मुलायम की दगाबाजी
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आखिरकार वही हुआ, जिसका डर था। 'बंगाल की शेरनी' कही जाने वालीं मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी को समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने जोर का झटका धीरे से दे दिया। 22 लोकसभा सदस्य होने और कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन देने के बावजूद बाहर से ही सत्ता की मलाई ताकने को मजबूर मुलायम ने राष्ट्रपति चुनाव के बहाने कुछ ऐसा दांव चला कि तृणमूल संप्रग से बाहर हो जाये और सपा को वहां प्रवेश मिल जाए। पश्चिम बंगाल में तीन दशक पुराने वाम शासन को उखाड़ फेंककर नया राजनीतिक इतिहास लिखने वालीं ममता उनके झांसे में आ भी गयीं। मुलायम ने अपने ही आवास पर ममता के साथ एक संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस की पसंद प्रणब मुखर्जी या हामिद अंसारी के नाम खारिज कर एपीजे अब्दुल कलाम, मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी के नाम सुझाये। एक जुझारू नेता की तरह ममता तो इस मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व से भिड़ने को तैयार हो गयीं, पर आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक आय समेत भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में घिरे और सीबीआई जांच में फंसे मुलायम ने रातोंरात कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार से सौदा कर लिया। एक दिन पहले जिन प्रणब का नाम प्रेस काफ्रेंस में खारिज किया था, अचानक उनका राजनीतिक कद विराट नजर आने लगा। पता नहीं यह साम,दाम, दंड,भेद में से किस किस हथकंडे का प्रभाव था, लेकिन ममता को भड़काने वाले मुलायम ने ही उन्हें धोखा देकर एक बार फिर साबित कर दिया कि उन पर भरोसा खुद को जोखिम में डालने वाला ही हो सकता है। काश, ममता ने मायावती के अनुभव से कुछ सीख ले ली होती!
बेलगाम दिग्गी
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह बेलगाम मिसाइल सरीखे हैं। कांग्रेस 'युवराज' राहुल गांधी के सलाहकार माने जाने वाले दिग्विजय ऊलजलूल बयानों के लिए बदनाम हैं। मध्य प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो जाने के बाद तो दूसरों पर व्यंग्य बाण छोड़ना ही उनका काम रह गया है। कभी योगगुरू रामदेव को ठग कहते हैं तो कभी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को रावण। दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की शहादत वाली बटला हाउस मुठभेड़ उन्हें उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक वोटों की खातिर 'फर्जी' नजर आने लगती है तो मुम्बई पर आतंकी हमले के दौरान शहीद आतंकवाद निरोधक शाखा के प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत के पीछे भी उन्हें साजिश की बू आती है। यह तो तब है जब राष्ट्र, महाराष्ट्र और दिल्ली, तीनों ही जगह कांग्रेस की सरकार है। मीडिया में बयानबाजी के लिए तो दिग्गी राजा लालायित ही रहते हैं। वह दिल्ली से बाहर होने पर भी टेलीफोन पर ही प्रतिक्रिया देने को तैयार हो जाते हैं। जुबान तो जहरीली है ही, सो मीडिया, खासकर टीवी न्यूज चैनलों को पसंद भी हैं, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव पर कांग्रेस-ममता के बीच तनातनी में बोलकर बेचारे बुरे फंस गये। एक टीवी इंटरव्यू में ममता को अपरिपक्व और अस्थिर बताने के साथ-साथ उन्होंने दो टूक ऐलान कर दिया कि एक सीमा से आगे नहीं झुका जा सकता। मानो वह इस पूरी प्रक्रिया में मुख्य मध्यस्थ रहे हों। बस, फिर क्या था, बेलगाम दिग्विजय के विरोधी कांग्रेसियों को तो जैसे इसी मौके का इंतजार था। सो, फरमान जारी हो गया कि दिग्विजय सिंह कांग्रेस की ओर से बोलने को अधिकृत नहीं हैं। जब कांग्रेस ने ही पल्ला झाड़ लिया तो अब मीडिया भी उन्हें क्यों भाव देगा? 'युवराज' ही इस संकट से उबार लें तो बात अलग, वरना कांग्रेसी इसे दिग्गी के दुर्दिनों की शुरुआत मान रहे हैं।
चूक गये रावत
हरीश रावत को जानते हैं आप? केन्द्र सरकार में संसदीय कार्य और कृषि मंत्रालय में राज्यमंत्री हैं, पर उनका एकमात्र सपना उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनना है। पिछली बार जब मतदाताओं ने कांग्रेस को जनादेश दिया तो बुजुर्ग नारायण दत्त तिवारी बाजी मार ले गये और पांच साल के अंतराल के बाद इस बार जैसे-तैसे कांग्रेस की लाटरी खुली तो आलाकमान के दरबारियों ने रावत को दगा देकर विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनवा दिया। बेशक हरीश रावत ने उत्तराखंड में बहुत मेहनत की थी और मुख्यमंत्री पद के वह स्वाभाविक दावेदार थे। बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाये जाने पर रावत ने बागी तेवर भी दिखाये, पर जैसा कि अक्सर कांग्रेसियों के साथ होता है, सत्ता छोड़ संघर्ष का साहस नहीं जुटा पाये। कांग्रेस आलाकमान द्वारा बहुगुणा को नामित कर दिये जाने के बावजूद रावत मुख्यमंत्री बन सकते थे। थोड़ी हिम्मत दिखाते तो आलाकमान को फैसला बदलना पड़ सकता था। पर रावत की दुविधा ने न उन्हें कहीं का रखा और न ही उनके समर्थक विधायकों को, जिनके पास अब पाला बदलने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। अपने पिता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा की जोड़तोड़ की राजनीति के नक्शेकदम पर चलते हुए विजय बहुगुणा अपनी ताकत से कई गुना ज्यादा साबित हो रहे हैं।
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