायल हो गये। श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में एक काषाय वस्त्रधारी बौद्ध भिक्षु ने एक पत्थर फेंक कर सुरक्षा-कैमरे को ध्वस्त किया और फिर उसके अनुयायियों ने एक 'फैशन बग' नामक मुस्लिम वस्त्र भंडार में तोड़ फोड़ की। श्रीलंका के बौद्धों में भी मुस्लिम विरोधी भावना फैलती जा रही है।
यह अतिवादी ध्रुवीकरण विश्व को कहां ले जायेगा? इस ध्रुवीकरण के केन्द्र में मुस्लिम कट्टरवाद और पृथकतावाद मुख्य कारण है। इसी कारण से यूरोप के सब ईसाई देश चिन्तित है। यहूदी समाज अस्तित्व रक्षा के लिए लड़ रहा है। भारत तो 1300 साल से इस कट्टरवाद और विस्तारवाद से जूझ रहा है। देश विभाजन का मूल्य भी दे चुका है। पाकिस्तान लगभग पूरी तरह हिन्दू-सिख बिहीन हो गया है। बंगलादेश में हिन्दू जनसंख्या 1947 की 33 प्रतिशत से घटकर अब केवल दस प्रतिशत रह गयी है। और अब दक्षिण पूर्वी एशिया में मुस्लिम-बौद्ध संघर्ष के बादल घुमड़ रहे हैं। मुस्लिम समाज के पास ज्ञान-विज्ञान से युक्त, तर्कशक्ति सम्पन्न बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है। क्या यह स्थिति उन्हें आत्मलोचन को बाध्य नहीं करती? उनके सामने यक्ष प्रश्न है कि क्यों मुस्लिम समाज कट्टरवादी मुल्लाओं के पीछे चलता है और उदारवादियों के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करता?देवेन्द्र स्वरूप
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