संघर्ष तथा विद्रोह की प्रतिमूर्ति
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इतिहास दृष्टि
आंग सान सू ची
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
2 अप्रैल, 2012 (सोमवार) का दिन विश्व के प्रजातांत्रिक इतिहास में आशा तथा विश्वास के दिवस में दर्ज हो गया है, क्योंकि इसी दिन भारत के पूर्व में स्थित म्यांमार (पहले ब्रह्म देश या बर्मा) में सतत् संघर्ष की प्रतीक आंग सान सू ची और उनके समर्थकों ने म्यांमार की संसद के 44 रिक्त स्थानों में से 43 स्थानों पर भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। 664 सदस्यों की इस दो सदनों वाली संसद में यह जीत भले ही प्रतीकात्मक हो, परन्तु नई आशा की एक किरण अवश्य है। स्वाभाविक रूप से भारत सहित विश्व के सभी प्रमुख लोकतांत्रिक देशों ने नोबुल पुरस्कार विजेता सू ची को भावपूर्ण बधाईयां दीं। मुख्यत: दो देश अपवाद रहे, रूस व चीन। ये दोनों देश अपने देश में मानवाधिकारों के रक्षक तथा विश्व शांति पुरस्कार अथवा नोबुल पुरस्कार विजेताओं का अपमान करते रहे हैं। उल्लेखनीय हैं कि 1970 में रूस ने महान इतिहासकार अलेक्जेडर सोल्जेनित्सिन को नोबुल पुरस्कार लेने नहीं जाने दिया था, और बाद में एंडी सरबारोव बॉ को विश्वशांति पुरस्कार लेने ओस्लो नहीं जाने दिया था। इधर चीन ने 2010 में महान विचारक लियू जियाबाओ को विश्व शांति पुरस्कार दिए जाने की घोषणा के साथ ही उन्हें अपराधी घोषित कर जेल में डाल दिया था। अत: ऐसी अधिनायकवादी शक्तियों से किसी शुभकामना की उम्मीद करना व्यर्थ ही होगा।
म्यांमार का इतिहास
म्यांमार 1800 से 1947 तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का अंग रहा। 1930 से 1940 के दशक में यहां के राष्ट्रीय नेता और सू ची के पिता आंग सान ने अंग्रेजी शासन से मुक्ति तथा प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष किया, परन्तु विरोधी गुट के उनकी 19 जुलाई, 1947 को हत्या कर दी। फिर भी उनके निरन्तर संघर्षों के परिणामस्वरूप 4 जनवरी, 1948 को म्यांमार स्वतंत्र हुआ और प्रजातंत्र की स्थापना हुई। 1962 में यहां के सेनापति जी. विन ने तत्कालीन प्रजातांत्रिक संविधान को स्थगित कर सैनिक शासन की स्थापना की। परिणामस्वरूप व्यक्तिगत स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई तथा अर्थ व्यवस्था पर केन्द्रीय नियंत्रण हो गया। आर्थिक अव्यवस्था से नशीले पदार्थों की चोर बाजारी तथा तस्करी तीव्रता से बढ़ी। 1988 में इसके विरुद्ध प्रजातांत्रिक आंदोलन हुआ, पर वह भी सैनिक गुट द्वारा क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया।
सू ची का बाल्यकाल
19 जून, 1945 को यंगून (पहले रंगून) में जन्मी आंग सान सू ची तीन परिवारों के नामों की संयुक्त अभिव्यक्ति हैं। इनके पिता और स्वतंत्रता सेनानी का नाम 'आंग सान' नानी का नाम 'सू' तथा माता का नाम 'ची' था। इनके पिता की हत्या तभी हो गई थी जब वे केवल दो वर्ष की थीं। अत: इनका पालन–पोषण इनकी माता ने किया। इनकी माता अत्यंत प्रतिष्ठित तथा सेवा कार्यों में अग्रणी महिला थीं। इनके एक भाई की अल्पायु में ही झील में डूबकर मृत्यू हो गई थी। दूसरा भाई केलिफोर्निया चला गया था तथा उसने अमरीका की नागरिकता प्राप्त कर ली है।
भारतीयता का प्रभाव
1960 में सू ची अपनी माता के साथ भारत आईं। इनकी माता भारत में म्यांमार की राजदूत के रूप में आई थीं। सू ची ने लेडी श्रीराम कालेज में प्रवेश लिया तथा बी.ए. पास किया। बाद में 1978 में विवाह होने के बाद वे अपने पति माइकेल अरीस के साथ भी भारत के निकट भूटान में रहीं, जहां इनके पति तिब्बती संस्कृति के विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत थे। कालान्तर में लंदन विश्वविद्यालय से पी.एच.डी करने के पश्चात वे 1990 में दो वर्ष भारत के प्रतिष्ठित इन्सटीट्यूट आफ एडवान्स स्टडीज (शिमला) में शोधार्थी के रूप में रही थीं। संक्षेप में, सू ची का भारत से गहरा सम्बंध स्थापित हुआ। 1992 में इन्हें जवाहर लाल अवार्ड फार इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिग भी दिया गया।
कठोर संघर्षमय राजनीतिक जीवन
आंग सान सू ची को देश में प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष की प्रकृति विरासत में मिली। 1988 से वे देश की राजनीति में प्रत्यक्ष सहभागी हो गईं थी। सू ची ने देश में प्रजातंत्र लाने के लिए हुए आन्दोलन में भाग लिया। 8 अगस्त, 1988 को सैन्य कार्रवाई द्वारा जन आन्दोलन हिंसात्मक ढंग से कुचल दिया गया। फिर सू ची ने 26 अगस्त को हजारों लोगों के सामने प्रजातांत्रिक सरकार की स्थापना के लिए ऐतिहासिक भाषण दिया। इतिहास में यह आंदोलन '8888 का आन्दोलन' के नाम से प्रसिद्ध है। सू ची ने प्रसिद्ध संस्था 'नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी' की स्थापना की तथा इसकी वे महासचिव चुनी गईं। 1990 के समान्य चुनाव में उनकी पार्टी ने 59 प्रतिशत मत तथा 80 प्रतिशत सीटें जीतीं, परन्तु सैनिक शासन तंत्र ने इसे स्वीकार नहीं किया।
इसी बीच 1989 में आंग सान सू ची को पहली बार अपने ही घर में कैद (नजरबंद) कर दिया गया। उनके घर को ही जेल बना दिया गया। मिलने–जुलने वालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया गया। दैनिक जीवन की आवश्यकताओं पर कठोर नियंत्रण लगा दिया गया। इसके बाद के 21 वर्षों में 15 वर्ष उन्हें उनके ही घर में कैदी के रूप में रहना पड़ा। समय–समय पर उनको मुक्त करने के लिए जन आंदोलन तथा बौद्ध भिक्षुओं के प्रदर्शन होते रहे। फिर 2008 में हुए जनमत संग्रह के द्वारा 2010 में चुनाव कराने की घोषणा की गई। ब्रिटिश प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन ने सू ची की नजरबंदी अवधि बढ़ाने को 'एक राजनीतिक षड्यंत्र' का नाम भी दिया। अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा ने भी उन्हें तुरन्त छोड़ने का आग्रह किया। पर यहां यह कहना गलत न होगा कि इतने लम्बे गृह कारावास के बाद भी भारत सरकार ने उनके प्रति सहानुभूति में एक भी शब्द नहीं कहा।
मौलिक चिंतक तथा लेखक
आंग सान सू ची एक संघर्षकर्ता ही नहीं एक मौलिक चिंतक, विचारक तथा ओजस्वी वक्ता भी हैं। 1984 से ही उन्होंने लेख लिखने प्रारम्भ कर दिए थे। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक 'फ्रीडम फ्राम फीयर' है। उन्होंने अपने प्रभावी भाषणों तथा लेखों से देश में जन जागरण किया। उनके छोटे–छोटे वाक्य किसी भी देश के नागरिक को महान सन्देश देते हैं। एक स्थान पर उन्होंने लिखा 'शक्ति व्यक्ति को भ्रष्ट नहीं बनाती बल्कि शक्ति खोने का डर उसे भ्रष्ट बनाता है।' एक स्थान पर उन्होंने लिखा, 'कैदी जीवन काल में मेरे सामने सर्वप्रथम देश रहा। मैं जानती हूं कि मेरे देशवासियों में तथा देश में कर्तव्य का बोध है। जिसके बारे में मैं सर्वदा से जागरूक हूं।' एक स्थान पर उन्होंने लोगों से पूछा 'क्या तुम वह सब कुछ कर रहे हो जो जानते हो, यदि इसका उत्तर 'हां' है तब तुम्हें न आशारहित होना चाहिए और न ही दु:खी।' उन्होंने अपने भाषणों, लेखों से गरीब और अनपढ़ म्यांमारवासियों में शांतिपूर्ण संघर्ष से प्रजातंत्र की भावनाओं को उभारने में सफलता प्राप्त की है।
सतत् संघर्ष की राह पर
नजरबंदी से रिहाई और संसद के लिए चुने जाने के बावजूद आंग–सान सू ची का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है, बल्कि संसद की देहरी पर चढ़ने से पूर्व ही पुन: प्रारम्भ हो गया, क्योंकि संसद की शपथ लेते समय उन्होंने सैनिक संविधान में प्रचलित 'वफादारीपूर्वक' कहने की बजाय 'सम्मानपूर्वक' जोड़ने का आग्रह किया। कुछ भी हो यह म्यांमार के एक नवयुग का आगमन कहा जा सकता है। म्यांमार के एक राजनीतिक विश्लेषक का कहना है कि आंग सान सू ची म्यांमार के वायुमण्डल को बदल सकती हैं तथा अधिक पारदर्शिता ला सकती हैं। अमरीका की विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन की उस बात में पर्याप्त वजन है जब आंग सान सू ची की चुनाव में विजय पर भाव व्यक्त करते हुए वे कहती हैं, 'उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि किसी भी अत्यधिक दमनकारी राज्य में सुधार हो सकता है तथा किसी भी अत्यधिक बन्द समाज के द्वारा खुल सकते हैं।' यह तो आने वाला भविष्य ही बता पाएगा कि सू ची कितनी सफल होंगी परन्तु इतना अवश्य है कि वह म्यांमार में भारत के महात्मा गांधी तथा दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मण्डेला के समान सम्मान पा रही हैं, जिन पर भगवान बुद्ध की अनुकम्पा तथा आशीर्वाद भी है।
66 वर्षीय विपक्षी नेता के तौर पर आंग सान सू ची ने 2 मई, 2012 को म्यांमार की संसद में सदस्य के रूप में शपथ ली। इसे म्यांमार में एक नए राजनीतिक युग की शुरुआत माना जा रहा है। यद्यपि राष्ट्रपति थीन सीन की सुधारवादी सरकार और सू ची की पार्टी नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी (एन.एल.डी.) के बीच सम्बंध को काफी जोखिम भरा माना जा रहा है। म्यांमार सरकार ने सांसद बनने के बाद आंग सान सू ची की बैंकाक तथा थाइलैण्ड की पहली विदेश यात्रा को बड़ी सतर्कता से देखा। उनकी थाइलैण्ड यात्रा की राष्ट्रपति थीन सीन के एक सलाहकार ने कटु आलोचना की। उनकी यूरोप यात्रा में एक और विवाद पैदा हो गया जब सू ची ने अपने देश का नाम म्यांमार की जगह बर्मा बोला। दरअसल 1989 तक उस देश का नाम बर्मा ही था, पर सैनिक शासन ने बिना जनता की राय जाने देश का नाम बदलकर म्यांमार रख दिया। पर सैनिक शासन के विरोधी और लोकतंत्र के समर्थक बर्मा ही कहते रहे। देश की सरकार और चुनाव आयोग ने सू ची द्वारा विदेश यात्रा के दौरान देश का नाम बर्मा बोले जाने पर आपत्ति जताई तो सू ची ने कहा कि, 'यह मेरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न है, मैं लोकतंत्र में विश्वास करती हूं और अपने देश का नाम बर्मा या म्यांमार– जो चाहे इस्तेमाल करूं।' यानी बर्मा में लोकतंत्र का संघर्ष जारी है और उनकी नेत्री आंग सान सू ची उस संघर्ष को अंतिम परिणाम तक ले जाने के लिए कृत संकल्पित हैं।
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