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महाराष्ट्र में अकाल से मचा हाहाकार, 200 फीट पर भी पानी नहीं मिलता
महाराष्ट्र भयंकर अकाल की चपेट में है। 13 जिले सूखे से अत्यंत प्रभावित हैं। वैसे तो सम्पूर्ण महाराष्ट्र में ही पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। किन्तु पश्चिमी महाराष्ट्र और मराठवाड़ा सबसे अधिक प्रभावित हैं। सांगली और सतारा, जो महाराष्ट्र के सितारे हैं, चीख रहे हैं बताओ किधर जाएं? फसल जल गई है, जमीन फट गई है, हमारी तो दुनिया ही लुट गई है। ऐसा क्यों हो गया? जब सवाल पूछा जाता है तो उत्तर मिलता है कुदरत की मार झेल रहे हैं, लेकिन इससे भी बढ़कर इनसान के काले कारनामों का भोग बन रहे हैं। सोलापुर जिले के सालसा गांव में जानवरों के शिविर के बाहर सैकड़ों किसान एकत्रित हैं। सोच रहे हैं उनकी पशु-सम्पदा किसी प्रकार बच जाए? लेकिन यह क्या थोड़ी दूर ही एक गन्ने का खेत लहलहा रहा है। खेत का मालिक महंगे दाम में भी पानी के टैंकर मंगवा रहा है। उसके खेत में बोरवेल खुदा हुआ है। अरे इन्हीं गन्नों ने तो जमीन का पानी चूस लिया है। लेकिन यह गन्ना नहीं है, पैसों का झाड़ है, ज्यों ही शक्कर के कारखाने में जाएगा पैसे उगलेगा। रुपया, डॉलर, पौंड कुछ भी मिल सकता है। पास ही धोटी गांव है। तीन हजार आबादी वाले गांव में 6 हजार बोरवेल हैं। यहां के किसान कहते हैं 15 साल पूर्व हमारे क्षेत्र में पानी ही पानी था। वह कहां चला गया- उत्तर मिलता है गन्ने का खेत पी गया। जहां 40 फीट पर पानी मिल जाता था अब 200 फीट पर भी नहीं मिलता।
सिंचाई आयोग के अध्यक्ष चितले मानते हैं कि गन्ने के कारण पानी दुर्लभ हो गया। चितले कहते हैं जिन नदियों में पानी नहीं रहता वहां हम कहते हैं कि उसके आसपास गन्ने की खेती को बंद कर दिया जाए। उन कारखानों पर ताले लगा दो जो शक्कर बनाते हैं और एक फसल आते ही वारे-न्यारे हो जाते हैं। महाराष्ट्र में 1999 में 119 चीनी कारखाने थे अब 200 हो गए हैं। महाराष्ट्र के कृषि आयुक्त दांगट कहते हैं हम तो परेशान हो गए हैं। बार-बार सूखा पड़ता है जिसका एकमात्र कारण है इनसान का पानी गन्ना पी जाता है। यह पाप रुके तो किस प्रकार रुके? जब नीचे वाले का इलाज समाप्त हो जाता है तो ऊपर वाले का आपरेशन शुरू हो जाता है।
देश में जितने बांध हैं उनका 35 प्रतिशत महाराष्ट्र में है। यदि इसका 65 प्रतिशत पश्चिमी महाराष्ट्र में हो तो आश्चर्य नहीं। हमें इसका दु:ख नहीं होता जब गन्ने और अंगूर के खेतों के स्थान पर यह पानी मनुष्य और बेजुबान पशुओं को मिलता। पश्चिमी महाराष्ट्र के नेताओं का कितना दबदबा है कि पानी के लिये बनाये गए राज्य जल बोर्ड और 'वाटर अथोरिटी' की एक भी बैठक पिछले आठ वर्षों में नहीं हुई है। कुदरत का कहर देखिए कि पिछले दस वर्षों से यहां की नदियों में पानी एकत्रित होने की मात्रा लगातार घट रही है। पर्यावरणविदों का कहना है कि धरती की गर्मी और जंगलों की कटाई ने इस स्थिति को पैदा कर दिया है। पर्यावरणविद् वंदना शिवा का कहना है कि सूखे से यदि पिंड छुड़ाना है तो आपको हर हाल में गन्ने और अंगूर की खेती पर रोक लगानी होगी। इसके अतिरिक्त केले की खेती भी कोई कम पानी नहीं पीती है। ये तीनों फसलें महाराष्ट्र में धड़ल्ले से उगाई जा रही हैं। इसके दाम इतने अच्छे आते हैं कि अब तो सोने की खरीदी इस पर आधारित है। 14 अप्रैल के समाचार पत्र बताते हैं कि सोने के भाव में 1200 रुपए की गिरावट आ गई। शेयर बाजार के एक जानकार का कहना है कि ज्यों-ज्यों अकाल की छाया बढ़ेगी त्यों-त्यों सोने-चांदी में गिरावट आती रहेगी। आगे चलकर इसका बुरा प्रभाव शेयर बाजार की सेहत पर भी पड़ेगा। इसलिए महाराष्ट्र में ही नहीं अब तो सारे देश में 'हार्ड गोल्ड' गन्ने, अंगूर और केले को कहा जाने लगा है। इसका प्रभाव चीनी मिल मालिकों को नहीं, बल्कि उस गरीब जनता को भोगना पड़ेगा जिसकी आय इस खेती पर निर्भर रहती है। यह हाल आज यदि महाराष्ट्र का है तो आने वाले कल में सम्पूर्ण भारत का हो सकता है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है यह अब कहते हुए शर्म आती है। गांव का गरीब किसान अपनी रोटी प्याज के साथ खा लेता था, लेकिन अब तो साल में एक दो झटके प्याज और लहसन भी दे जाती है। नासिक, जलगांव का परिसर लहसन और कांदे के नाम पर कितनी बार गरीब जनता को रूलाता है इसका कोई हिसाब नहीं है। इसका प्रभाव सारे देश में देखने को उस समय मिलता है जब गरीब किसान की जमीन बिकने लगती है। एक षड्यंत्र के तहत जमीन के भाव बढ़ रहे हैं। किसान के पशु बिक गए, खेत में कुछ नहीं उगता है तो फिर शहर के पास की जमीन को ही बेच दो। अकाल की मार से किसान उसे औने-पौने दाम में बेच देगा। लेकिन चीनी मिल के मालिक, अंगूर के बगीचों के करोड़पति, केले की खेती में वारे-न्यारे होने वाले नए जमींदार किसान की खेती की जमीन का सौदा कर लेंगे। जब कुछ नहीं रहेगा तो बेचारा किसान क्या करेगा? आत्महत्या ही तो एकमात्र विकल्प रह जाता है। सम्पूर्ण भारत में अब तक महाराष्ट्र में विदर्भ का किसान सबसे अधिक आत्महत्या करता था। लेकिन यह लहर अब सारे महाराष्ट्र में फैल रही है। एक दिन बिना पानी की जमीन पश्चिमी महाराष्ट्र में धन्ना सेठों के गले की हड्डी बन जाएगी। यानी सरकार और बड़े कारखाने वाले मिल कर इनसान की लाशों की गिनती शुरू करने वाले एक नए विभाग का उद्घाटन कर देंगे।
महाराष्ट्र सरकार ने इस भयंकर अकाल से निपटने के लिए केन्द्र सरकार से 2200 करोड़ रुपए की मांग की थी। लेकिन केन्द्र सरकार ने केवल 700 करोड़ देकर अपना हाथ रोक लिया। इस पर केन्द्रीय कृषि मंत्री, जो महाराष्ट्र के अत्यंत लाडले हैं, का मत है कि राज्य सरकार ने केन्द्र से जो मांग की उसमें अनेक त्रुटियां हैं। महाराष्ट्र के अधिकारियों ने केन्द्र को जो प्रस्ताव भेजा है उसमें असंख्य गलतियां हैं। महाराष्ट्र सरकार और प्रशासन ने अपने निकम्मेपन का प्रदर्शन किया है इसलिए राज्य केन्द्र की सहायता से वंचित रह गया है। कृषि मंत्री कुछ भी बहाना बना सकते हैं लेकिन क्या वे उक्त प्रस्ताव ठीक करने के लिए उसे पुन: मुम्बई नहीं भेज सकते थे? उनके वक्तव्य से तो ऐसा लगता है कि उन्हें महाराष्ट्र से कोई लेना-देना नहीं है।
महाराष्ट्र पर 2.70 लाख करोड़ रु. का कर्ज है। इसलिए केन्द्रीय वित्त मंत्री ने अपना हाथ रोक लिया है। इस भारी भरकम ऋण में यदि 10-15 हजार करोड़ ऋण और भी बढ़ जाता तो केन्द्र सरकार कौन सी दीवालिया हो जाती? महाराष्ट्र में उसी पार्टी की सरकार है जिसकी केन्द्र में है। यदि यह सरकार ही सहायता न करे तो आने वाले दिनों में राज्य और केन्द्र में अलग-अलग दलों की सरकार होगी तो फिर इस सौतेले व्यवहार का अंत कहां होगा?
जलगांव जिले में केले की खेती में 200 करोड़ की हानि हुई है। लेकिन सरकार का कहना है कि नहीं यह हानि केवल 120 करोड़ की हुई है। सरकार ने प्रति हेक्टेयर केवल 10 हजार रुपए की नुकसान भरपाई की है। लेकिन पश्चिमी महाराष्ट्र में गन्ने की खेती को होने वाले नुकसान की शुरुआत ही हुई थी कि उन्हें प्रति हेक्टेयर 25 हजार रुपए की भरपाई कर दी। एक ही राज्य में यह दोहरा मापदंड क्यों? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मुजफ्फर हुसैन
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