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आर्थिक प्रगति की गलत राह

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Oct 6, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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आर्थिक प्रगति की गलत राह

दिंनाक: 06 Oct 2012 15:31:41

तुम जिसका जल–अन्न ग्रहण कर बड़े हुए लेकर जिसकारज तन रहते कैसे तज दोगे? उसको हे वीरों के वंशज।

–रामनरेश त्रिपाठी (स्वप्न, 5/12)

डा. मनमोहन सिंह की सरकार आर्थिक सुधारों के नाम पर ताबड़तोड़ फैसले कर रही है। खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश को मंत्रिमंडल की मंजूरी के महज 20 दिन बाद अब पेंशन व बीमा क्षेत्र में भी एफडीआई को मंजूरी पर सरकार ने अपनी मुहर लगा दी है। हालांकि संसद में अभी इन सुधारों को विधेयक के रूप में मंजूरी मिलनी बाकी है और सरकार को शीतकालीन सत्र में इन्हें पारित कराने में कितनी सफलता मिलती है यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन यह तय है कि सरकार की राह आसान नहीं होगी। क्योंकि संप्रग के सहयोगी ही उस पर यह आरोप लगा रहे हैं कि सरकार आर्थिक सुधारों के नाम पर देश को अमरीका के हाथों बेच रही है। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मुद्दे पर तो संप्रग की प्रमुख व सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस विरोध जताते हुए गठबंधन व सरकार से अलग हो गई और तृणमूल प्रमुख लगातार सरकार के खिलाफ आग उगल रही हैं। दरअसल, आर्थिक मोर्चे पर यह सरकार जल्दबाजी में जो फैसले कर रही है उसमें समर्थन या विरोध से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह सब भारत या भारतजन के हित में है?

आर्थिक उदारीकरण के नाम पर जिस तरह भारत के अर्थतंत्र पर अमरीका या अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा बढ़ रहा है वह भारत के आर्थिक स्वावलंबन को चोट पहुंचाने वाला है। फिर ऐसे आर्थिक सुधारों का क्या लाभ? यह सरकार किस तरह अमरीका या उसके प्रभाव में चलने वाले वित्त संस्थानों के दबाव में है, इसका एक उदाहरण तो भारत की 'जलनीति-2012 का प्रारूप' है जिसके अंतर्गत विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में जल जैसे प्राकृतिक संसाधन का निजीकरण करने की तैयारी है। इससे आम आदमी के लिए स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता कितनी कठिन हो जाएगी, इसे सहज ही समझा जा सकता है। दूसरी ओर इस कारोबार में लगने वाली कंपनियां कितना मुनाफा बटोरेंगी, यह अनुमान लगाना भी कठिन नहीं है। खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश जहां भारत के 30 करोड़ से ज्यादा लोगों की  रोजी–रोटी पर सीधा–सीधा विपरीत प्रभाव डालकर उनके आर्थिक स्वावलंबन को तो खत्म करेगा ही, वालमार्ट जैसी अमरीकी कंपनियों के भंडार भी भरेगा, जो प्रकारांतर से आर्थिक संकट से जूझ रहे अमरीका के ही आर्थिक हितों का पोषण करने वाला है। तो यह घर फूंक तमाशा देखने की ही नीति है, जिस पर चलकर संप्रग सरकार आर्थिक सुधारों का राग अलाप रही है।

इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि आर्थिक सुधारों की दौड़ में गांव, खेती, किसान लगातार पिछड़ रहे हैं और लाखों किसानों की आत्महत्याएं तो इस बहुप्रचारित आथिर्क विकास पर कलंक हैं। यह भी हो सकता है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी यह सरकार अपनी छत्रछाया में हो रहे महाघोटालों से जनता का ध्यान हटाने के लिए आर्थिक सुधारों को तेजी दे रही हो। वस्तुत: यदि सरकार वर्तमान अर्थतंत्र का ही सही नियोजन कर ले और विकास योजनाओं का पैसा अपने संरक्षण में पल रहे भ्रष्टाचारियों की जेबों में जाने से रोक ले तो भारत की आर्थिक तरक्की की तस्वीर ही दूसरी होगी। साथ ही वह आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी तंत्र को परिपुष्ट करे और देश भर में बिखरे व दम तोड़ रहे लघु और कुटीर उद्योगों में जान फूंके। स्वदेशी की उपेक्षा करके विदेशी के भरोसे आर्थिक उन्नति का रास्ता अख्तियार करना देश के लिए घातक ही होगा।

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