स्त्री-रत्न
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स्त्री-रत्न

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Jun 23, 2012, 12:00 am IST
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मुझे अपना लो मां!-श्यामा सोलंकी

दिंनाक: 23 Jun 2012 15:43:24

अधिकतर लोग देवी शक्ति को ही ज्यादा मानते हैं। इसलिए नवरात्रि में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है, अलग-अलग मन्दिरों में अलग-अलग नाम की देवी होती हैं। बड़े-बड़े धनवानों, रईसों और अधिकारियों द्वारा यज्ञ और हवन किये जाते हैं। यहां तक कि सम्पूर्ण प्रशासन भी देवी भक्त नजर आता है। देवी, शक्ति का दूसरा नाम है और मां ममता की मूरत है। अपने पुत्रों पर रहम करेगी ही।

और जब यही देवी मां पुत्री बनकर उसके घर में जन्म लेती है तो वह खुश नहीं होता है। जिसे अम्बा, दुर्गा, लक्ष्मी, उमा और सरस्वती के रूप में पूजता है उसी के नाम, रूप को वह स्वीकार नहीं करता है। घर में उसे वह सम्मान नहीं मिलता है जो पुत्र को दिया जाता है। कभी-कभी तो सभी हदें पार कर ली जाती हैं, जब भ्रूण की जांच करवाई जाती है, लड़की होने पर उसे नष्ट कर दिया जाता है। मां खुद नारी होकर भी कुछ नहीं कर सकती है और नदी नाले में पड़ी वह अधपकी कन्या इतना ही कह पाती है-

मां मुझे आने से पहले क्यों रोक दिया।

दुनिया वालों का कहना क्यों मान लिया।।

मानकर इनका कहना तू सब कुछ भूल गई।

और बेटे की चाहत में तू भी बहक गई।।

क्या नारी बहक सकती है? नहीं! और मां तो कभी नहीं। इस पुरुष प्रधान समाज में नारी आज भी दबाव में है। जिससे नारी ही नारी का मान रखने में असमर्थ सी हो जाती है। पुत्री के दिल में पिता के लिए बहुत सम्मान होता है। उसके जन्म के समय पिता ने उसके बारे में क्या सोचा यह वह नहीं जानती है और अगर जान भी लेती है तो वह कर ही क्या सकती है। आज छोटी उम्र में बच्चियां बहक रही हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि घर में उनको वह प्यार, वह सम्मान नहीं मिलता है जो उसके भाइयों को दिया जाता है। नारी आज भी उपेक्षा की पात्र बनी हुई है।

आखिर समाज कब बेटियों को समझेगा? कब उन्हें लड़कों के समान अधिकार मिलेंगे? घर का काम करके भी बेटी पढ़ने में आगे निकल जाती है, फिर भी खाने-पीने से लेकर ओढ़ने पहनने तक उनमें फर्क किया जाता है। मां-बाप को बेटों से ज्यादा उम्मीदें लगी रहती हैं पर बेटों के पास उनके लिए वक्त नहीं है। झूठी उम्मीदों के सहारे जीते हैं, जीते तो क्या हैं बस धीरे-धीरे मरते हैं, तब बेटी ही उनका सहारा बनती है। सच कहा है-

जब बेटा तेरी नहीं सुनेगा कोई फरियाद।

तब मां तुझे मेरी बहुत आयेगी याद।।

बेटी एक नहीं दो-दो कुल की लाज बचाती है। जब शादी करके जाती है तब वहां अपने मां-बाप की इज्जत बनाये रखती है। यह मत सोचना कि वहां वह आराम में है। वहां भी उसे जुल्मों का सामना करना पड़ता है। कभी लेन-देन में तो कभी मां-बाप के घर आने के लिए मनाही की जाती है, फिर भी अगर वह मां-बाप की बीमारी में आना चाहे तो कितने दिन रहेगी और सबके लिए क्या-क्या लेकर आयेगी ये वही लोग तय करके बेटी को भेजेंगे। बेटी दो घूंट आंसू पीकर रही जाती है, फिर भी मां-बाप से मिलने की तड़प उसे खींच लाती है और मां-बाप की सेवा में अपना तन-मन लगा देती है।

मैं बेटी हूं मुझे नाज है अपने आप पर।

ये बेटे आजकल के भारी हैं मां–बाप पर।।

थोड़े दिन पहले खुदाई में बच्चियों के कंकाल मिले थे। पुरानी बात कहकर नकार दिया गया। परन्तु आज बच्चियों को सिगरेट से दागना और तड़पा-तड़पा कर मारना और भी ज्यादा खतरनाक व शर्मनाक है। इतिहास गवाह है रानी लक्ष्मीबाई अन्तिम समय में अकेली थीं। उनके साथी सारे पीछे रह गये थे, क्योंकि उनके समान हिम्मत और साहस किसी में नहीं था।

वह पन्ना थी जिसने स्वामी के पुत्र की रक्षा हेतु अपने पुत्र का बलिदान कर दिया। बेटी आज भी दुर्गा है, काली है। असुरों का नाश करने वाली है। इसे अपनाओ ये नाम व मान बढ़ाने वाली है। नौ महीने कोख में रखने की शक्ति मां के अलावा और किसी में भी नहीं है।

वीरांगना दुर्गावती

रणगंगा में अवगाहन करने वाली रानी

रानी दुर्गावती महोबा के राजा की कन्या और गढ़मण्डल राज्य के अधिपति दलपतशाह की सहधर्मिणी थी। गढ़मण्डल सोलहवीं सदी में एक छोटा-सा राज्य था, लेकिन साथ ही साथ अपने आपार वैभव और सम्पत्ति के लिए वह दूर-दूर के राज्यों में भी महती ख्याति प्राप्त कर चुका था। थोड़े ही दिनों तक सुहाग-सुख भोगने के बाद दुर्गावती पर वैधव्य का वज्र टूट पड़ा, परन्तु उसने धैर्य तथा साहस से काम लिया। अपने प्यारे पुत्र नारायण की देख-रेख का भार उसने अपने कंधे पर लिया और बड़ी नीतिज्ञता और कुशलता से राज्य का प्रबंध किया। उसके खजाने की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। उसने पन्द्रह साल तक निर्विघ्न राज्य किया।

इस समय भारत का सम्राट अकबर था। उसे अब तक भारत की सार्वभौम सत्ता प्राप्त नहीं हुई थी। हुमायूं को मरे केवल कुछ ही साल बीते थे कि अकबर को अपने खोये साम्राज्य को फिर जीतने की सनक सवार हुई। राजपूत रियासतों को अपने पक्ष में  लाने के लिए वह तरह-तरह की योजनाएं बना रहा था। राजपूताने की बहुत-सी रियासतें उसके कपट जाल में पड़ चुकी थीं, उनकी स्वाधीनता का अपहरण हो चुका था। अकबर सुदूर प्रान्तों पर विजय करने के लिए सेनाएं तैयार कर रहा था, लेकिन प्रश्न यह था कि रुपया कहां से आये। इसके लिए गढ़मण्डल राज्य को लक्ष्य बनाया गया। उसके आदेश से सेनापति आसफ खां एक बहुत बड़ी सेना लेकर चल पड़ा। रानी दुर्गावती ने आश्चर्यजनक पराक्रम दिखलाकर दुश्मनों की शान मिट्टी में मिला दी। यद्यपि वह हार गयी, फिर भी यह उसकी जीत ही थी। नारायण भी अठारह साल का हो चुका था। मां और बेटे ने जमकर युद्ध किया। रानी ने बहादुर सैनिकों से कहा- 'देश पर मर मिटने वाले वीरो! तैयार हो जाओ, आज तुम्हारी जन्मभूमि विपत्ति की सूचना पाकर क्रन्दन कर रही है।'

रानी के 'जयनाद' से आकाश गूंज उठा। सैनिक मुगल सेना पर टूट पड़े, गाजर-मूली की तरह काटते हुए उन्होंने दो बार मुगलों को हराया। आसफ खां ने कूटनीति से काम लिया। गढ़मण्डल के ही एक पातकी सैनिक को काफी घूस देकर उसने अपना काम बना लिया।

दुर्गावती साक्षात् रणरंगमयी भवानी दुर्गा की तरह लड़ाई के मैदान में शत्रु सेना का विनाश करने लगी। परन्तु मुट्ठीभर राजपूत अधिक देर तक विशाल मुगल-सेना के सामने न ठहर सके। रानी घायल हुई, उसकी बायीं आंख में अचानक तीर लगा। फिर भी वह वीरांगना लड़ती रही। थोड़ी ही देर में सारी राजपूत-सेना में हाहाकार मच गया। वीर पुत्र नारायण दुश्मन के एक वाण से चल बसा। रानी पुत्र वियोग में भी कर्तव्य पथ से विचलित न हुई। उसने लड़ाई जारी रखी। पुत्र का शव उसकी आंखों के सामने से दूर हटा लिया गया। परन्तु सहनशक्ति की भी सीमा होती है, रानी बुरी तरह घायल हो गयी। आंखों तले अंधेरा छा गया। जब विजय की ओर आशा नहीं रह गयी, तब देखते ही देखते उस वीरांगना ने कमर से कटार निकाल कर अपनी छाती में भोंक ली। रानी रणगंगा में अवगाहन करके पवित्र हो गयी।

गढ़मण्डल पर अकबर का आधिपत्य हो गया। दिल्ली का खजाना रत्नों, मोतियों और हीरों से भर गया, लेकिन दुर्गावती रत्न पर यवनों का अधिकार न हो सका।

जीवनशाला

दूसरों को अपनी सलाह तभी दें, जब आपसे सलाह मांगी जाए। अपनी राय हमेशा संक्षेप में ही जाहिर करें।

अपनी राय जाहिर करते समय आपका लहजा अड़ियल नहीं रहना चाहिए। खासकर जब बाकी लोगों का नजरिया आपसे अलग हो तो अपनी राय पर अड़े रहना ठीक नहीं।

कभी भी उस विषय पर धाराप्रवाह न बोलते जाएं, जिसके बारे में और लोग न जानते हों। दरअसल, ऐसा करते वक्त आप अपनी ऊर्जा जाया करते हैं, वहीं दूसरों का ध्यान भी खो बैठते हैं।

कोई भी बात कहने से पहले उस पर भली–भांति विचार करें। मुंह से निकले शब्द दोबारा वापस नहीं होते। अपनी बात कहने से पहले उसकी तथ्यता और सत्यता पूरी तरह जांच लें।

अगर आपके मुंह से कोई गलत बात निकल भी जाए तो तुरंत सामने वाले से उसके लिए माफी मांग लें। अपनी बात को पूरे आत्मविश्वास और विनम्रता से दुरुस्त करें।

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