सोनिया का ठीकरा मनमोहन के सिर
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'टाइम' ने कहा, मनमोहन 'फिसड्डी',
पर असल फिसड्डी सोनिया-राहुल
कमलेश सिंह
मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस की हालत 'आईना दिखाया तो बुरा मान गये' वाली है। अमरीका की चर्चित पत्रिका 'टाइम' ने मनमोहन सिंह को 'अंडरएचीवर' क्या करार दिया, सरकार से लेकर कांग्रेस के दरबार तक बेचैनी का आलम है। बेशक, कारण अलग-अलग हैं। मनमोहन सिंह और उनकी सरकार की बेचैनी का कारण है कि वे जिनके लाड़ले थे, उन्होंने ही नकार दिया। जबकि कांग्रेस के दरबारियों को चिंता सताने लगी है कि नाकामी की यह मार अंतत: उनकी 'सर्वशक्तिमान' नेता सोनिया गांधी तक पहुंचने वाली है। सार्वजनिक तौर पर कोई स्वीकार भले ही न करे, पर कटु सत्य यही है कि चाहे वर्ष 1991 में वित्त मंत्री के रूप में हों या फिर वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री के रूप में, मनमोहन सिंह अमरीका के लाड़ले भी थे और पहली पसंद भी।
अमरीकापरस्त नीतिकार
पहले वित्त मंत्री के रूप में और फिर प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने सर्वाधिक सजगता और सक्रियता भी अमरीकी हितों के संरक्षण के लिए ही दिखायी है। जिन अमरीकापरस्त आर्थिक नीतियों की शुरुआत वर्ष 1991 में की गयी थी, वे ही मनमोहन के प्रधानमंत्रित्वकाल में परवान चढ़ीं। मामला चाहे अमरीका से परमाणु करार का हो या फिर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का, देशव्यापी विरोध को दरकिनार कर मनमोहन सरकार आगे ही बढ़ती गयी। सरकार की नीयत पर शक इसलिए भी होता है, क्योंकि आर्थिक उदारीकरण और सुधारों पर देश में कमोबेश राजनीतिक सहमति के बावजूद उसने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप मॉडल तैयार करने के बजाय अमरीकी हितों के अनुरूप फैसले लिये।
एक बार फिर से आर्थिक मंदी की जो आहट भारतीय अर्थव्यवस्था की दहलीज पर सुनायी पड़ने लगी है, उसका एक बड़ा कारण बिना सोचे-समझे अर्थव्यवस्था को अमरीका की पिछलग्गू बना देना भी है। अब इस सच से तो मुंह नहीं चुराया जा सकता कि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की शुरुआत अमरीका से ही हुई है और वे ही देश सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था को अमरीका का पिछलग्गू बना दिया है। यह एक बड़ी गलती है, जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है और आगे भी भुगतना पड़ेगा, क्योंकि इसे अचानक ही नहीं सुधारा जा सकता।
यह कैसे अर्थशास्त्री?
आर्थिक पृष्ठभूमि वाले मनमोहन सिंह को देश में अर्थशास्त्री मानने वालों की भी कमी नहीं है। इसे देश की राजनीति का बौद्धिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है कि मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत कई गैर कांग्रेसी दल भी उन्हें एक बड़ा अर्थशास्त्री बताते रहे, जबकि सच यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लुटिया सबसे ज्यादा उन्हीं की छत्रछाया में डूबी है। अर्थशास्त्री न भी हों, पर आर्थिक पृष्ठभूमि के चलते उनसे यह अपेक्षा तो अनुचित नहीं थी कि जब अमरीकी अर्थव्यवस्था पर संकट मंडराने लगा था, तभी भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाने के एहतियाती उपाय करते। जो प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों के खुले भ्रष्टाचार पर मूकदर्शक बना रहे, वह संकट की आहट भर से कैसे जाग उठता?
चौपट अर्थतंत्र, भ्रष्ट सरकार
सो, भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से संकट के भंवर में फंसती रही और वह उसी तरह मंद-मंद मुस्कुराते रहे, जिस तरह रोम के जलते वक्त नीरो बांसुरी बजा रहा था। अर्थशास्त्री बताये जाने वाले प्रधानमंत्री के राज में भारतीय अर्थव्यवस्था किस तरह चौपट हो गयी है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच साल से महंगाई बेलगाम है, अनगिनत किसान आत्महत्या कर चुके हैं, औद्योगिक उत्पादन न्यूनतम के नये रिकार्ड बना रहा है तो अवमूल्यन की मार खाता रुपया रसातल को पहुंच चुका है।
दूसरी ओर भ्रष्टाचार के जितने मामले मनमोहन सिंह के आठ साल के प्रधानमंत्रित्वकाल में सामने आये हैं, स्वतंत्र भारत की किसी एक सरकार के कार्यकाल में नहीं आये। इसके बावजूद सरकार और कांग्रेस को, उनकी ईमानदारी का ढोल पीटने में शर्म नहीं आती। इसलिए विपक्षी राजनीतिक दलों की यह टिप्पणी राजनीति से प्रेरित होते हुए भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती कि मनमोहन सिंह शायद सबसे भ्रष्ट सरकार के ईमानदार प्रधानमंत्री हैं। हालांकि कोयला खदान आवंटन की कालिख तो खुद प्रधानमंत्री के दामन पर दाग लगाती नजर आ रही है, पर यदि फिलहाल उन्हें ईमानदार ही मान लिया जाये तो भी ऐसी ईमानदारी की आरती उतारेंगे क्या, जो भ्रष्टाचार की खुली छूट देती हो?
अब जबकि यह बात निर्विवाद रूप स्थापित हो गयी है कि मनमोहन सिंह सरकार स्वतंत्र भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार है तो यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री ईमानदार होते हुए सरकार इतनी भ्रष्ट कैसे हो गयी? पहले मूकदर्शक बने रहने वाले और फिर आरोपियों को निर्दोष होने का प्रमाणपत्र बांटने वाले मनमोहन पर्दाफाश हो जाने पर भ्रष्टाचार का ठीकरा गठबंधन राजनीति की मजबूरियों के सिर फोड़ते रहे हैं। लेकिन एक टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले के अलावा अन्य सभी घोटालों के सरदार तो कांग्रेसी ही हैं। फिर भला इस भ्रष्टाचार को गठबंधन राजनीति के कालीन के नीचे कैसे छिपाया जा सकता है?
10, जनपथ के करीबी
यही नहीं, घोटालों के सरदार इन कांग्रेसियों में एक समानता और भी है कि ये सभी 10, जनपथ के करीबी हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में देश की प्रतिष्ठा के नाम पर ही उसे धूमिल करने वाले सुरेश कलमाड़ी कांग्रेस संसदीय दल के सचिव भी रहे हैं और शरद पवार के विरुद्ध कांग्रेस के हथियार भी। आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले में विलासराव देशमुख से लेकर अशोक चव्हाण तक, जितने नाम सामने आये हैं, क्या वे सभी 10, जनपथ के ही चहेते नहीं हैं? राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर दिल्ली का दम निकालने वाले तमाम घोटालों के लिए कठघरे में खड़ीं शीला दीक्षित की सबसे बड़ी काबिलियत क्या सोनिया गांधी की विश्वस्त होना ही नहीं है?
और अगर टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ही बात करें तो क्या ए.राजा के साथ बराबर के भागीदार बताये जा रहे पी. चिदंबरम भी 10, जनपथ के ही खास नहीं हैं? वैसे जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी की मानें तो टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले के तार सोनिया के मायके यानी इटली तक जुड़ते हैं। बोफर्स तोप दलाली के आरोपी जिस ओतावियो क्वात्रोकी को मनमोहन सरकार की सीबीआई ने भारत से चले जाने दिया और उसके जब्त बैंक खाते भी खुलवा दिये, वह भी इटली का ही है।
फिसड्डी कौन?
इन तमाम तथ्यों के बाद भी क्या बताने की जरूरत रह जाती है कि जिन मनमोहन सिंह को 'टाइम' पत्रिका ने 'कम सफल' प्रधानमंत्री बताया है, वह असल में तो एक विफल प्रधानमंत्री हैं। आम बोलचाल की भाषा में कहें तो फिसड्डी हैं, पर यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि वह तो बस नाम के प्रधानमंत्री हैं, काम करने वाली सत्ता के सूत्र प्रधानमंत्री निवास यानी 7, आर.सी.आर. (रेसकोर्स रोड) में नहीं, 10, जनपथ यानी सोनिया गांधी के हाथ में हैं। इसीलिए उन्हें 'सुपर प्रधानमंत्री' भी कहा जाता है। फिर भी उन्हें संविधानेत्तर सत्ता न कहा जाये, इसलिए उनकी अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बना दी गयी है।
कहने का अर्थ यह है कि यह नाकामी अकेले मनमोहन की नहीं है। यह नाकामी सोनिया गांधी और उस सत्ता ढांचे की है , जो उनके दरबारियों ने उनको संविधानेत्तर सत्ता बनाये रखने के लिए खड़ा किया है। अब तो इस ढांचे में कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो गयी है। इसलिए पूरा सच यह है कि मनमोहन-सोनिया-राहुल की तिकड़ी ही सही मायने में फिसड्डी साबित हो रही है, लेकिन ज्यादा चिंता की बात यह है कि ये पूरे देश को ही फिसड्डी बना रहे हैं।
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