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जिस इराक को अमरीका ने सद्दाम के पंजे से छुड़ाया, वही इराक अब उसके लिए समस्या बनता जा रहा है। इराक में अमरीका को जिस प्रकार के अनुभव हुए अब कोई राष्ट्रपति अमरीकी सेना को इराक भेजने का साहस नहीं करेगा। अमरीका की अर्थव्यवस्था दांव पर है इसलिए सीनेट इस प्रकार की कोई छूट अपने राष्ट्रपति को नहीं देगी। इराक के सुन्नी अमरीका की इस कमजोरी से भलीभांति परिचित हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि अब अमरीकी समर्थक इराकी सरकार की विदाई हो जानी चाहिए।
विचित्र देश
इराक दुनिया का एक विचित्र इस्लामी देश है, जहां शिया आबादी 55 प्रतिशत है और सुन्नी आबादी 45 प्रतिशत। इसके बावजूद इराक में हर समय सुन्नियों का दबदबा रहा है। ईरान, जो दुनिया का एकमात्र शिया देश है, उसकी सरहदें इराक से मिलती हैं। इसके बावजूद इस सरकार से पहले इराक में कभी शियाओं की सरकार सत्ता में नहीं आई थी। अयातुल्ला खुमैनी ने लगभग दस साल तक इराक के सुन्नियों से संघर्ष किया लेकिन वे जीत नहीं सके। उन्होंने यह कह कर युद्ध बंद कर दिया कि 'मैंने विष का प्याला पी लिया है।' लेकिन सद्दाम के पतन के पश्चात् वहां के सुन्नी कमजोर हो गए। अमरीका ने भी सोचा कि क्यों न शियाओं की सरकार बना कर वह अपनी स्थिति मजबूत कर ले। इसलिए इराक में नूरुल मालिकी की सरकार पिछले दस वर्षों से सत्ता में है। नाममात्र के चुनाव से कठपुतली सरकार बन जाती है। लेकिन जब से ईरान और अमरीका के बीच मनमुटाव बढ़ा है तब से इराक के सुन्नियों का साथ लेकर अमरीका अपनी खोई हुई बाजी जीत लेने का सपना देख रहा है। इसलिए इराकी सुन्नी नूरुल मालिकी की सरकार को गिरा कर अपनी सरकार बनाना चाहते हैं। मिस्र में जब से क्रांति हुई है, इराक के सुन्नियों का हौंसला बढ़ गया है। वे भी अब यहां इखवानुल मुस्लिमीन को आमंत्रित करके नूरुल मालिकी की शिया सरकार को गिरा देना चाहते हैं। इस प्रकार इराक के सुन्नियों और मध्य-पूर्व में अपना प्रभाव रखने वाली सुन्नी पार्टी इखवानुल मुस्लिमीन ने इराक में सत्ता की बिसात बिछा दी है। यदि नूरुल मालिकी को ईरान समर्थन नहीं देता है तो फिर वहां सुन्नी सरकार की स्थापना से इनकार नहीं किया जा सकता है। बगदाद पोस्ट ने लिखा है कि यह सुन्नियों की बगावत है या फिर सुन्नियों द्वारा इखवानुल मुस्लिमीन को इराक में घुस जाने का निमंत्रण? सद्दाम के पतन के पश्चात् नूरुल मालिकी की शिया पार्टी वर्चस्व में आ गई थी। लेकिन अब पुन: सद्दाम की बास पार्टी का झंडा लहरने लगा है। साथ ही सरहद पार से इखवानुल मुस्लिमीन भी घुसपैठ कर रही है। जब से मिस्र में इखवान को सफलता मिली है तब से लीबिया, सीरिया और अब इराक में इखवान ब्रदरहुड का प्रभाव बढ़ने लगा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि एक समय सद्दाम के बायें हाथ रहे इज्जत इब्राहीम पुन: सक्रिय हो गए हैं।
सुन्नी परचम
2010 के आम चुनाव में अलईराकिया नामक शिया पार्टी ने इखवान को पांव नहीं जमाने दिये थे। लेकिन अब स्थिति में परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। इखवान को मिस्र में जो सफलता मिली है और वहां सरकार बन जाने के पश्चात् जिस प्रकार इस पार्टी का दबदबा बढ़ा है उसने इराक को भी बहुत हद तक प्रभावित किया है। इखवान इराक के लिए नई पार्टी नहीं है। इराक के स्थानीय चुनाव में इखवान ने भाग लिया था। पूर्व उपप्रधानमंत्री तारिकुल हाशिमी उसके जाने-माने नेता थे। लेकिन उन पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगा कर उनको मृत्यु दंड दे दिया गया था। इसके बाद इराक में इखवान कमजोर पड़ गई। लेकिन भीतर ही भीतर उसका जोर बढ़ रहा था। इखवान ने हथियार नहीं डाले थे। उन पर यह आरोप था कि वे शियाओं के सबसे बड़े दुश्मन हैं। लेकिन अब इराक में समय तेजी से बदला है। शियाओं के विरुद्ध सुन्नी लॉबी संगठित हुई है। इराकी राजनीति के विशेषज्ञों का कहना है कि इखवानी बहुत जल्द सफल नहीं होंगे लेकिन याद रखना चाहिए कि उनके पीछे कतर और मिस्र हैं। मिस्र के मुर्सी अब ताकत बनकर उभरे हैं। उनके पीछे अमरीका भी खड़ा हो गया है इसलिए ऐसा लगता है कि मुर्सी की इखवान यहां भी अपनी जड़ें जमा लेगी। सच बात तो यह है कि अब ईरान से निपटने के लिए अमरीका को मुर्सी की आवश्यकता है। अमरीका अब तक तो शिया समर्थक था लेकिन जब से ईरान के अहमदी नेजाद के तेवर बदले हैं और वे अमरीका से दो-दो हाथ करने पर उतारू हैं, तब से अमरीका इराक में सुन्नी समर्थक बनता जा रहा है। अमरीका यदि ईरान को पराजित करने के लिए सुन्नियों का साथ नहीं लेता है तो उसके लिए यह जंग जीतना कठिन है। इस मजबूरी में मुर्सी का पल्ला पकड़ कर अमरीका ईरान को कमजोर करना चाहता है। इराक के सुन्नियों के लिए यह सुनहरा अवसर है। इसलिए लगता है समय आने पर वह इराकी सुन्नियों का समर्थक बन जाए। यदि ऐसा हुआ तो एक बार फिर से इखवानियों के माध्यम से इराक में सुन्नी परचम लहराने लगेगा।
पिछले दिनों समस्त इस्लामी जगत उस समय आश्चर्य में पड़ गया जब बगदाद की सड़कों पर इराक के सुन्नी, शिया और कुर्द संगठित होकर सरकारी भ्रष्टाचार, महंगाई और भाई-भतीजावाद के विरुद्ध सड़कों पर निकल आए। सरकार के विरुद्ध इतना बड़ा प्रदर्शन मालिकी सरकार के काल में पहली बार देखा गया। सबकी मांग थी कि यह सरकार जानी चाहिए। जनता की पहली मांग तो यह थी कि सरकार को चाहिए कि वह पुलिस और सेना को उनके अत्याचार करने के फलस्वरूप दंडित करे। इतना ही नहीं सरकार शिया सुन्नी के भेद से ऊपर उठे, क्योंकि उक्त भावना इराक को खोखला कर रही है। नूरुल मालिकी के सामने सवाल यह था कि इस आन्दोलन को किस प्रकार कुचले? नूरुल मालिकी इस आन्दोलन को सुन्नियों की बगावत कह रहे हैं। लेकिन सच बात यह है कि उक्त आन्दोलन मात्र सुन्नियों का नहीं है। इसमें पूरे इराक की आवाज सुनाई पड़ रही है। नूरुल मालिकी से पूछा जा रहा है कि यदि सद्दाम तानाशाह था तो तुम क्या हो? सुन्नियों की इस बगावत में सद्दामवादियों के समर्थन की झलक मिल रही है। अमरीका भी इन दृश्यों से भयभीत है। कुछ लोगों का तो यह मानना है कि अमरीका ही यह सब करवा रहा है। वह ईरान की शिया हुकूमत को यह संदेश दे रहा है कि यदि उसने इस्रायल के साथ गड़बड़ की तो वह इराक में सुन्नियों का साथ लेकर उसकी ईंट से ईंट बजा देगा। इब्राहीम इज्जत, जो अब तक अमरीका और इराक सरकार के भय से छिप गए थे, बाहर निकल कर इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। इराक के राष्ट्रवादी एकजुट हैं। उनका कहना है कि ईरान को वे कभी क्षमा नहीं करेंगे। क्योंकि आज इराक की जो हालत हुई है उसके लिए केवल उनका पड़ोसी देश जिम्मेदार है। शिया-सुन्नी में फूट डलवा कर उसने इस क्षेत्र को अमरीका के हवाले कर दिया है। लेकिन वह यह समझ ले कि एक दिन अमरीका ईरान को भी छोड़ने वाला नहीं है।मुजफ्फर हुसैन
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