पाकिस्तानी क्रूरता पर चुप्पी अस्वीकार
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डा. रहीस सिंह
8 जनवरी की दोपहर को पाकिस्तानी सेना की 20 बलूच रेजीमेंट के जवानों ने घने कोहरे और जंगल का फायदा उठाते हुए नियंत्रण रेखा पारकर भारतीय सीमा के अंदर दो भारतीय जवानों, लांसनायक हेमराज और सुधाकर सिंह, को जिस तरह से मारा उससे करगिल संघर्ष के दौरान मारे गये कैप्टन सौरभ कालिया की याद ताजा हो गयी। पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय जवानों को मारा और उनके सिर काट लिए, जो वास्तव उनके पेशेवर सैनिक होने की बजाय पेशेवर आतंकवादी होने का प्रमाण अधिक है। लेकिन पाकिस्तानी सेना के इस कुकृत्य के बाद पाकिस्तान की सरकार की तरफ से यह कहा जाना कि उसकी कार्रवाई बिना उकसावे की नहीं थी और भारत की ओर से जो कुछ भी कहा जा रहा है वह उसके 'दुष्प्रचार' का हिस्सा है, गले से नीचे नहीं उतरता और भारत सरकार की तरफ से सिर्फ आपत्ति दर्ज कराने की प्रवृत्ति बहुत से सवाल पैदा करती है। पहला सवाल यह उठता है कि भारत की तरफ से इस 'सौम्य प्रतिक्रिया' को क्या समझा जाए? क्या हम एक 'सॉफ्ट स्टेट' की छवि पेश कर रहे हैं या फिर डरपोक अथवा कायर देश की? क्या वास्तव में हम एक कायर राष्ट्र हैं या फिर हमारा नेतृत्व इतना डरपोक है जो हमें धीरे-धीरे ऐसा बनने पर विवश कर रहा है? आखिर इस तरह की छवि के जरिए हमारा नेतृत्व, हमारी केन्द्र सरकार अपने देश के नागरिकों और दुनिया को क्या संदेश देना चाह रही है? बार-बार पाकिस्तान के विकृत चरित्र पर परदा डालकर हमारा राजनीतिक नेतृत्व उसे दोस्त बनाने की गलती या और स्पष्ट कहें तो बेवकूफी क्यों करता है? क्या पाकिस्तान हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण है कि हम उससे दोस्ती करने के लिए कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार हैं या हमें तैयार रहना चाहिए? कम से कम अब सरकार और समस्त राजनीतिक व बौद्धिक पैरोकारों को इसका जवाब देना चाहिए।
पाकिस्तान की फितरत
पाकिस्तानी सेना के इस ताजे बर्बर कृत्य पर पाकिस्तान सरकार की तरफ से कोई अफसोस नहीं व्यक्त किया गया बल्कि उल्टा यह आरोप जड़ा गया कि पहले भारतीय सेना के जवानों ने उनके सैनिकों को निशाना बनाया था। यानी वे यह बताना चाह रहे हैं कि युद्ध विराम के उल्लंघन के लिए भारतीय सेना दोषी है। हद तो तब हो गयी जब यह संकेत भी दिया गया कि यह कृत्य भारतीय सेना का भी हो सकता है। उल्लेखनीय है कि 6 जनवरी को उरी सेक्टर में बिना वजह पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलीबारी की गयी थी। उसके जवाब में भारत की ओर से की गई जवाबी कार्रवाई पर पाकिस्तान ने आरोप मढ़ा था कि भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा पर हाजीपीर इलाके में उसकी चौकी पर हमला किया, जिसमें उसके एक सैनिक की मौत हो गई जबकि दूसरा घायल हो गया। पाकिस्तान सरकार जो भी दावे कर रही हो लेकिन अगर सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें तो पाकिस्तान 2003 से लागू शांति समझौते का बीते एक साल में तीन दर्जन से ज्यादा बार या पिछले पांच माह में 26 बार संघर्षविराम का उल्लंघन कर चुका है। इस ताजी घटना को हमारी सेना पाकिस्तान से ताजे घुसपैठ के प्रयास के रूप में देख रही है। जो भी हो, 8 जनवरी की घटना को अंजाम देकर पाकिस्तानी सेना ने तालिबानियों, जिहादियों और एक सभ्य प्रशिक्षित सेना के मध्य की विभाजक रेखा को समाप्त कर दिया है। एक पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री टीवी साक्षात्कार में कह रहे थे कि पाकिस्तान की सेना एक प्रशिक्षित और सभ्य सेना है, उसे अंतरराष्ट्रीय विधि का पता है इसलिए वह ऐसा कर ही नहीं सकती। जबकि 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया को जेनेवा नियमों के खिलाफ यातना देकर मारा गया था। लेकिन पिछले दिनों भारत यात्रा पर आए रहमान मलिक ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि 'मैं नहीं कह सकता कि सौरभ कालिया की मौत पाकिस्तानी सेना की गोलियों से हुई थी या वो खराब मौसम का शिकार हुए थे।' यह बात कोई भी समझ सकता है कि मौसम की खराबी से कैप्टन सौरभ कालिया की आंखें कैसे निकल सकती थीं या उनके शरीर पर सिगरेट से दागने के निशान कैसे बन सकते थे? रहमान मलिक या कोई भी पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ अथवा सेना का प्रवक्ता ऐसा कह सकता है, क्योंकि उसे यह मालूम है कि भारतीय नेतृत्व उनके बयानों द्वारा खींची गयी रेखा को पार नहीं कर सकता।
भारत की भूल
पाकिस्तान पर विचार करते समय भारतीय राजनीति और कूटनीति एक अध्याय हमेशा भूल जाती है और वह है उसके जन्म का। दूसरे जिस अध्याय की उपेक्षा की जाती है वह है पाकिस्तानी सेना का चरित्र और भारत के प्रति उसकी सोच। पाकिस्तान का जन्म भारत विरोध पर हुआ था। मजहबी उन्माद, कट्टरता और प्रत्यक्ष कार्रवाई के नाम पर भारतीयों की हत्या, इसके अतिरिक्त उसके बनने का कोई आधार नहीं था। ये तीनों अभी भी उसमें न केवल जीवित हैं बल्कि अब उसमें तालिबानी विकृति तथा परमाणु शक्ति होने का दम्भ और जुड़ गया है। भारतीय राजनय इसका अध्ययन किए बगैर या फिर इसकी उपेक्षा कर पाकिस्तान के साथ सम्बंधों का निर्माण करने की कोशिश करता है। इसलिए भारत कूटनीति में बार-बार मात खाता है और उससे भारी नुकसान भी उठाना पड़ता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पाकिस्तान में लगभग 50 हजार से भी अधिक मदरसों (हालांकि इसकी आधिकारिक संख्या उपलब्ध नहीं है) में जिहाद के नाम पर नफरत और हिंसा पढ़ायी जा रही है। वहां उदारवादियों की गिनती अब 'विलुप्त प्रजातियों' में की जा रही है। यही नहीं, राष्ट्रीय शैक्षिक पाठ्यक्रम में माध्यमिक स्तर तक ही शिक्षा में औपचारिक रूप से जीवन के हर क्षेत्र में जिहाद के महत्व को पहचानने पर बल दिया गया है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के एक अखबार के मुताबिक, 'नेशनल ब्यूरो ऑफ करिकुलम एंड टेक्स्ट बुक के कक्षा 6 से कक्षा 8 के पाठ्यक्रम में जिहाद, तबलीग और शहादत के बारे में अनुशंसा की जाती है। प्राथमिक स्कूल के लगभग दो करोड़ बच्चों में लगभग 50 लाख में से लगभग 20 लाख हाई स्कूल में पहुंचते हैं जहां उन्हें 'जिहाद के वरदान' से परिचित होना सिखाया जाता था। कुल मिलाकर पाकिस्तानी मदरसे इस्लामी विधिशास्त्र के विद्वान उत्पन्न करने की बजाय जिहाद के लिए कट्टरवादी पैदा कर रहे हैं। मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों में जिहाद का उन्माद भरने के लिए प्राथमिक पाठ्य पुस्तकों में कुछ नया जोड़ा गया है। अब 'जीम' का अर्थ है 'जिहाद', 'टे' का अर्थ है 'तोप', 'काफ' का अर्थ है 'क्लाश्निकोव' और 'खे' का अर्थ है 'खून'। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस समय पाकिस्तानी सेना में लगभग 40 प्रतिशत सैनिक किसी न किसी रूप में इन मदरसों से सरोकार रखते हैं। क्या ऐसे सरोकार वाले लोगों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे शांति के लिए विनम्रतापूर्ण निवेदन का आदर करेंगे?
पाकिस्तानी दस्तावेज
अभी कुछ दिन पहले ही पाकिस्तानी सेना ने 200 पृष्ठ का एक दस्तावेज जारी कर उन चरमपंथियों को, जिन्हें जियाउल हक से लेकर परवेज मुशर्रफ तक मुजाहिदीन का नाम देकर शेेखी बघारते थे, पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया तो भारतीय मीडिया ने यह कहना शुरू कर दिया कि पाकिस्तान की सेना अब भारत को दुश्मन नम्बर एक नहीं मानती। उस समय यह सवाल भी नहीं किया गया कि आखिर अब ऐसा क्या हो गया जो जिहाद का पोषण करने वाली पाकिस्तानी सेना को अपना मत बदलकर जिहाद के विरोध में कुछ कहना पड़ गया? इसलिए कि कबाइली इलाके में जारी गुरिल्ला युद्ध, पश्चिमी सीमा पर बढ़ रहे चरमपंथी और आतंकी संगठन अब उसके लिए भस्मासुर बन गये हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि उसी समय पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल असीम बाजवा ने स्पष्ट किया कि 'इसका मतलब यह नहीं निकालना चाहिए कि हम परंपरागत खतरों से ध्यान हटा रहे हैं।' मतलब यह कि सेना की नजर में भारत उसका दुश्मन नम्बर एक भले ही न हो लेकिन परम्परागत शत्रु तो है ही। इस दस्तावेज में कुछ बातें और भी कही गयी हैं जो भारत की ओर इशारा करती हैं। जैसे- देश में एक छद्म युद्ध चल रहा है। हालांकि, इसमें किसी देश का नाम नहीं लिया गया। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह छद्म युद्ध कौन चला रहा है? पाकिस्तान का कोई पड़ोसी राज्य अथवा कोई महाशक्ति? महाशक्ति की तरफ से छद्मयुद्ध की जरूरत फिलहाल नहीं दिखती। रही बात पड़ोसियों की तो उनमें भारत, चीन, अफगानिस्तान या फिर ईरान हो सकते हैं। इस स्थिति में तो वह एक ही विकल्प पर निशान लगाएगा और वह होगा भारत। अंतत: उसने 8 जनवरी को यह सिद्ध कर दिया कि कुछ भी नहीं बदला है और न कुछ बदल सकता है, बल्कि पाकिस्तान अपने साढ़े छह दशक पुराने मत पर अभी भी कायम है। अब भारत को जितने भी डिग्री घूमना है, घूम जाए।
पाकिस्तानी सेना का चरित्र
बहरहाल किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि अकबर खान से लेकर कयानी तक पाकिस्तानी सेना ने भारत के खिलाफ लगातार परम्परागत युद्ध से लेकर छद्मयुद्ध तक लड़ा। अकबर खान के इशारे पर कश्मीर में कबाइली हमला, आईएसआई प्रमुख ब्रिगेडियर रियाज के नेतृत्व में 1965 का ऑपरेशन जिब्राल्टर, इसी समय जनरल अयूब खान और जुल्फिकार अली भुट्टो के दिमाग का कुचक्र ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम, 1989 में आईएसआई की बीयर ट्रैप की नीति के तहत जम्मू-कश्मीर में छाया युद्ध की शुरुआत, करगिल घुसपैठ, तत्पश्चात उन्हें खदेड़ने के लिए हुआ युद्ध, संसद पर हमला, 26/11 …आदि इतनी कारस्तानियों के बाद ऐसे प्रमाण ढूंढने की जरूरत तो भारत को नहीं पड़नी चाहिए जो पाकिस्तान के चरित्र का खुलासा कर सकें। ऐसे दुष्चरित्र राष्ट्र से मैत्री की लगातार दरकार क्यों? क्या यह वास्तव में भारत की तरफ से दिए जाने वाले एकतरफा शांति संदेश का परिणाम है या फिर कुछ और? फिलहाल स्पष्ट हो चुका है कि यह नेतृत्व की दुर्बलता ही है जो भारत की धीरे-धीरे एक 'सॉफ्ट स्टेट' नहीं बल्कि डरपोक अथवा कायर राष्ट्र की छवि बनाती जा रही है। देशवासियों को इस विषय पर गम्भीर मंथन करना होगा कि अधिक दोषी कौन है, उद्दंड पाकिस्तान या हमारा कायर नेतृत्व?
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