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शाम के पांच बज चुके थे। सुधीर खेल के मैदान से क्रिकेट खेल कर घर लौटा तो देखा दादाजी अपना सफेद कोट पहनकर कहीं जाने की तैयारी में हैं। सुधीर समझ गया कि दादाजी या तो किसी कवि सम्मेलन में कविता पढ़ने जा रहे हैं या फिर किसी बैठक में भाग लेने, क्योंकि उसके दादाजी एक चर्चित कवि हैं। अरे! आज तो दादाजी के कमरे में देशभक्ति के गीत का स्वर सुनाई पड़ रहा है… 'ये देश है वीर जवानों का…।'
सुधीर को देशभक्ति के ये गाने अच्छे तो लगते हैं पर वह सोचा करता है कि देशभक्तों की जरूरत अपने देश को तब थी जब देश गुलाम था, अंग्रेजों के अत्याचारों से उत्पीड़ित था। आज तो अपना देश स्वतंत्र है, फिर क्यों लोग देशभक्ति के नाम का अलख जगाया करते हैं? उसके दादाजी भी अक्सर कहा करते हैं, 'सुधीर! पढ़ाई-लिखाई हो या खेलकूद तुम्हारे प्रत्येक कार्य में जब तक देशभक्ति की भावना समाहित नहीं होगी, तुम्हारी सफलता अधूरी कही जाएगी।'
'मैं देशभक्त बनूं भी तो कैसे?' सुधीर मन ही मन सोचता है।
सुधीर यह सब सोच ही रहा था कि दादाजी ने उसे आवाज लगाई : 'सुधीर! देखो- यह आमंत्रण पत्र। यह एक पुरस्कार वितरण समारोह का आमंत्रण पत्र है। इसमें मुझे एक ऐसे युवक को पुरस्कार देने के लिए बुलाया गया है जो शहर की सड़कों पर नंगे पैरों घूम-घूमकर टोकरी में फल बेचा करता है।'
'हैं.., फल बेचने वाले युवक को पुरस्कार…।' सुधीर मन ही मन बड़बड़ाया। दादाजी के कानों तक उसकी यह आवाज पहुंच गई। वे चौकन्ने होते हुए बोले, 'क्या फल बेचने वाले को पुरस्कार पाने का अधिकार नहीं है? उसने देशभक्ति की मिसाल कायम की है, अपने स्वार्थ की भावना से परे हटकर, लोभ की भावना को त्यागकर और जान हथेली पर रखकर।'
'यह भला कैसे संभव हो सकता है? फल बेचते-बेचते उसने ऐसा कौन-सा कार्य कर दिया, जो उसे देशभक्ति के नाम पर पुरस्कार देने का स्वांग रचा जा रहा है। जरूर यह किन्हीं छुटभैये नेता भाइयों की कारगुजारी है।' मन ही मन यह सब सोचते हुए सुधीर ने दादाजी से पूछ ही लिया, 'दादाजी! फल बेचने वाले युवक ने किस प्रकार से देशभक्ति की मिसाल कायम की है?'
सुधीर के इस प्रश्न पर दादाजी गंभीर हो गए। उन्होंने कहा, 'तुम समझते हो कि पुरस्कार स्वार्थ की भावना से वितरित किए जाते हैं?'
'हां यही बात होती है दादाजी!'
'सुधीर! कहना आसान होता पर करना बहुत मुश्किल। तुम्हें आज के इस वर्तमान समय में किसी अंग्रेज-वंग्रेज से नहीं लड़ना है, पर क्या गुलामी के समय से कुछ ज्यादा ही आज हम उत्पीड़न का शिकार नहीं हैं? आए दिन जगह-जगह बम विस्फोट, बैठकों में डकैतियां, राजनेताओं की हत्या, सरकारी प्रतिष्ठानों में हड़तालें, सीमा पर घुसपैठ, कारगिल संघर्ष जैसे संकटों को तुम नहीं देख रहे? यदि तुम्हें देशभक्ति की मिसाल कायम करनी है तो इन अत्याचारों को रोकने में हाथ बंटाओ और अपने देश को समृद्धि के पथ पर प्रशस्त करो।'
दादाजी के मुंह से यह सब सुनकर सुधीर को हंसी आ गई। वह अपनी हंसी रोकते हुए बोला, 'तो अब हम बम विस्फोट करने वाले गिरोह को पकड़ें, बैंक लूटने वाले गिरोह के डकैतों से लड़ाई मोल लें, कारगिल में जाकर शहीद हो जाएं…। भला इन सबसे हमें क्या लेना-देना। हमें इससे फायदा ही क्या? हमारे घर में तो बम विस्फोट नहीं हो रहा है, बैंक लुट जाने से हमारा क्या बिगड़ गया? सरकारी प्रतिष्ठानों में हड़तालें हो रही हैं, होती रहें, कौन-सी मेरी फाइल अटकी पड़ी है किसी आफिस में?'
सुधीर की यह सब बातें दादाजी बहुत गंभीरता से सुन रहे थे। उन्होंने कहा, 'सुधीर यह सब सोचना ही तो स्वार्थ कहा जाता है। स्वार्थ की भावना में अपनी भलाई के सिवाय इंसान को कुछ भी नजर नहीं आता, तब वह दुनिया से परे हो जाता है। स्वयं के स्वार्थ से परे देश के हित की भावना ही देशभक्ति कही जाती है। आज के वर्तमान समय में भी ऐसे देशभक्तों की कमी नहीं है। देश को पतन के गर्त में ले जाने वाले भ्रष्ट तत्वों को जड़ से मिटाने में एक फटेहाल, मामूली फल बेचने का धंधा करने वाले युवक ने योगदान दिया है तो वह अवश्य ही पुरस्कार पाने के काबिल है।
सुधीर दसवीं कक्षा का छात्र है। अब तक अपनी पाठ्यपुस्तकों में देशभक्ति के कितने ही पाठ पढ़ चुका है, कक्षा में प्राध्यापकों से व्याख्यान सुन चुका है पर इतनी गहराई से देशभक्ति की भावनाएं उसके स्मृति पटल पर कभी नहीं उभरी! उसका मन उस घटना को जानने के लिए व्याकुल हो उठा कि फल बेचने वाले लड़के को पुरस्कार के लिए क्यों चुना गया?
दादाजी ने बताया कि विगत तीन माह पूर्व अपने शहर में प्रदेश के मुख्यमंत्री का आगमन होने वाला था। जिस स्थान पर उन्हें आमसभा को सम्बोधित करना था वहां प्रशासन की ओर से सुरक्षा के सभी प्रबंध किए गए थे। जिस रास्ते से मुख्यमंत्री गुजरने वाले थे उसी रास्ते पर एक जगह फुटपाथ पर वह लड़का टोकरी में सेब बेच रहा था कि दो-तीन नवयुवक उसके समीप आए और एक छोटी-सी पोटली उसे देते हुए बोले, 'इसे अपनी टोकरी में सेबों के नीचे छुपा कर रखे रहो, बदले में तुम्हें हम पांच सौ रुपए देंगे, थोड़ी देर बाद यह पोटली हम वापस ले जाएंगे।'
उस लड़के ने पोटली देने वाले नवयुवकों को अच्छी तरह से पहचानते हुए उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। पर अगले ही पल वह सब कुछ समझ गया। उसने मन ही मन सोचा मैं देश का नागरिक हूं, इसलिए देश में घटित होने वाली किसी भी दुर्घटना को रोकना हमारा परम कर्तव्य है। नि:संदेह इस पोटली में कोई विस्फोटक सामग्री हो सकती है।
मैं गरीब हूं तो क्या, पांच सौ रुपए कमाने में मुझे महीनों गली-गली घूमना पड़े तो क्या? मुझे अपने कर्तव्य से कोई डिगा नहीं सकता। मैं देश के प्रति गद्दारी करते हुए ऐसे कार्य में कदापि सहयोग नहीं दे सकता।
अगले ही पल फल बेचने वाला वह लड़का स्वार्थ और लोभ की भावना से ऊपर उठकर अपनी टोकरी उठाए सुरक्षा व्यवस्था में तैनात एक पुलिस सब इंस्पेक्टर के समीप जा पहुंचा और उन युवकों की ओर धीरे से इशारा करते हुए इंस्पेक्टर को सारी बात बता दी। पुलिस इंस्पेक्टर ने फौरन ही वह पोटली अपने कब्जे में करते हुए उन युवकों को धर दबोचा। सचमुच उस पोटली में दो शक्तिशाली बम पाए गए। पुलिस सब इंस्पेक्टर ने फल बेचने वाले लड़के की बहादुरी और सूझ-बूझ को सराहते हुए उस गरीब को पुरस्कृत करने की मांग की। अन्तत: एक बड़े हादसे के टल जाने और कुख्यात अपराधियों के पकड़ लिए जाने में सहयोग करने के कारण फल विक्रेता लड़के को प्रशासन की ओर से पुरस्कृत करने की घोषणा की गई।
दादाजी के मुंह से यह घटना सुनकर सुधीर की गलतफहमी दूर हो गई कि पुरस्कार किसी सिफारिश से ही मिला करता है। अब उसे पता चल गया था कि पुरस्कार तो त्याग, बलिदान और जनहित के लिए किए गए उत्कृष्ट कार्यों के लिए किसी भी आम आदमी को दिए जा सकते हैं।
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