सन्देह का वातावरण
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आचार्य देवेन्द्र देव
शून्य में खोये हुए लोचन हृदय से पूछते हैं,
क्या नए युग का यही पहला चरण है?
चेतनाओं का भला परिणाम जाने क्या रहेगा
हर तरफ सन्देह का वातावरण है।
छद्मवेशी नीतियों की गन्ध अंचल में समेटे
मद–भरी युग की हवाएं डोलती हैं।
शान्ति की हर सांस में, हर दृष्टि में, हर कामना में,
भ्रान्तियों के नित नए विष घोलती हैं।
भावना के मूल्य का, यूं, आकलन किस भांति होगा,
तर्क के मुख पर प्रगति का आवरण है।।
प्रश्नचिन्हित वेदनाओं के चुने चैतन्य प्रभु को,
वासनाओं के झरोखे टेरते हैं।
वर्जना के गर्भ से उठकर अभावों के तमीचर
काल–चिन्तन के सभी पथ घेरते हैं।
कालिमाएं लिख रही हैं ग्रन्थ भावी आचरण के,
सिर्फ कहने को सुनहरा व्याकरण है।।
मुंहजले आश्वासनों ने आग कुछ ऐसी लगायी,
धैर्य के भी हिमशिखर दहके हुए हैं।
देवता के कान में है फूंकता सन्देह कोई
क्रान्तिदर्शी मंत्र कुछ बहके हुए हैं
शून्य में खोये हुए लोचन हृदय से पूछते हैं,
क्या नए युग का यही पहला चरण है?
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