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पाठकीय : अंक–सन्दर्भ 7 अक्तूबर,2012
हिन्दुस्थान का नारा
गिलगित–बाल्टिस्तान हमारा
आवरण कथा में श्री वीरेन्द्र सिंह चौहान की रपट 'गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तानी सूबा बनाने की तैयारी' चौंकाने वाली है। पाकिस्तान की इस हरकत का भारत तुरन्त विरोध करे। क्या भारत सरकार यह भूल गई है कि पाकिस्तानी कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर को मुक्त कराने के लिए 1994 में संसद में एक प्रस्ताव पारित हुआ था? भारत सरकार उस प्रस्ताव पर अमल शुरू करे।
–गणेश कुमार
पटना (बिहार)
द 1947 में गिलगित- बाल्टिस्तान सहित समूचे जम्मू-कश्मीर राज्य का विलय इसके तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने भारत में कर दिया था। इसलिए वैधानिक दृष्टि से यह क्षेत्र आज भी भारत का अंग है। 1947 में पाकिस्तान ने बड़ी चालाकी से इस भूभाग पर कब्जा कर लिया था। पर भारत सरकार ने कभी भी गंभीरता से इसे वापस करने का प्रयास नहीं किया। 1971 में 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया था। उस समय इन सैनिकों को छोड़ने के बदले यह भूभाग वापस लिया जा सकता था।
–आनन्द मेहता
13/740, सरर्ाफा बाजार
सहारनपुर-247001 (उ.प्र.)
द भारत सरकार की देशतोड़क नीतियों से पाकिस्तान का दुस्साहस बढ़ रहा है। भारत ने कभी भी पाकिस्तान से यह नहीं कहा कि गिलगित-बाल्टिस्तान वापस करो। जो सरकार अपने वैधानिक भूभाग को पड़ोसी के कब्जे से नहीं छुड़ा सकती उसे धिक्कार है। कांग्रेस अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए जानबूझकर पाकिस्तान को गिलगित-बाल्टिस्तान पर पूरा अधिकार जमाने का अवसर दे रही है। यह देशद्रोह है?
–प्रमोद प्रभाकर वालसंगकर
1-10-81, रोड नं.-8बी, द्वारकापुरम दिलसुखनगर, हैदराबाद-500060 (आं.प्र.)
द 1956 में केन्द्र सरकार ने संविधान में सातवां संशोधन कर जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया था। इस जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के कब्जे वाला भाग भी शामिल है। गिलगित-बाल्टिस्तान के मुद्दे को भारत सरकार द्वारा न उठाना भारतीय सम्प्रभुता को चुनौती देने के बराबर है।
–महेश सत्यार्थी
टैक्नो इंडिया इन्वर्टर सर्विस, पो.-उझानी
जिला–बदायूं (उ.प्र.)
द पाकिस्तान का गिलगित-बाल्टिस्तान को अपना संवैधानिक राज्य बनाने की तरफ उठा कदम हमारे मुंह पर तमाचा है। यही होगा जब सेकुलर भारत सरकार धारा-370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को अलग-थलग रखेगी। एक ओर तो कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है, तो दूसरी ओर उसे अलग भी रखे हुए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो गुरु गोविन्द सिंह जी की परम्परा के हैं, से अनुरोध है कि वे अपनी गुरु परम्परा का ख्याल रखकर पाकिस्तान के विरुद्ध एक हुंकार तो भरें।
–विशाल कुमार मोरवाल
म.सं.-707, गली सं.-22, अशोक नगर, शाहदरा, दिल्ली-110093
देश को गुमराह मत करो
खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेश निवेश से होने वाले नुकसान को श्री अश्विनी महाजन ने बहुत अच्छी तरह बताया है। जबकि मंथन में श्री देवेन्द्र स्वरूप ने स्पष्ट कहा है कि विकेन्द्रित खुदा बाजार ही भारत की रक्षा कर सकता है। देश के प्राय: सभी अर्थ-विशेषज्ञों का मानना है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश देशहित में नहीं है, फिर भी सरकार उसी दिशा में बढ़ रही है। ऐसा लगता है कि सोनिया-मनमोहन सरकार पूरी तरह विदेशी इशारे पर काम करती है।
–हरिहर सिंह चौहान
जंवरीबाग, नसिया, इन्दौर-452001 (म.प्र.)
द संप्रग सरकार खुदरा क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों को कारोबार की अनुमति देकर देश को एक बार फिर गुलामी की ओर धकेल रही है। ये विदेशी कम्पनियां जहां भी गई हैं वहां की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। इन कम्पनियों को लेकर भारत सरकार देशवासियों को गुमराह कर रही है।
–राममोहन चंद्रवंशी
विट्ठल नगर, स्टेशन रोड, टिमरनी
जिला–हरदा (म.प्र.)
द सरकार का हर पल विदेशियों के हितों की चिंता में व्यतीत होता दिख रहा है। इसी सरकार ने गत कार्यकाल में अपनी साख को दांव पर लगा कर, सांसदों की कथित खरीद-फरोख्त कर संसद में अमरीकी हितों के लिए परमाणु विधेयक पारित करवाया था। आज जब पूरा यूरोप और अमरीका आर्थिक मंदी से ग्रस्त हैं, उन्हें भारत में लाभ कमाने के लिए खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है। जबकि इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारनामे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सबको ज्ञात हैं। ये कम्पनियां पहले अपना माल सस्ता बेच कर स्थानीय छोटे दुकानदारों को खत्म कर देती हैं और फिर जब स्वदेशी संस्थान समाप्त हो जाते हैं तब अपनी मनचाही करती हैं और जम कर लूट मचाती हैं।
–अरविन्द सिसोदिया
बेकरी के सामने, राधाकृष्ण मंदिर रोड, डडवाडा, कोटा (राजस्थान)
अर्थ के अनर्थ
इतिहास दृष्टि स्तम्भ में डा. सतीशचन्द मित्तल का लेख 'शब्दकोश में हिन्दू शब्द के बदलते अर्थ' पढ़ने के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि लेख में जितने शब्दकोशों के उदाहरण हैं, उनमें किसी में भी हिन्दुत्व और हिन्दू की सही व्याख्या तथा अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाया है। अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के शब्दकोशों में कोशकारों ने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर अर्थ के अनर्थ किए हैं। हिन्दू और हिन्दुत्व की विस्तृत व्याख्या सन् 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका के निर्णय में की थी, 'हिन्दुत्व कोई मजहब, पंथ, मत या सम्प्रदाय नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीयत्व है, एक जीवन शैली है, एक राष्ट्र में रहने वालों का समुच्चय है, जिसमें अनेकता के बावजूद, एकता व साम्य के मूल बिन्दु हैं।'
–आचार्य मुनीश त्यागी
आर-14/91, बंसल भवन, राजनगर, गाजियाबाद (उ.प्र.)
द यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व के अन्य शब्द कोषों में हिन्दू शब्द की गलत व्याख्या की गई है। दरअसल हिन्दू की व्याख्या को विस्तार दिया जाना चाहिए। हिन्दू एकमात्र धर्म या जाति नहीं, बल्कि संपूर्ण संस्कृति और सभ्यता है, जिसमें व्यापकता और उदारता है। इस संस्कृति में समानता और स्वीकार्यता है।
–मनोहर 'मंजुल'
पिपल्या–बुजुर्ग, प.निमाड़ (म.प्र.)
वन्दे मातरम् के अपमान पर सजा क्यों नहीं?
'जन गण मन' भारत का राष्ट्रगान है तो 'वन्दे मातरम्' राष्ट्रगीत। 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने यह घोषणा करते हुए कहा था कि दोनों गीतों को समान रूप से सम्मान दिया जायेगा। सभी सदस्यों ने इस घोषणा का मेजें थपथपाकर स्वागत किया था। संसद और राज्य विधानमंडलों के अधिवेशन 'वंदे मातरम्' के गायन से प्रारंभ होते हैं, तो 'जन गण मन' से समाप्त। स्थानीय निकायों के संबंध में भी ऐसा ही है। पर देखने में यह आता है कि 'वन्दे मातरम्' गायन के समय कुछ सदस्य, खासतौर पर स्थानीय निकायों में, राष्ट्रगीत का अपमान करते हुए बहिर्गमन कर जाते हैं, कुछ सदस्य गायन के दौरान अशोभनीय नारेबाजी कर वातावरण को विषाक्त बनाने का गंभीर अपराध भी करते हैं।
'वन्दे मातरम्' देशभक्ति की भावना उद्दीप्त करने वाला श्रेष्ठ गीत है। इसके बोल हृदय को भारत माता के प्रेम से सराबोर कर देते हैं। अधिकृत रूप से पहले इसके दो पद ही स्वीकृत हुए। (हालांकि महान गायक ओंकार नाथ ठाकुर ने 15 अगस्त 1947 को 'ऑल इंडिया रेडियो' पर इसे पूरा गाया था, और वह भी तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री सरदार पटेल की सहमति से) यदि पूरा गीत गाया जाये तो समझ आता है कि यह कितना प्रेरक है। तभी तो हजारों देशभक्त भारत के स्वाधीनता संघर्ष में यह गीत गाते हुए हंसते–हंसते फांसी पर चढ़े। यूं तो 'वन्दे मातरम्' ये दो शब्द बोलने के लिए भी लोगों ने नौकरियां गवाईं, कोड़े खाये, जेलें भुगतीं। ये शब्द सारे देश के लिए अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ 'युद्ध की पुकार' बन गये थे। 1905 में बंगाल–विभाजन के बाद ये पूरे देश की जुबान पर आ गये। लाला हरदयाल ने तो स्विट्जरलैण्ड से 'वन्दे मातरम्' पत्र निकाला।
जब विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसे गायक भाव–विह्वल हो इसे गाते थे तो चौथे पद– तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि तुमि मर्म, त्वम् हि प्राणा शरीरे। बाहुते तुमि मां शक्ति, हृदये तुमि मां भक्ति, तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरे–मंदिरे' को सुनते–सुनते अनेक राष्ट्रभक्तों की आंखें छलछला आती थीं। इसकी अदम्य प्रेरणा तमाम मुसीबतों, कष्टों, अभावों, चुनौतियों का मुकाबला कर देश के लिए सर्वस्वार्पण का भाव जगा देतीं। लोगों ने इस प्रेरणा के कारण ही अपने नीड़–जलाकर, घर उजाड़कर, बर्बाद होकर भी बगैर उफ किये, राष्ट्र कार्य में खुद को खपाया। पर 'वन्दे मातरम्' का आजाद भारत की सरकार ने निरादर किया। उसे 'जन गण मन' के समकक्ष सम्मान देने की संविधान सभा की घोषणा तक आज 62 साल बाद भी पूरी नहीं हुई। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में 1971 में सरकार ने राष्ट्रगान 'जन गण मन', राष्ट्रध्वज तिरंगा और भारतीय संविधान के अपमान करने पर तीन वर्ष की सजा या अर्थदण्ड या दोनों का प्रावधान किया। पर 'राष्ट्रीय सम्मान की अवमानना निवारण अधिनियम 1971' नामक इस कानून में राष्ट्रगीत 'वन्दे मातरम्' के अपमान के लिए किसी सजा की व्यवस्था नहीं की गयी। यह संविधान सभा में अध्यक्ष द्वारा की गयी घोषणा के विपरीत था। इससे राष्ट्र के लिए मर–मिटने की भावना जगाने वाले गीत के अपमान के बहाने राष्ट्र पर ही चोट करने वालों के मंसूबे परवान चढ़े। देशभक्त ठगे से रह गये। अनेक लोगों ने सरकार को इस विषय में लिखा कि राष्ट्रगीत के अपमान के लिए भी सजा का प्रावधान उक्त कानून में शामिल किया जाना चाहिए। पर सरकार 41 साल से अंधी–बहरी बनी बैठी है। ये बहुत ही क्षोभकारी स्थिति है। तुरन्त ही वन्दे मातरम् के अपमानकर्ताओं को दंडित करने की व्यवस्था की जाये और इसके लिए उक्त कानून में तत्काल संशोधन किया जाये।
–अजय मित्तल
खन्दक, मेरठ (उ.प्र.)
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