इतिहास दृष्टि
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इतिहास दृष्टि
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
जन्मदिवस (15 मई) पर पुण्य स्मरण
23 मार्च, 1931 को भारत के तीन युवा क्रांतिकारियों– भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी दी गई थी। इनमें भगतसिंह तथा राजगुरु से सुखदेव आयु में कुछ बड़े थे। फांसी की सजा सुनाते समय भी उन पर एक अतिरिक्त धारा लगाई गई थी। यह भी कहा गया था कि उनका अपराध भगतसिंह के अपराध से किसी तरह से भी कम नहीं है। वस्तुत: इन तीनों क्रांतिकारियों में देशभक्ति के कार्यक्रमों में आगे रहने की होड़–सी लगी रहती थी।
बाल्यकाल और संस्कार
बाल्यकाल से सुखदेव के हाथ पर उनका नाम गुदा हुआ था। ब्रिटिश सरकार को किसी प्रकार का भेद न पता चल सके, इसलिए उन्होंने तेजाब डालकर उसे मिटाना चाहा। न मिटने पर उन्होंने वहां अपना हाथ मोमबत्ती से जला डाला था। ऐसे विलक्षण सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपंरा (लुधियाना) में हुआ था। इनके पिता राम लाल थापर थे, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलावाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की थीं। दुर्भाग्य से जब वे तीन वर्ष के थे तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन–पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली–मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को पढ़ाते थे।
1919 में हुए जलियावाला बाग के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। तब सुखदेव 12 वर्ष के हुए थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को 'सैल्यूट' करना पड़ता था। पर सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी थी। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहां पर सुखदेव की भगतसिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक जयचन्द्र विद्यालंकार थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानन्द भी जाने–माने क्रांतिकारी थे। वे भी समय–समय पर विद्यालयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करते थे। यह विद्यालय देश के प्रमुख विद्वानों के एकत्रित होने का केन्द्र था तथा उनके भी यहां भाषण होते रहते थे।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
1926 में लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगतसिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। असहयोग आन्दोलन की विफलता के पश्चात नौजवान भारत सभा ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियां करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा (देखें भारत सरकार के गुप्त दस्तावेज 1930, फाईल 130)। परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी। अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम नौजवान भारत सभा ही रखा गया, केन्द्र अमृतसर तय हुआ। सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें 'विलेजर' कहते थे, के अनुसार भगतसिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक–एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्तियों में चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारी थे।
कुशल योजक व संगठक
साइमन कमीशन के भारत आने पर चहुंओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहां के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान–स्थान पर सभाएं हुईं। सुखदेव और भगतसिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया। एक महीने बाद ही 17 सितम्बर, 1928 को स्कार्ट को मारने की योजना थी परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। वस्तुत: सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था, जिसमें उन्होंने कहा था, 'क्या देश में कोई युवक नहीं रहा?' सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेजी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था 'लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया।'
8 अप्रैल, 1929 को भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज पहुंचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई। फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए।
सुखदेव चेहरे–मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा न था। उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, 'मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।'
दृढ़ प्रतिज्ञ व राष्ट्रवादी
तत्कालीन परिस्थितियों पर उन्होंने गांधी जी को लिखा, 'आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं, बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाजार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।….. एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?' सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त–हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।' सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को 'यंग इंडिया' में छापा।
ब्रिटिश सरकार ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु पर मुकदमे का नाटक रचा। 23 मार्च, 1931 को उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई। देशव्यापी रोष के भय से सभी जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाया गया।
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