मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी के सामने मुस्लिम प्रश्न से भी अधिक बड़ा प्रश्न बन गया था तथाकथित 'दलित वर्गों' के पृथक मताधिकार का प्रश्न। 1915 में भारत वापस लौटने के क्षण से ही गांधी जी ने अस्पृश्यता निवारण और जाति व्यवस्था में चली आ रही ऊंच-नीच की भावना को मिटाने के कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी थी। गांधी जी इसे हिन्दू समाज की आंतरिक सामाजिक समस्या मानते थे। वे उसे हल करने हेतु उच्च जातियों का हृदय परिवर्तन आवश्यक समझते थे और इसके लिए एक प्रबल सामाजिक आंदोलन खड़ा करने हेतु प्रयत्नशील थे। पूरे भारत का भ्रमण करके गांधी जी ने भारत के सामाजिक यथार्थ को जानने का प्रयास किया था। बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में 'दलित वर्गों' की श्रेणी में आने वाला समाज घोर दारिद्रय और अशिक्षा में डूबा हुआ था। वह पूरे भारत में प्रत्येक गांव में बिखरा था। प्रत्येक गांव में आर्थिक साधन व सामाजिक शक्ति उच्च जातियों के पास थी। इन दोनों वर्गों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा करना वंचित वर्ग की जातियों के लिए हितकर होने की बजाय घातक हो सकता था। दूसरे, हिन्दू समाज के भीतर अस्पृश्यता की विभाजन रेखा खींचना लगभग असंभव ही था। जाति प्रथा की संरचना एक प्रकार से क्रमिक सीढ़ीनुमा थी। प्रत्येक दो जातियों के बीच रोटी-बेटी के संबंधों का निषेध था।
अंग्रेजों की जाति–रेखा
अंग्रेज शासक उन्नीसवीं शताब्दी से ही अस्पृश्यता की विभाजन रेखा खोजने के प्रयास में जुटे हुए थे। 1911 की जनगणना के आयुक्त ई.ए.गेट ने जनगणना कर्मचारियों के उपयोग के लिए एक प्रश्नावली तैयार की थी। उसे विश्वास था कि इस प्रश्नावली के उत्तर एकत्र होने पर यह निर्णय करना सरल होगा कि कौन-सी जाति अस्पृश्य श्रेणी में आती है और कौन नहीं। किन्तु जब पूरे देश से प्राप्त हुए उत्तरों का वर्गीकरण किया गया तो पता चला कि अस्पृश्यता की दीवार सभी जातियों के बीच खड़ी हुई है। अस्पृश्यता के आधार पर हिन्दू समाज के बीच कोई सर्वमान्य विभाजन रेखा खींचना संभव ही नहीं है। इस सत्य को पहचान कर ही उनसे पूर्व 1901 की जनगणना के अखिल भारतीय आयुक्त एच.एच.रिज्ले ने जनगणना में एक नया सिद्धांत गढ़ा था, जिसे 'सामाजिक वरीयता' (सोशल प्रेसीडेंस) का सिद्धांत कहा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार जनगणना के लिए घर-घर जाने वाला कर्मचारी प्रत्येक परिवार के मुखिया से पूछता था कि आपकी जाति अमुक जाति से ऊंची है या नीची। इस सिद्धांत के द्वारा अंग्रेज शासकों ने जाति अभियान को उभारा। परिणाम यह हुआ कि 1901 की जनगणना के बाद जातीय स्पर्धा आरंभ हो गयी। प्रत्येक जाति ने अपनी जाति की महासभा या मंच खड़ा करके अपने लिए ऊंची जाति का दर्जा पाने का आंदोलन शुरू कर दिया। ब्रिटिश शासकों ने इस सत्य को पहचान लिया था कि हिन्दू मानसिकता में जाति चेतना बहुत गहरी है और इसे कभी भी उभारा जा सकता है। एच.एच.रिज्ले के मार्गदर्शन में ही जातियों और कबीलों का अखिल भारतीय सर्वेक्षण कराया गया और आर्य-अनार्य रक्त के आधार पर जातियों का वर्गीकरण किया गया। रिज्ले ने 1909 में 'भारत के लोग' शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसके अंतिम अध्याय का शीर्षक है 'जाति एवं राष्ट्रीयता'। इस अध्याय में निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत में राष्ट्रीय भावना के उभार को परम्परा से चली आयी जाति-चेतना को गहरा करके ही अवरुद्ध किया जा सकता है।
'नेशन इन मेकिंग' का भ्रम
उन्नीसवीं शताब्दी में ही ब्रिटिश चिंतकों ने यह समझ लिया था कि भारत में राष्ट्रवाद के ऐतिहासिक प्रवाह का वाहक विकेन्द्रित और विविधताओं से पूर्ण वह समाज है जिसे हिन्दू नाम से जाना जाता है। 1871 से लेकर 1941 तक दसवर्षीय जनगणना की केन्द्रीय एवं प्रांतीय रपटों के अध्ययन से स्पष्ट है कि सभी ब्रिटिश जनगणना अधिकारी 'हिन्दू' शब्द की इस्लाम एवं ईसाइयत जैसे केन्द्रीकृत उपासना पंथों के समकक्ष उपासनात्मक व्याख्या करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। फिर भी उन्होंने ईसाई मिशनरियों का अनुसरण करके 'हिन्दू' शब्द को इस्लाम व ईसाइयत के समकक्ष 'धर्मवाची' श्रेणी में रखा। सर जॉन स्ट्रेची, रिचर्ड टैम्पिल, डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर, अल्फ्रेड लायल जैसे प्रशासकों और सर जान सीले जैसे बौद्धिकों ने अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों के मन में यह धारणा बैठाने की कोशिश की कि राष्ट्रवाद मूलत: यूरोप में जन्मी एक राजनीतिक अवधारणा है, जिसकी अभिव्यक्ति के लिए एक केन्द्रित राज्यसत्ता का अस्तित्व अनिवार्य है, और क्योंकि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के पूर्व ऐसी केन्द्रित अखिल भारतीय राज्यसत्ता का अभाव रहा है, इसलिए भारत उसके पहले राष्ट्र बना ही नहीं था, अब वह राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहा है।
गांधी जी ने 1909 में रचित 'हिन्द स्वराज्य' में अंग्रेजों द्वारा आरोपित इस भ्रामक धारणा को चुनौती दी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि अंग्रेजों के आने के पहले भी हम एक राष्ट्र थे, इसीलिए अंग्रेज पूरे भारत पर अपना राज्य स्थापित कर सके। गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद की आधारभूमि सांस्कृतिक तीर्थयात्रा को माना। उन्होंने लिखा कि पूरे भारत को एक मानने के कारण ही हमारे पूर्वजों ने देश के चारों कोनों में बिखरे हुए तीर्थों की पैदल यात्रा करना आवश्यक समझा। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के जीवन मूल्यों को अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रकट करने का संकल्प लेकर और अहिंसक सत्याग्रह को सामूहिक संघर्ष का शस्त्र बनाकर राज्य की पाशविक शक्ति को चुनौती देने का मंत्र अपनाया। ये जीवन मूल्य हिन्दू समाज के अचेतन मानस में गहरे जमे हुए थे, इसलिए गांधी जी के रूप में उन्हें साकार देखकर पूरा हिन्दू समाज उनके पीछे खड़ा हो गया। क्षेत्रीय धरातल पर राष्ट्रवाद की भाव-भूमि पहले से ही विद्यमान थी, किन्तु अखिल भारतीय धरातल पर उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति पहली बार 1919 में दमनकारी रौलट एक्ट और जलियांवाला बाग नरमेध के विरोध में गांधी जी के आह्वान पर ही हो पायी।
'दलित कार्ड' का खेल
गांधी जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवाद का यह जागरण ब्रिटिश सरकार के लिए चिंता का विषय बन गया था। वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि भारत जैसे विशाल देश में एक लंगोटधारी व्यक्ति के आह्वान पर विश्व का सबसे बड़ा जनांदोलन खड़ा हो सकता है। उन्होंने 'गांधी प्रणीत आंदोलन' के जनाधार का सूक्ष्म अध्ययन किया और पाया कि मुस्लिम समाज इस आंदोलन से पूरी तरह अलग है, केवल हकीम अजमल खान, डा.अंसारी, मौलाना आजाद और आसफ अली जैसे कुछेक मुस्लिम अंत:करण ही राष्ट्रवाद के प्रवाह से जुड़े रह गये हैं, किन्तु मुस्लिम समाज उन्हें अपना नेता मानने को तैयार नहीं हे। 1920-21 के खिलाफत प्रश्न को भारत के स्वराज्य प्राप्ति के प्रश्न से जोड़कर गांधी जी ने मुस्लिम समाज को भी राष्ट्रीय आंदोलन में लाने का साहसी प्रयोग किया, किन्तु खिलाफत का दौर समाप्त होते ही भारतीय मुसलमान न केवल असहयोग आंदोलन से अलग हो गया बल्कि पूरे भारत में हिन्दुओं के विरुद्ध मुस्लिम दंगों की बाढ़-सी आ गयी। तब गांधी जी ने स्वीकार किया कि प्रत्येक हिन्दू कायर है और प्रत्येक मुसलमान दंगाई है। 1920 के असहयोग आंदोलन का सबसे बड़ा निष्कर्ष यह था कि 'गांधी प्रणीत स्वतंत्रता संघर्ष' का जनाधार केवल हिन्दुओं तक सीमित है और पूरा हिन्दू समाज ऊपर से नीचे तक समान रूप से इस संघर्ष में योगदान नहीं कर पा रहा है। हिन्दू समाज का बहुत बड़ा हिस्सा, जिन्हें 'दलित वर्गों' के अन्तर्गत माना जाता है, भावनात्मक रूप से इस आंदोलन से जुड़ा होने पर भी अपने दारिद्र्य और अशिक्षा के कारण सक्रिय सहयोग नहीं दे पा रहा है। उन दिनों 'दलित वर्गों' में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वालों की संख्या तो उंगलियों पर गिनने लायक भी नहीं थी। इने-गिने लोग थे जो हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में लिख-पढ़ सकते थे। 1940 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, जब भारत सचिव लार्ड एमटी ने वायसराय लार्ड लिन लिथगो को सलाह भेजी कि वे छह करोड़ 'दलित वर्गों' की राजनीतिक शक्ति का ब्रिटिश हित में उपयोग करें तो लिन लिथगो ने उत्तर दिया कि चाहता तो मैं भी यही हूं, पर उनका उपयोग किस तरह करूं यह समझ नहीं पा रहा हूं, क्योंकि उनके बीच अंग्रेजी अच्छी तरह लिख-बोल सकने वाले लोगों की संख्या आधा दर्जन भी नहीं हे। वायसराय ऐसे लोगों में केवल डा.अम्बेडकर, मद्रास प्रांत के एम.सी.राजा तथा एक और नाम ही गिना पाये। उन्होंने डा.अम्बेडकर को अपने युद्धकालीन मंत्रिमंडल में सम्मिलित कर लिया जबकि एम.सी.राजा का 1942 में ही निधन हो गया।
जब यहां एम.सी.राजा और डा.अम्बेडकर की चर्चा आ ही गयी है तो दोनों की पृष्ठभूमि और परस्पर संबंधों की जानकारी देना भी उचित रहेगा। डा.अम्बेडकर के 1918 में अमरीका से डाक्टरेट की उपाधि लेकर भारत लौटने के पहले से एम.सी.राजा सार्वजनिक जीवन में सक्रिय थे। 1922 में उन्हें 'मद्रास लेजिस्लेटिव काउंसिल' में नामांकित किया गया था और 1927 में उन्हें 'सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल' का सदस्य नामांकित किया गया। उन्होंने 'दलित वर्गों' की दु:खद स्थिति पर 1925 में 'ओप्रेस्ड इंडियंस' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की थी। उन्होंने ही मद्रास प्रांत में अस्पृश्य या दलित वर्गों के लिए 'पड़िया' शब्द के स्थान पर 'आदि द्रविड़' शब्द प्रयोग के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया था, जो सफल हुआ और 'आदि द्रविड़' शब्द प्रयोग को सरकार ने अपना लिया। अभी तक यह एक रहस्य ही है कि 'सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल' का सदस्य होते हुए भी वायसराय ने 1931 के गोलमेज सम्मेलन में 'दलित वर्गों' का प्रतिनिधित्व करने के लिए राजा की बजाय डा.अम्बेडकर और श्रीनिवासन को ही क्यों चुना? ब्रिटिश सरकार द्वारा एम.सी.राजा की इस उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज विश्वविद्यालयों में राजनीति शास्त्र और इतिहास के शिक्षक भी एम.सी.राजा का नाम तक नहीं जानते। उन्हें पता नहीं कि सितम्बर, 1932 में डा.अम्बेडकर के हस्ताक्षरों से युक्त पूना पैक्ट के पहले मार्च, 1932 में 'राजा-मुंजे पैक्ट' भी हुआ था। इस समझौते से संबंधित पत्राचार और समकालीन प्रेस रपटों की फाइल राष्ट्रीय अभिलेखागार में सड़ी-गली स्थिति में अभी भी मौजूद है। हमने इस फाइल के आधार पर सन् 1995 में एक लम्बी लेखमाला हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स में प्रकाशित की थी। यह लेखमाला 2004 में प्रकाशित 'जातिविहीन समाज का सपना' शीर्षक लेख संग्रह में भी उपलब्ध है। मूल अंग्रेजी का पत्राचार मीनाक्षी जैन और मेरे द्वारा संपादित 'दि राजा-मुंजे पैक्ट' नामक पुस्तक में समाविष्ट है।
पृथक मताधिकार का विभाजनकारी हथियार
गोलमेज सम्मेलन नामक चक्रव्यूह की रचना में मुस्लिम, सिख, एंग्लो-इंडियन आदि अल्पसंख्यक समुदायों के अतिरिक्त हिन्दू समाज के 'दलित वर्गों' को पृथक मताधिकार देकर राष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा करने का भयानक षड्यंत्र विद्यमान था। 'राष्ट्रवाद के विरुद्ध षड्यंत्र' शब्द प्रयोग मेरा नहीं, स्वयं गांधी जी का है। 20 अप्रैल, 1947 को राजकुमारी अमृतकौर के किसी पत्र के उत्तर में गांधी जी ने लिखा था, 'मेरी स्पष्ट राय है कि डा.अम्बेडकर की मांगों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। जरा गोलमेज सम्मेलन के समय रैमजे मैकडानल्ड (ब्रिटिश प्रधानमंत्री) के निर्णय का स्मरण करो। इस निर्णय का जन्म भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध एक दुष्ट षड्यंत्र में से हुआ था। तथाकथित अनुसूचित वर्गों को पृथक मताधिकार देकर पहली बार हिन्दुओं- हिन्दुओं के बीच विभाजन पैदा करने का प्रयास किया गया था। हिन्दू समाज के इस विभाजन के विरुद्ध ही मैंने विद्रोह की घोषणा की थी। फलस्वरूप आरक्षित संख्या में भारी वृद्धि की गयी और प्राथमिक चुनावों को अलग किया गया, किन्तु पूर्ण पृथक्करण को रोका जा सका। मेरा मत है कि हिन्दू समाज को तोड़ने के प्रयास एवं पृथकतावादी प्रवृत्ति को इससे अधिक कीमत नहीं दी जा सकती थी। यदि डा.अम्बेडकर की आपत्तियों को अब अधिक देर तक स्वीकार किया गया तो उससे हिन्दू समाज कमजोर ही होगा।'
गोलमेज सम्मेलन में अल्पसंख्यक उप समिति की अंतिम बैठक को सम्बोधित करते हुए 13 नवम्बर, 1931 को गांधी जी ने कहा था, 'अन्य अल्पसंख्यकों की ओर से उठायी जा रही मांगों को मैं समझ सकता हूं किन्तु अस्पृश्यों के नाम पर उठायी जा रही मांग बहुत ही निर्मम प्रहार है। पृथक मताधिकार देने से अस्पृश्य सदा सर्वदा के लिए अस्पृश्य रह जाएंगे। इसलिए अस्पृश्यों के उत्थान की डा.अम्बेडकर की इच्छा और उनकी योग्यता का पूरी तरह सम्मान करते हुए भी मैं कहूंगा कि उनका रास्ता गलत है। यह हिन्दू समाज को विभाजित कर देगा, जिसे मैं सहन नहीं कर सकता। यदि मैं अकेला व्यक्ति रहा तो भी मैं इसे रोकने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दूंगा।' गांधी जी ने अपने इस निश्चय की सूचना भारत सचिव सर सेमुअल होट को भी यरवदा जेल से 11 मार्च, 1932 अर्थात प्रधानमंत्री के साम्प्रदायिक निर्णय की (17 अगस्त, 1932 को) औपचारिक घोषणा के पांच माह पूर्व लिखित रूप से दे दी थी। किन्तु ब्रिटिश शासकों पर गांधी जी के इस संकल्प का कोई असर नहीं हुआ और वे अपनी विभाजनकारी नीति पर आगे बढ़ते गये।
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