अ पराध खिलेश के 100 दिनबलात्कार, हत्या, लूट, दंगा, दबंगई का बोलबालान कायदा-न कानून, अपराध का चढ़ा जुनून100 दिन की बानगी
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अ पराध खिलेश के 100 दिनबलात्कार, हत्या, लूट, दंगा, दबंगई का बोलबालान कायदा-न कानून, अपराध का चढ़ा जुनून100 दिन की बानगी

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Jun 30, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Jun 2012 14:38:24

इटावा के एक मंदिर में झंडा चढ़ाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने चलाई गोली, तीन श्रद्धालुओं की मौत

इटावा में ही एक ही परिवार के छह लोगों की हत्या

कोसीकलां में दंगा, चार मरे

मुरादाबाद में पूर्व विधायक की पौत्री के साथ सामूहिक दुराचार, लड़की ने आत्महत्या की

बदायूं जिले की एक पुलिस चौकी में महिला के साथ सामूहिक बलात्कार

आगरा में पुलिस की निर्मम पिटाई से कारोबारी की मौत

 

किसी भी सरकार के लिए सबसे बड़ी कसौटी होती है कानून–व्यवस्था। इस मोर्चे पर अखिलेश सरकार पूरी तरह विफल रही। खुद सरकार के आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं। 16 मार्च से 31 मई 2012 के बीच ढाई महीनों में इस सरकार के कार्यकाल में जितने अपराध हुए, उतने तो मायावती राज में भी नहीं हुए थे, हालांकि मायावती के शासन में भी लोग अपराधियों के आतंक के चलते कराह रहे थे।

अपराध    2010   2011   2012

                                    (अखिलेश राज

                                    के ढाई माह)

बलात्कार   228   384    472

डकैती     40      52     70

अपहरण   1407   1803   2201

लूट       483    483    690

हत्या      888   1014    1149

फिरौती      15     11      16

दंगा     771    1041    1236

मुलायम पुत्र अखिलेश यादव सरकार के राज में उत्तर प्रदेश अराजकता और अपराध के भंवर में धंसता दिख रहा है। वायदा तो यह किया था कि वह मायावती के कुशासन से मुक्ति दिलाकर उत्तर प्रदेश को एक अच्छी सरकार देंगे, जहां अपराधियों का नाममात्र का खौफ नहीं होगा, शांति बनी रहेगी, लोग भयमुक्त होकर रह सकेंगे, विकास की गंगा बहेगी और भ्रष्टाचारमुक्त शासन व्यवस्था कायम होगी। लेकिन यहां तो हालात जस के तस हैं। मायावती शासन में भी तो थानों में सामूहिक दुराचार की वारदातें, अपहरण और हत्या की घटनाएं होती थीं। तभी तो लोगों ने सपा को वोट देकर बसपा को सत्ता से बेदखल कर दिया। लेकिन अखिलेश सरकार ने जनता को कम से कम शुरुआती दौर में तो निराश ही किया। सरकार के 100 दिन के कामकाज को लेकर जनता में भारी आक्रोश है। 15 मार्च 2012 को सरकार ने अपना कामकाज शुरू किया था। इस 22 जून को 100 दिन पूरे हो गए। हालांकि 100 दिन किसी भी सरकार के कामकाज के आकलन के लिए पर्याप्त नहीं हैं, फिर भी एक दिशा तो दिखनी ही चाहिए।

उ.प्र. में दिशाहीनता जैसे हालात हैं। मुख्यमंत्री तो अखिलेश यादव हैं लेकिन सरकार की कार्यशैली मुलायम सिंह यादव के शासनकाल जैसी है, तभी तो अनेक जघन्य अपराध हो रहे हैं। वोट बैंक को ध्यान में रखकर फैसले किए जा रहे हैं। भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी के खिलाफ वोट मांगकर जीती सपा के इस शासनकाल में इन पर रोक नहीं लग पा रही है। मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने घोषणा की थी कि अपराधों पर अंकुश लगेगा, लेकिन नहीं लग पाया। बानगी के तौर पर कुछ उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। सबसे ताजा उदाहरण- दोहरे सीएमओ हत्याकांड और एक डिप्टी सीएमओ की जेल में रहस्यमय मौत से पर्दा नहीं उठ पा रहा है। इस मामले में 22 डाक्टरों को निलंबित तो किया गया, लेकिन उन पर अभियोजन की कार्रवाई की अनुमति सरकार नहीं दे रही है। कारण, कुछ डाक्टरों की सरकारी स्तर पर ऊंची पहुंच है। भ्रष्टाचार पर अंकुश की बात भी बेमानी साबित हो रही है। सरकार ने औने-पौने दामों में बेच दी गईं 12 चीनी मिलों की जांच का मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया है। सत्तारूढ़ दल के ही एक विधायक ने विधानसभा में सरकार से इस बाबत पूछा तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का लिखित जवाब था कि उनकी जांच नहीं कराई जाएगी।

कहा गया था कि पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज में हुए भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयोग बनेगा, लेकिन यहां तो मायावती के बंगले पर खर्च हुए 85 करोड़ रुपयों की बंदरबाट की चल रही जांच भी रोक दी गई। मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव ने कहा था कि 'बहुजन समाज के स्वाभिमान' के नाम पर बने स्मारकों में खाली पड़ी जमीनों पर कालेज और अस्पताल बनवाए जाएंगे। अब उस पर भी सरकार ने मौन साध लिया है। तीन- कहा गया था कि भ्रष्टाचार में फंसे मंत्रियों की जांच बड़ी एजेंसी से कराई जाएगी। यहां तो लोकायुक्त ने दो-दो मंत्रियों के भ्रष्टाचार की जांच सीबीआई से कराने की संस्तुति कर दी है, लेकिन सरकार है कि कुछ कर ही नहीं रही है। उसे तो केवल केंद्र सरकार से सिफारिश करने की जरूरत है। लोकायुक्त ने मायावती सरकार में मंत्री रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी और अयोध्या पाल द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच के लिए लिखा था। एक महीने से अधिक बीत गया, लेकिन फाइलों पर कोई निर्णय नहीं हुआ। माना जा रहा है कि दाल में काला है। चार- सरकार ने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर कई फैसले जरूर किए। उसने प्रोन्नति में आरक्षण का मायावती का फैसला खत्म कर दिया। मंत्रिमण्डल के इस निर्णय को विधानसभा से पारित भी करा लिया, लेकिन विधान परिषद में बसपा का बहुमत होने के कारण वह पारित नहीं हो सका। अब उसे प्रवर समिति को सौंप दिया गया है। उधर, सरकार के मुस्लिम एजेंडे के अनुसार 10वीं और 12वीं कक्षा पास मुस्लिम लड़कियों को 30 हजार रु. की आर्थिक मदद को अमलीजामा पहनाने पर बहुत तेजी से काम हो रहा है। कब्रिस्तानों के चारों ओर सरकारी धन से चारदीवारी बनवाने का फैसला किया गया। बुनकरों (इसमें अधिसंख्य मुस्लिम हैं) को राहत देने के लिए बकाया बिजली बिलों के एकमुश्त भुगतान की धनराशि आवंटित कर दी गई। आतंक फैलाने के आरोप में बंद मुस्लिम युवकों को रिहा करने का नीतिगत फैसला किया गया। कुल मिलाकर अ से अखिलेश (या अ से अपराध) सरकार अपराधों पर अंकुश लगाने की बजाय शुरुआती सौ दिन में वोट बैंक को तुष्ट करने की ही कवायद करती दिखी है।

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