धारा 370 को 'स्थाई' और 'विशेष' बनाने से बढ़ेगाराष्ट्र-विरोधी मजहबी जुनून
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राष्ट्र–विरोधी मजहबी जुनून
नरेन्द्र सहगल
कांग्रेसी नेताओं और कांग्रेसनीत सरकार के इशारे पर एक विशेष समुदाय का तुष्टीकरण करने के लिए जम्मू-कश्मीर में पहुंचे वार्ताकारों ने धारा 370 को विशेष बनाने का सुझाव देकर पाकिस्तान-परस्त अलगाववादियों के घरों में घी के दिए जला दिए हैं। वार्ताकारों द्वारा तैयार की गई यह रपट देश विरोधी तत्वों को दिए गए देशभक्ति के प्रमाण पत्र के सिवाय और कुछ भी नहीं है। इसके कार्यान्वयन से देश टूटेगा और राष्ट्रीय एकता खंडित होगी।
इसे देश और देशवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पिछले छह दशकों के कड़वे अनुभवों के बावजूद अधिकांश राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों को अभी तक यही समझ में नहीं आया कि एक विशेष मजहबी समूह के बहुमत के तुष्टीकरण के लिए जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के तहत दिया गया अलग प्रांतीय संविधान ही वास्तव में कश्मीर की वर्तमान समस्या की जड़ है। संविधान की इसी अस्थाई धारा 370 को अब विशेष धारा बनाकर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता देने की सिफारिश की गई है। क्या ये भारत के संविधान और भारत की जनता द्वारा मान्यता प्राप्त चार सिद्धांतों/राजनीतिक व्यवस्थाओं-पंथनिरपेक्षता, एक राष्ट्रीयता, संघीय ढांचा, लोकतंत्र का उल्लंघन और अपमान नहीं है?
'मुस्लिम राष्ट्र' की प्रेरणा
यह एक सच्चाई है कि भारतीय संविधान की धारा 370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान ने कश्मीर घाटी के अधिकांश मुस्लिम युवकों को भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से अलग कर दिया है। इसी धारा का सहारा लेकर कश्मीर में सक्रिय कट्टरवादी शक्तियों ने कश्मीर घाटी का लगभग पूर्ण इस्लामीकरण कर दिया है। प्रादेशिक संविधान की आड़ लेकर जम्मू-कश्मीर के सभी कट्टरवादी दल और कश्मीर केन्द्रित सरकारें भारत सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय महत्व के प्रकल्पों को स्वीकार नहीं करते।
इस अलगाववादी राजनीतिक व्यवस्था के साथ अपना गहरा लगाव प्रदर्शित करने वाले वार्ताकारों ने दरअसल कश्मीर में व्याप्त पाकिस्तान- प्रेरित अलगाववाद का ही स्वागत किया है। वास्तव में इस धारा को ठीक से समझा नहीं गया और इसका गलत इस्तेमाल किया गया है। इस धारा का उपयोग भारत के संविधान को जम्मू-कश्मीर में लागू करने के लिए होना चाहिए था, परंतु इस धारा की अलगाववादी परिभाषा करने वाले कट्टरवादियों की वजह से यह संक्रमणकालीन, अस्थाई और एक विशेष उपबंध के रूप में जोड़ी गई धारा 370 कश्मीर घाटी को एक स्वतंत्र 'मुस्लिम राष्ट्र' बनने का आधार प्रदान कर रही है।
अलगाववाद को मान्यता
इस अलगाववादी धारा 370 को स्थाई और विशेष बनाने की सिफारिश करके, जम्मू-कश्मीर को भारत के अन्य प्रांतों की पंक्ति से उखाड़ने वाले वार्ताकारों ने देश की इस संवैधानिक घोषणा का उपहास उड़ाया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। भिन्नता और विशेषता ही इस प्रदेश के उस मजहबी समुदाय को राष्ट्र की मुख्य धारा से तोड़ने का काम करती है जिसकी मिजाजपुर्सी इस रपट में की गई है।
कश्मीर केन्द्रित कट्टरवादी नेता, पाकिस्तान के शासक और संसार के अनेक राजनीतिक बुद्धिजीवी इस धारा को आधार बनाकर भारत के आगे प्रश्नों की बौछार लगा देते हैं। लगता है हमारे इन तीनों वार्ताकारों में से एक को भी कश्मीर में पल रहा वह देशद्रोह दिखाई नहीं दिया जिसकी नींव धारा 370 ने ही मजबूत की है।
देशघाती मिसाल
जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर ताजा-ताजा बने विशेषज्ञ वार्ताकारों को इन प्रश्नों के उत्तर अपनी रपट में देने चाहिए थे। भारत की अन्य रियासतों/प्रदेशों की तरह जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय यदि पूर्ण है तो यह खास किस्म का तुष्टीकरण क्यों? क्या इसलिए कि वहां एक विशेष समुदाय का बाहुल्य है? यदि कश्मीर घाटी में हिन्दुओं का बहुमत होता तो क्या फिर भी ये धारा लगती? यह अस्थाई धारा कब तक स्थाई बनी रहेगी? क्या यह धारा संसार को हमारी राजनीतिक ईमानदारी और हमारे संवैधानिक दस्तावेजों पर शक करने का अवसर नहीं देती?
सारा संसार जानता है कि 26 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने इस रियासत का भारत संघ में पूर्ण विलय करने के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। जिस प्रकार देश की अन्य रियासतों को भारत संघ में विलीन किया गया ठीक उसी संवैधानिक प्रक्रिया के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर का विलय भी भारत में कर दिया गया था। परंतु हमारे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने अपने चहेतों की तुष्टीकरण नीति के दबाव में आकर भारतीय संविधान में इस धारा को जोड़कर जम्मू-कश्मीर की सभी वर्तमान समस्याओं का शिलान्यास कर दिया। जब फरवरी 1956 में जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने भी इस प्रदेश के भारत में पूर्ण विलय को मान्यता दे दी तो भी इस धारा को हटाया नहीं गया। वोट बैंक का स्वार्थ और मजहब आधारित तुष्टीरकण की इससे बड़ी देशघातक मिसाल और क्या होगी?
धारा 370 के दुष्परिणाम
शायद वार्ताकारों ने भी धारा 370 को विशेष बनाने की सिफारिश करके यह स्वीकार कर लिया है कि इस धारा ने अभी तक जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा नहीं दिया था। वास्तव में जम्मू-कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी तत्वों ने धारा 370 का गलत अर्थ निकालकर इसको जम्मू कश्मीर के लिए विशेष दर्जा मान लिया और इसके दुरुपयोग में लग गए।
इस धारा के अनेक दुष्परिणामों का गहराई से अध्ययन करने पर एक ऐसा अन्याय समझ में आता है जो जम्मू-कश्मीर की जनता पर किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर में रहने वाले दलित समाज, हरिजन और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों को उन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है जो देश के अन्य हिस्सों में इन लोगों को मिल रहे हैं। सारे देश में भली-भांति चल रही पंचायती राज व्यवस्था से जम्मू-कश्मीर को वंचित किया जा रहा है।
वास्तव में धारा 370 के खतरनाक अर्थों के दुष्परिणामों को हमारी सरकारों, विशेषतया कांग्रेसी सरकारों ने जानबूझकर देशवासियों से इसलिए छिपाए रखा है क्योंकि इससे उनकी थोथी पंथनिरपेक्षता की कलई खुलती है। इस धारा के भयानक परिणामों के उजागर होने से अनेक राजनीतिक नेताओं विशेषतया कांग्रेसी सत्ताधारियों के बुने हुए मुस्लिम-परस्त ताने-बाने में दरारें पड़ती हैं।
पृथकतावादी धारा
वार्ताकारों ने धारा 370 के औचित्य और इसके कानूनी पक्ष पर कुछ भी नहीं कहा है। धारा 370 अर्थात् कट्टरवादियों और अलगाववादियों का तुष्टीकरण। वार्ताकारों से पूछा जाना चाहिए कि देशद्रोहियों का तुष्टीकरण क्या देशद्रोह नहीं होता? जिन लोगों के तुष्टीकरण के लिए भारत के संविधान में यह धारा जोड़ी गई थी, उन लोगों के भारत के खिलाफ खुली बगावत पर उतर आने और भारतीय सेना के साथ छापामार युद्ध शुरू कर देने के बाद इसका कोई अर्थ ही समझ में नहीं आता।
अगर इन तीनों सरकारी वार्ताकारों को इस अलगाववादी और जम्मू-कश्मीर की जनता के जायज हकों को खत्म करने वाली धारा 370 का औचित्य समझ में आता है तो नि:संकोच यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन वार्ताकारों को जम्मू-कश्मीर के इतिहास, संस्कृति, नागरिकों की जरूरतें और इस सीमावर्ती प्रदेश में पाकिस्तान के हिंसक हस्तक्षेप की कोई समझ नहीं है।
नेहरू–शेख दोस्ती का नतीजा
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की नजर में उन दिनों जम्मू-कश्मीर के वजीर-ए-आजम शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ही इस रियासत के एकमात्र रक्षक और प्रखर देशभक्त थे। नेहरू के आशीर्वाद, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के सहारे और पाकिस्तान की पूरी हमदर्दी पाकर भी शेख की तसल्ली नहीं हुई। वह जम्मू-कश्मीर के लिए कोई ऐसी राजनीतिक व्यवस्था चाहते थे, जिससे उनकी 'मुक्कमल आजादी' और कश्मीर के पूर्ण इस्लामीकरण की तमन्ना पूरी हो जाए। शेख ने नेहरू को अपने झांसे में डालकर उन्हें अपने गुप्त मंसूबों के शिकंजे में जकड़ लिया। वास्तव में धारा 370 नेहरू और शेख की दोस्ती का ही देशघातक नतीजा है।
धारा 370 ने शेख अब्दुल्ला के अलगाववादी विचारों और अराष्ट्रीय कृत्यों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की और जम्मू-कश्मीर को सारे देश से भिन्न बनाकर इस ऐतिहासिक सच्चाई पर मोहर लगा दी कि कोई भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र भारत के साथ जुड़कर नहीं रह सकता। अब इस सरकारी वार्ताकारों ने इसी पृथकतावाद को विशेष दर्जा से विभूषित करने की सिफारिश कर दी है। यह कितनी अजीब बात है एक ओर भारत सरकार अपने को संसार का सबसे बड़ा पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित करती है, और दूसरी ओर इसी राष्ट्र के अभिन्न भाग जम्मू-कश्मीर में एक समुदाय के बहुमत के आधार पर धारा 370 के तहत दिए गए अलग संविधान को मान्यता दे रही है।
अखंडता पर खतरा
संक्षेप में जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान के असंख्य राष्ट्रघातक परिणाम सामने आए हैं, जिनसे कश्मीर घाटी में अलगाववाद बढ़ा है। भारत सरकार जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित कोई भी कायदा-कानून प्रदेश की सरकार अथवा विधानसभा की अनुमति के बिना वहां लागू नहीं कर सकती। भारतीय संविधान में सभी देशवासियों के लिए एक समान नागरिकता का प्रावधान है, परंतु जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त है, प्रदेश की और भारत की। जम्मू-कश्मीर का नागरिक शेष भारत का भी नागरिक है, परंतु शेष भारत का नागरिक (राष्ट्रपति सहित) जम्मू कश्मीर का नागरिक अर्थात 'स्टेट सब्जैक्ट' नहीं हो सकता। भारत के नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में संपत्ति खरीदने और वोट देने जैसे मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं। अलग प्रादेशिक संविधान के कारण वहां राजनीतिक गुटबाजी को प्रोत्साहन मिल रहा है।
फलस्वरूप जम्मू-कश्मीर में कोई भी राष्ट्रवादी सरकार बन नहीं सकती और बन जाए तो टिक नहीं सकती। धारा 370 के तहत मिली राजनीतिक सुविधाओं के आधार पर अलगाववादी अराष्ट्रीय तत्वों का दबदबा सदैव सरकार पर बना रहता है। जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल यहां का 'स्टेट सब्जेक्ट' न होने के कारण बाहर का व्यक्ति कहलाता है। अलगाववादी तत्व राज्यपाल को भारत का एजेंट कहकर प्रचारित करते हैं। जम्मू-कश्मीर का भिन्न संविधान द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को न केवल पुनर्जीवित करता है बल्कि उसे भविष्य में सुरक्षित रखने का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
कश्मीर समस्या का समाधान खोजने वाले हमारे इन तथाकथित प्रगतिशील वार्ताकारों ने धारा 370 के प्राय: सभी दुष्परिणामों को कश्मीरियों (मुस्लिम समुदाय) के लिए लाभकारी मानकर इसे स्थाई और विशेष बनाने की जो देशघातक सिफारिश की है उससे भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर मंडरा रहे खतरे के बादल और भी ज्यादा गहरे हो जाएंगे।
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