रामायण की साहित्यिक महत्ता
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विभूश्री
इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारतीय जनमानस को जिस कथा ने सर्वाधिक प्रभावित किया है वह रामकथा ही है। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि सदियों गुजर जाने के बाद भी रामकथा भारतीय सांस्कृतिक चेतना का केन्द्र बिन्दु बनी हुई है। रामकथाओं में भी सर्वाधिक प्राचीन महर्षि बाल्मीकी कृत 'रामायण' का विशेष महत्व है। रामायण की सार्वभौमिकता और जन-जन द्वारा इसे 'आराध्य कृति' मानने का एक प्रमाण यह भी है कि इस कृति ने भारत की लगभग सभी भाषाओं के साहित्य पर अपना प्रभाव छोड़ा है। कहीं प्रत्यक्ष और कहीं अप्रत्यक्ष रूप में रामकथा सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में उपस्थित है। रामायण की इसी महत्ता को रेखांकित करती एक पुस्तक 'भारतीय साहित्य पर रामायण का प्रभाव' हाल में ही प्रकाशित होकर आयी है। प्रख्यात साहित्यकार डा. चन्द्रकांत बांदिवडेकर के संपादन में प्रकाशित इस पुस्तक में भारतीय भाषाओं के अनेक विद्वत् जनों के विस्तृत आलेख हैं, जिसमें उस भाषा पर रामायण के प्रभाव को व्याख्यायित किया गया है।
पुस्तक के आरंभ में संपादन सहयोगी डा. रामजी तिवारी की विस्तृत भूमिका ही इस पुस्तक के कथ्य और उसके उद्देश्यों को स्पष्ट कर देती है। वह लिखते हैं, 'विश्व मानचित्र के लगभग दो-तिहाई हिस्से को रामकथा ने अनेक स्तरों पर और अनेक रूपों में प्रभावित किया है। आज भी मिस्र और रोम से लेकर वियतनाम, कंबोडिया और इंडोनेशिया तक रामायण संस्कृति का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है।… साहित्यिक रचनाओं का उपजीव्य ढूंढने के लिए रामायण आज भी समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अक्षयकोष है। इसके साथ ही रामायण हमारी राष्ट्रीय अस्मिता अैर सांस्कृतिक चेतना का निर्विकल्प आश्रय भी है।'
समीक्ष्य पुस्तक में असमिया, उर्दू, उड़िया, गुजराती, तमिल, तेलुगू, बंगला, मराठी, मलयालम, पंजाबी और हिंदी साहित्य में रामकथा के प्रभाव को रेखांकित किया गया है। विशेष रूप से उर्दू साहित्य में रामकथा के प्रभाव और राम के यशोगान को पढ़ना सुखद व आश्चर्यजनक है। इस बारे में विस्तार से लिखते हुए डा. राम पंडित अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। जनाब सागर निजामी की 'राम' शीर्षक नज्म की ये दो पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं-
'हिंदियों के दिल में बाकी है मुहब्बत राम की
मिट नहीं सकती कयामत तक हुकूमत राम की।'
इसी तरह कुमार पाशी, जेहरा निगाह, सुरेन्द्र प्रकाश और मुंशी बनवारी लाल शोला की रचनाओं को पुस्तक में उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के अगले अध्याय में उड़िया साहित्य पर रामायण के प्रभाव की चर्चा करते हुए डा. अर्जुन सत्पथी लिखते हैं कि आधुनिक उड़िया साहित्य के प्रथम वृहत्र्यी-राधानाथ, मधुसूदन और गंगाधर ने भी रामकथा से प्रभावित रचनाएं लिखीं। इनमें भी गंगाधर मेहेर को उन्होंने रामकथा का प्रमुख प्रस्तोता माना है। इसी क्रम में मराठी साहित्य पर रामायण के प्रभाव की चर्चा करते हुए डा. उषा माधव देशमुख की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। वह लिखते हैं, 'भारत की अस्मिता और आदर्श के संदर्भ में आदि कलाकृति रामायण एक मानदंड है। हर युग में यह काव्य लोकजीवन में झरता गया। यही कारण है कि मराठी में भी कहानी, नाटक, एकांकी, उपन्यास से अधिक रामायण के अनुवाद और रूपांतर हुए हैं।'
आधुनिक मलयालम साहित्य पर रामायण के प्रभाव के बारे में अपने आलेख में डा. रामचंद्र देव लिखते हैं, 'अन्य प्रादेशिक भाषाओं के समान ही केरल साहित्य के लिए रामायण चिरकालीन धरोहर के स्रोत रूप में है।' कहने का सार यही है कि यह पुस्तक संपूर्ण भारतीय साहित्य में रामायण पर आधारित रचनाओं की संक्षिप्त व्याख्या ही प्रस्तुत नहीं करती बल्कि हिंदीतर भाषा साहित्य में रामायण के प्रभाव को भी प्रभावी ढंग से रेखांकित करती है।
पुस्तक का नाम – भारतीय साहित्य पर
रामायण का प्रभाव
संपादक – डा. चंद्रकांत बांदिवडेकर
प्रकाशक – आर्य प्रकाशन मंडल
9/221, सरस्वती भंडार
गांधी नगर, नई दिल्ली-31
मूल्य – 275 रु. पृष्ठ – 175
लोकतंत्र का आदर्श स्वरूप
विगत कुछ समय से अपने देश में लोकतंत्र के असंतुलित होते जा रहे स्वरूप को लेकर बुद्धिजीवी वर्ग की चिंता बढ़ी है। स्वाधीन भारत में जिस तरह के आदर्श लोकतंत्र की कल्पना की गई थी, उसे आज तक हम क्यों नहीं अर्जित कर पाए, इस पर विद्वानों के विचारों में मतभेद हो सकता है, लेकिन इस बात पर लगभग सभी विद्वत् जन एकमत हैं कि आज लोकतंत्र में 'लोक' ही सर्वाधिक उपेक्षित हो चुका है। उसकी चिंता कहीं दिखाई नहीं देती है। ऐसे समय में लोकतंत्र की सैद्धान्तिक अवधारणा और उसके आदर्श स्वरूप को समझना हर नागरिक के लिए जरूरी हो गया है। हाल में ही प्रकाशित होकर आई पुस्तक 'लोकतंत्र' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण कही जा सकती है। पुस्तक के लेखक डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी ने इसमें लोकतंत्र के बहुआयामी पक्षों की चर्चा करते हुए उसके आदर्श स्वरूप की भी व्याख्या की है।
समीक्ष्य पुस्तक के पहले ही अध्याय में लेखक ने लिखा है, 'लोकतंत्र धर्म की गंगा है, जिसके प्रवाह में सबका कल्याण है। जिसका दर्शन मात्र ही प्रत्येक का कल्याण करने वाला है।' लोकतंत्र की इसी मूल भावना का विस्तार और उसकी व्याख्या आगे के अध्यायों में की गई है। लोकतंत्र के व्यापकत्व की चर्चा करते हुए लेखक का मानना है कि यह शब्द 'जन', 'प्रजा' और 'समाज' शब्द से भी विशद अर्थों को स्वयं में निहित करता है। वह लिखते हैं, 'लोकतंत्र में लोक संचरण, लोक-यात्रा, लोक व्यवस्था की दृष्टि से समग्रता की सोच और उसी दृष्टि से चिंतन और आचरण आवश्यक है। इसीलिए लोक का अर्थ 'समग्र व्याप' से है, मात्र 'जन' से नहीं।' लोकयात्रा को सनातन और धर्म को लोकतंत्र का प्राणतत्व मानने वाले लेखक ने आगे के अध्यायों में इसकी गहन व्याख्या की है।
सतयुग में रामराज्य को लोकतंत्र का आदर्श स्वरूप बताते हुए लेखक आज के दौर से उसकी तुलना कुछ इस तरह करते हैं, 'वह लोकतंत्र था, आज सत्तातंत्र है। तब लोकतंत्र का नियंत्रण था, आज सत्ता का शासन है। तब लोक-स्पंदन का जीवन था, अब सत्ता के दंड का संचरण है।' लोकतंत्र के तत्वों (लोक अभिव्यक्ति, लोक अनुभूति, लोक संचरण और लोक में विलय) की सांस्कृतिक अर्थों में व्याख्या करते हुए लेखक ने इसका आदर्श स्वरूप सामने रखा है। लेखक द्वारा बताए गए 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' और 'सर्वभूत: हितेरता:' जैसे लोकतंत्र की भावभूमि की सुन्दर व्याख्या को जानकर यह कल्पना सहज की मन में उठती है कि अगर इस देश की बागडोर संभालने वालों ने लोकतंत्र की अवधारणा को आत्मसात कर लिया होता तो संभवत: आज हम विश्व के सर्वाधिक खुशहाल और संपन्न लोकतांत्रिक राष्ट्र बन गए होते।
लोकतंत्र के रूप में प्रचारित किए गए पश्चिमी शब्द 'डेमोक्रेसी' की अवधारणा की आलोचना करते हुए लेखक ने इसमें निहित दुर्भावना को स्पष्ट किया है। ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंचने में भी संदेह मिट जाता है कि विगत 65 वर्ष से लोकतंत्र के रूप में जिस शासन व्यवस्था के बीच हम जी रहे हैं, वह वास्तव में 'डेमोक्रेसी' ही है, लोकतंत्र का एक छद्म रूप। समीक्ष्य पुस्तक का प्रत्येक अध्याय वैचारिक उद्वेलन उत्पन्न करने वाला है। पुस्तक की शैली अपारंपरिक और कई स्थलों पर ललित निबंध जैसी लगती है। इसे पढ़ना लोकतंत्र के संदर्भ में एक नई वैचारिक भावभूमि में विचरण करने जैसा है। पुस्तक के कथ्य और उसकी शैली की सराहना करते हुए प्रख्यात विचारक के. एन. गोविंदाचार्य ने उचित ही लिखा है, 'आज फिर लोक की साधना का समय आ गया है और मेरा मानना है कि डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी ने अपनी साधना का नवनीत इस पुस्तक के रूप में भारत की लोक साधना के साधकों को दिया है।'
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