वार्ताकारों ने दीदेशद्रोह को मान्यता!- नरेन्द्र सहगल
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भारत के संविधान का निरादर और संसद की गरिमा का अवमूल्यन करके सरकारी वार्ताकारों द्वारा तैयार की गई रपट में पाक अधिकृत कश्मीर (पी.ओ.के.) को पाक प्रशासित जम्मू कश्मीर (पाक एडमिनिस्ट्रेटेड जम्मू कश्मीर) कहा गया है। वार्ताकारों के अनुसार कश्मीर विषय में पाकिस्तान भी एक पक्ष है और पाकिस्तान ने दो तिहाई कश्मीर पर जबरन अधिकार नहीं किया, बल्कि पाकिस्तान का वहां शासन है। 'पाकिस्तान प्रशासित' शब्दावली का तो यही अर्थ निकलता है।
ध्यान से देखें तो वार्ताकारों ने हुर्रियत कांफ्रेंस के एजेंडे 'आजाद कश्मीर' अथवा ग्रेटर कश्मीर को मान्यता दे दी है। इसी मान्यता के मद्देनजर लिखी गई रपट में जम्मू-कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच एक स्वतंत्र इकाई मान लिया गया है। इसी एक सिफारिश में सारे के सारे जम्मू-कश्मीर को (पाकिस्तान समर्थक अलगाववादियों के एजेंडे के अनुसार) पाकिस्तान के हवाले करने के खतरनाक इरादे की गंध आती है।
फसाद की जड़ पी.ओ.के.
पाकिस्तान के जबरन कब्जे वाले कश्मीर को पाक प्रशासित जम्मू-कश्मीर मानकर वार्ताकारों ने भारतीय संसद के उस सर्वसम्मत प्रस्ताव को भी अमान्य कर दिया है जिसमें कहा गया था कि संपूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न भाग है। 1994 में पारित इस प्रस्ताव में पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का संकल्प भी दोहराया गया है। रपट की यह भी एक सिफारिश है कि कश्मीर से संबंधित किसी भी बातचीत में पाकिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर और अलगाववादी संगठनों के नेताओं को भी शामिल किया जाए।
सरकारी वार्ताकार यह भूल गए कि पाक अधिकृत कश्मीर ही वास्तव में भारत-पाक रिश्तों की दरार है। भारतीय कश्मीर कोई समस्या नहीं है, वास्तव में समस्या और समस्या की जड़ें पाक अधिकृत कश्मीर में ही हैं। महाराजा हरिसिंह ने जिस रियासत का विलय भारत में किया था उसमें 85 हजार वर्ग किमी. का वह क्षेत्र है, जिसे पाकिस्तान ने 1947 में हमले के बाद भारत सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से अपने कब्जे में रखा हुआ है।
जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में आज भी 24 स्थान खाली पड़े हैं जिन्हें वहां से आए दस लाख शरणार्थियों के प्रतिनिधियों से भरा नहीं जाता। इन लोगों का संसद में भी कोई प्रतिनिधि निर्वाचित नहीं किया जाता। यही है भारत सरकार की खोखली और दोगली राजनीति जिस पर वार्ताकारों ने निगाह नहीं डाली।
अलगाववादियों की विजय!
भारत की संसद द्वारा बनाए गए एवं जम्मू-कश्मीर में लागू कानूनों की समीक्षा के समय जम्मू- कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के साथ वार्तालाप करने जैसी घुटने टेक सिफारिश भी की गई है। सभी जानते हैं कि लगभग 40 अलगाववादी/कट्टरपंथी संगठनों की सांझी प्रतिनिधि जमात हुर्रियत कांफ्रेंस पिछले 2 दशकों से कश्मीर की मुकम्मल आजादी के लिए आंदोलनरत है।
इसी हुर्रियत कांफ्रेंस के धड़े तहरीक ए हुर्रियत के कट्टरवादी नेता अलीशाह गिलानी ने जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने का झंडा उठाया हुआ है। हुर्रियत के ये दोनों धड़े जम्मू-कश्मीर में हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे जिहादी आतंकवादियों की पीठ थपथपाते हैं और हमारे इन तथाकथित प्रगतिशील वार्ताकारों ने इन्हीं अलगाववादी संगठनों और नेताओं की पीठ थपथपा दी है।
सर्वविदित है कि इन सभी आजादी और पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेताओं ने वार्ताकारों को ठेंगा दिखाकर अपनी मांगों/शर्तों की दुहाई दे डाली थी। हैरानी की बात है कि वार्ताकारों ने इन्हीं भारत विरोधी संगठनों को एक पक्ष (स्टेक होल्डर) माना है। इसी तरह इन सरकारी वार्ताकारों ने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर को भी एक पक्ष माना है।
भारत समर्थकों की अनदेखी
अत्यंत दुख की बात है कि रपट में अपने आपको कश्मीरियत के हितैषी और इंसानियत के रक्षक बताने वाले वार्ताकारों ने जम्मू व लद्दाख के लोगों, शिया मुसलमानों, गुर्जरों/बकरवालों, पी.ओ.के. और पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों और 1989 में कश्मीर से उजाड़ दिए गए 4 लाख कश्मीरी हिन्दुओं को जम्मू-कश्मीर पर पक्ष नहीं माना। ये सभी लोग जम्मू कश्मीर की कुल आबादी का 80 प्रतिशत भाग हैं, भारत समर्थक हैं और अलगाववाद का प्रबल विरोध करते हैं।
जिस हुर्रियत कांफ्रेंस को एक पक्ष माना गया है उसका प्रभाव जम्मू-कश्मीर के 22 जिलों में से घाटी के मात्र 5 जिलों तक ही सीमित है। ये अलगाववादी नेता चुनावों में जनता द्वारा चुने गए संवैधानिक प्रतिनिधि भी नहीं हैं। सारी दुनिया जानती है कि ये नेता जम्मू-कश्मीर में 14अगस्त को पाकिस्तान का स्थापना दिवस मनाते हैं। पाकिस्तान के नेता जब भी किसी वार्ता के लिए नई दिल्ली आते हैं तो ये सबसे पहले कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से ही मुलाकात करते हैं।
पाकिस्तान का खुला समर्थन
जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान को भी एक पक्ष मानकर तीनों वार्ताकारों ने जहां एक ओर जम्मू-कश्मीर में सक्रिय देशद्रोही अलगाववादियों के आगे घुटने टेके हैं, वहीं दूसरी ओर उन्होंने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर को हड़पने के लिए 1947, 1965, 1971 एवं 1999 में भारत पर किए गए हमलों को भी भुलाकर पाकिस्तान के सब गुनाह माफ कर दिए हैं। कश्मीर के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान को बराबरी का दर्जा देकर रपट तैयार करने वाले वार्ताकारों ने हमलावर और हमले के शिकार दोनों पक्षों को एक ही पलड़े में रख दिया है।
क्या वार्ताकारों ने कश्मीर पर पाकिस्तान को एक पक्ष मानकर उसके द्वारा भारत पर थोपे गए चारों युद्धों को जायज नहीं ठहराया? वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर की जनता के उत्पीड़न पर चिंता व्यक्त की है। परंतु ये उत्पीड़न कौन कर रहा है? कौन लोग इसके निशाने पर हैं? इसको स्पष्ट नहीं किया गया।
कांग्रेसी दृष्टिकोण को अपनाया
वार्ताकारों की रपट से तो यही पता चलता है कि ये उत्पीड़न केवल कश्मीर घाटी में रहने वाले एक विशेष वर्ग पर ही हो रहा है। इस संदर्भ में भी 4 लाख कश्मीरी हिन्दुओं के बलात् विस्थापन, माताओं, बहनों के साथ हुए बलात्कार, हजारों अनाथ बच्चों का रुदन, हिन्दुओं की सम्पत्ति पर गैर-कानूनी कब्जों और धर्म स्थलों की बर्बादी को वे उत्पीड़न नहीं मानते। इन वार्ताकारों ने उन एकतरफा अत्याचारों का भी लेखा-जोखा नहीं किया जो लद्दाख और जम्मू संभाग के लोगों पर ढहाए जा रहे हैं।
केन्द्र सरकार के इशारे और सहायता से लिख दी गई 178 पृष्ठों की रपट में केवल मात्र अलगाववादियों की मंशा, केन्द्र सरकार का एकतरफा दृष्टिकोण और पाकिस्तान के जन्मजात इरादों की चिंता की गई है। जो लोग भारत के राष्ट्रध्वज, संविधान और सुरक्षाबलों का निरादर करते हैं उनकी जी हुजूरी की गई है। ये रपट उन लोगों का घोर अपमान है जो आज तक पाकिस्तान और उसके समर्थक अलगाववादियों की साजिशों को दफन करते रहे हैं।
पूर्ण स्वायत्तता का आधार
वार्ताकारों ने 700 से ज्यादा प्रतिनिधिमंडलों की बातों को सुनने, पूरे जम्मू-कश्मीर में सभी जातियों, मजहबों, व्यापारियों, विद्यार्थियों, जमींदारों, कर्मचारियों, लेखकों, विद्वानों, धार्मिक/सामाजिक नेताओं द्वारा आयोजित जनसभाओं में जाने, तीन बड़े गोलमेज सम्मेलन करने और प्रदेश के 22 जिलों के दूरदराज के क्षेत्रों में जाकर लोगों से बात करने के बाद रपट लिखने का नाटक तो जरूर किया है, परंतु महत्व उन्हीं लोगों को दिया है जो भारत के संविधान के तहत सत्ता पर काबिज हैं और भारत के संविधान और संसद को ही धता बताकर स्वायत्तता की पुरजोर मांग कर रहे हैं
सभी जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने दल नेशनल कांफ्रेंस के राजनीतिक एजेंडे पूर्ण स्वायत्तता की दुहाई दी हुई है। इसी दुहाई की छाया, इस पूरी रपट पर है। इस रपट को पढ़ने के बाद किसी को भी स्पष्ट हो सकता है कि इसे केन्द्र सरकार, नेशनल कांफ्रेस, पीडीपी, अलगाववादी संगठनों, आईएसआई के एजेंटों और तीनों सरकारी वार्ताकारों ने किसी सलाह मशविरे के अंतर्गत, किसी खास उद्देश्य के लिए गढ़ दिया है। ये राजनीतिक धोखाधड़ी के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
80 प्रतिशत नागरिकों की अनदेखी
अगर ऐसा न होता तो जम्मू-कश्मीर की 80 प्रतिशत भारत-भक्त जनता की जरूरतों और अधिकारों को नजरअंदाज नहीं किया जाता। देश विभाजन के समय पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) से आए लाखों लोगों की नागरिकता के मूल अधिकारों का मुद्दा, पी.ओ.के. से विस्थापित होकर आए लाखों लोगों के अधिकारों का सवाल, 3-4 युद्धों में शरणार्थी बने सीमांत क्षेत्रों के देशभक्त नागरिकों का पुनर्वास, जम्मू और लद्दाख के लोगों के साथ हो रहा घोर पक्षपात, उनके राजनीतिक/आर्थिक/सामाजिक अधिकारों का हनन, पूरे प्रदेश में व्याप्त आतंकवाद, जम्मू संभाग के आतंक पीड़ित लोगों की समस्याओं, कश्मीर घाटी से उजाड़ दिए गए 4 लाख कश्मीरी हिन्दुओं की सम्मानजनक एवं सुरक्षित घर-वापसी और प्रदेश के सभी लोगों की अनेक विध जातिगत कठिनाइयां इत्यादि किसी भी समस्या का कोई ठोस समाधान नहीं बताया गया। इन सरकारी वार्ताकारों ने वास्तव में ही देशद्रोहियों के आगे घुटने टेक दिए हैं।
अभी तक कश्मीर समस्या के जानकार विद्वान इसके लिए पाकिस्तान, पी.ओ.के. और हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे पाक-परस्त संगठनों एवं आजादी समर्थक आतंकी गुटों को जिम्मेदार मान रहे थे। परंतु इन तथाकथित प्रगतिशील एवं वामपंथी रूझान वाले वार्ताकारों ने इस सच्चाई का गला घोटकर भारत की संसद, संविधान और सेना को दोषी मान लिया है। यही है देशद्रोह को मान्यता।
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