जिदंगी के घूंट कड़वे-राकेश भ्रमर
|
साहित्यिकी
राकेश भ्रमर
आदमी नकली मुखौटों पर सदा जीता रहा।
जिन्दगी के घूंट कड़वे वो सदा पीता रहा।।
वह परिन्दों की तरह उड़ने की ख्वाहिश में गिरा,
दूर अपने हमदमों से वो सदा चलता रहा।।
राह में कांटे बिछाकर फूल की चाहत लिए,
आदमी पतझड़ के साए में सदा चलता रहा।
लुट गए जो इन बहारों में, फसाने क्या कहें,
कारवां सहरा में भी लुटकर सदा बढ़ता रहा।
सांप उसके रहनुमां थे, वह जहर भी पी गया।
आदमी क्यों आदमी से फिर सदा बचता रहा।
टिप्पणियाँ