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नई दिल्ली में 'भारतीयता और आधुनिक चुनौतियां' विषयक 12वां दीनदयाल स्मृति व्याख्यान
'दुनियाभर के चिंतक विचार करते हुए आज इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दुनिया की सारी अकाट्य समस्याओं का निदान करके हमारे सामने नई सुखी-सुंदर दुनिया बनाने का रास्ता कोई रख सकता है तो वह केवल भारत है। क्योंकि भारत की भारतीयता में ही सारे समाधान हैं'। उक्त उद्गार रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने गत 3 अक्तूबर को नई दिल्ली में 'भारतीयता और आधुनिक चुनौतियां' विषयक अपने व्याख्यान में व्यक्त किए। दीनदयाल स्मृति व्याख्यान के अंतर्गत सम्पन्न हुए कार्यक्रम का आयोजन दीनदयाल शोध संस्थान तथा एकात्म मानवदर्शन विकास एवं अनुसंधान प्रतिष्ठान के संयुक्त तत्वावधान में हुआ।
एक घंटे से अधिक समय के अपने व्याख्यान में श्री भागवत ने भारतीयता और आधुनिक चुनौतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि भारत की भारतीयता, हिन्दुत्व, ये समानार्थी शब्द हैं। भारत दुनिया के नक्शे पर एक देश है। कालचक्र के चलते उसका आकार छोटा-बड़ा हो सकता है, लेकिन भारत जन का स्वभाव भारतीयता है। यह स्वभाव जिस संस्कृति से बना है उस संस्कृति की सारी विशेषताएं, सारे मूल्य भारत के सामान्य जन के स्वभाव में उनके व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों प्रकार के आचरणों में आज भी देखने और अनुभव करने को मिलते हैं। इसलिए वह संस्कृति ही हमारा स्वभाव बनी है, हमारी भारतीयता बनी है। उन्होंने कहा कि भारत की भारतीयता जिन विशेषताओं के कारण जानी जाती है, वह सब भारतीय संस्कृति के संस्कारों की देन है। ये विचार वैश्विक हैं, मानवतावादी हैं।
विज्ञान और मर्यादा
आधुनिक चुनौतियों के संबंध में बोलते हुए श्री भागवत ने कहा कि जीवन चुनौतियों भरा है। दुनिया में जीवन कभी चुनौती रहित होगा, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है। सब महसूस करते हैं कि 30 साल पहले जीवन जितना चुनौतीपूर्ण था, आज उससे ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है। अपना, परिवार का, देश का और दुनिया का जीवन चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है। उन्होंने कहा कि सारी चुनौतियों का चिंतन करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचना हो तो कहना होगा कि चुनौतियां अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि उनका रूप अलग-अलग है, उनके क्षेत्र अलग-अलग हैं, लेकिन उनका मूल एक ही है।
श्री भागवत ने कहा कि पहली चुनौती के रूप में ध्यान में आता है कि विज्ञान बहुत बढ़ा है। जो विकास 100 साल में होता था उसको आज एक दिन में करने की गति को साध लिया गया है। विज्ञान इतना आगे बढ़ गया है कि वह अब भगवान के काम को करने का भी प्रयास कर रहा है। लेकिन विज्ञान एक दुधारी तलवार है। उसका परिणाम क्या होगा, यह तो उसका उपयोग करने वाले के ऊपर निर्भर है। लेकिन विज्ञान का उपयोग करने की मर्यादा चाहिए, तब विज्ञान का उपयोग अच्छा होगा। अंग्रेजी की फिल्म 'इलेवंथ ऑर' का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि फिल्म में विभिन्न समस्याओं का चिंतन किया गया है। उस चिंतन में यह बात निकलकर सामने आई कि जो समस्याएं आज हैं वे समस्याएं 200-250 वर्ष पहले नहीं थीं, क्योंकि उस समय विज्ञान नहीं था। हमारे हाथ विज्ञान लगा। इसके बाद हमने सृष्टि के भंडारों को समाप्त कर दिया। फिल्म में विशेषज्ञों का निष्कर्ष था कि सारी समस्या दृष्टि को बदलने की है। उन्होंने कहा कि पाश्चात्य विचार ने मनुष्य को प्रकृति का स्वामी बनना सिखाया, जबकि भारतीयता ने प्रकृति का साहचर्य सिखाया। मैं भी जीवित रहूं, अन्य लोग भी जीवित रहें। इसलिए संयम रखना होगा। हम सृष्टि के स्वामी नहीं हैं, बल्कि अंग हैं। ऐसा मानकर हम जीने का तरीका फिर से वरण करें। इसके अलावा कोई समाधान नहीं है।
बेलगाम विकास की चुनौती
श्री भागवत ने कहा कि जैसे विज्ञान और उपभोगवाद चुनौती है, वैसे ही विकास और पर्यावरणवादी चुनौती है। विकास का लाभ होता होगा लेकिन उसके साथ-साथ समस्याएं भी उभरती हैं। जमीन, पानी सब कुछ खराब हो जाता है। ऐसे में असंतोष बढ़ता है, संघर्ष होता है और चुनौतियां सामने आती हैं।
सरसंघचालक ने कहा कि हम सम्पूर्ण दुनिया को अपना कुटुम्ब मानने वाले लोग हैं। भारत की भारतीयता यही है, केवल भारत में रहने से ही हम भारतीय नहीं हैं। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम अपने देश में इस भाव को साकार करके दिखाएं और जिस भी तरीके से आज के समय में यह साकार हो सकता है उस तरीके को दुनिया को बताएं। स्वामी विवेकानंद ने स्पष्ट रूप से कहा था, 'भारत, तुम बलवान होकर दुनिया के अन्य लोगों का गला दबाने के लिए नहीं जन्मे, तुम दुनिया में बड़े होगे तो दुनिया का कष्ट दूर करने के लिए। तुमको अपना सर्वस्व देकर दुनिया की सेवा करनी है'। यह दायित्व भारत का है, हम स्वयं को इस दायित्व के योग्य बनाएं।
उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य उपभोग नहीं है, मनुष्य जीवन का उद्देश्य परोपकार से परमार्थ प्राप्त करना है। अस्तित्व का भय छोड़ना, त्यागपूर्वक रहना, स्वार्थ छोड़ना, अपने आपको शक्तिशाली बनाना, लेकिन उसमें शील और करुणा हो। सबके सुख में अपना सुख मानो। अपने जीवन को सुखी बनाते हुए सबका जीवन सुखी बनाऊंगा, इन मूल्यों के आधार पर दुनिया चले तो इन सारी समस्याओं से मुक्ति है, नहीं तो कोई उपाय नहीं है। यह बात दुनिया के सभी चिंतक कहते हैं इसलिए वे भारत की ओर देखते हैं।
नई राह की ओर
श्री भागवत ने कहा कि हम भारतीयों के सामने पहली चुनौती यह है कि हम भारतीय बनें। सारी दुनिया में आधुनिकता का जो प्रवाह है, हम अपने आपको उससे क्यों जोड़ें? उससे अलग चलें लेकिन सारी दुनिया में जो कुछ अच्छा है वह सब लें। उन्होंने कहा कि भारत को अपने अस्तित्व, अपने स्वार्थ का भय छोड़कर चलने वाले व्यक्ति चाहिए। गांव, शहर हर जगह ऐसे व्यक्ति चाहिए। इससे जो वातावरण बनता है, समाज उसी से बनता है। पूरा समाज शिक्षित नहीं होता, लेकिन समाज में जैसा प्रवाह होता है, समाज उस पर चल पड़ता है। हम स्वयं वैसे बनें, समाज को वैसा बनाएं।
श्री भागवत ने कहा कि हम यह मानकर चलें कि हमें पूरी दुनिया को नई राह दिखानी है, प्रभारी बनकर नहीं बल्कि बंधु बनकर। हमारे मूल्य अलग हैं, हमारा तरीका भी अलग है। हमें उस तरीके से सम्पूर्ण दुनिया को सुख-शांति की राह पर चलाने वाला दुनिया का बंधु बनना है। यही हम भारतीयों का ध्येय है, ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य है। यदि हमें भारत की जरा भी चिंता है तो हमें ऐसा बनना चाहिए। उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि देश हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, करियर नहीं। इसी आधार पर हम सफल और शक्ति सम्पन्न भारत का निर्माण कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि मानव अपनी मनुष्यता खो चुका है, मनुष्यता की खोज करने के लिए वह भारत के पास आना चाहता है। भारत मनुष्यता का एकात्म स्वरूप प्रदर्शित करने वाला समाज खड़ा करे। उसके लिए हम सब जुट जाएं।
फिक्की सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में राजधानी के प्रबुद्धजन उपस्थित थे। प्रारंभ में प्रतिष्ठान के अध्यक्ष डा. महेश चंद्र शर्मा ने प्रस्तावना रखी और व्याख्यानमाला की विस्तृत जानकारी दी। अंत में दीनदयाल शोध संस्थान के अध्यक्ष श्री वीरेन्द्रजीत सिंह ने सभी का आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम का शुभारंभ राष्ट्रगीत वंदेमातरम् से हुआ और समापन राष्ट्र गान से।तरुण सिसोदिया
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