सरकारी हज प्रतिनिधिमण्डल खत्म करो
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सर्वोच्च न्यायालय का आदेश
मुजफ्फर हुसैन
2006 में एक प्रतिनिधिमण्डल का खर्च 2 करोड़ 39 लाख रुपए आया। यात्रा का खर्च 12 लाख 85 हजार रुपए था। इन 'महाराजाओं' को प्रतिदिन का जेब खर्च भी दिया जाता है, जो कुल 12 लाख 12 हजार रुपए था। मक्का मदीना में उनका अन्य खर्च 2 करोड़ 14 लाख रुपए था। इस प्रकार प्रत्येक सदस्य पर सरकार ने 8 लाख 85 हजार रुपए खर्च किए।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए भारत सरकार को निर्देश दिए हैं कि वह हज यात्रा के समय जाने वाले सरकारी प्रतिनिधिमंडल को चार-पांच वर्ष के बाद समाप्त कर दे। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति रंजना देसाई की खण्डपीठ ने यह भी कहा कि 40 वर्ष पूर्व जिन कारणों से प्रतिनिधिमण्डल भेजने का सरकार ने निर्णय लिया था अब वे विद्यमान नहीं हैं। साथ ही प्रतिनिधिमण्डल की सदस्य संख्या कम कर दी जाए। सरकार हज यात्रियों को जो अनुदान देती है वह भी केवल जीवन में एक ही बार के लिए मर्यादित कर दिया जाए। सरकार ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को स्वीकार करते हुए कहा कि चार-पांच वर्ष में हज यात्रा के लिए जाने वाले प्रतिनिधिमण्डल की परम्परा समाप्त कर दी जाएगी। इस परिवर्तन का मुख्य कारण है ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया (कैग) की प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली रपट। उक्त रपट बताती है कि हज यात्रा के नाम पर करोड़ों रुपए के घपले होते हैं। इतनी अनियमितता है कि समस्त तंत्र ही पंगु बनकर रह गया है। एक वर्ष भी ऐसा नहीं गया जब मामला संतोषजनक हो। सत्ताधारी दल अपनी पसंद के व्यक्ति को हज कमेटी का अध्यक्ष एवं आठ से दस सदस्यों को नियुक्त करता है। उक्त सदस्य व्यवस्था के नाम पर वर्ष में अनेक बार सऊदी अरब की यात्रा करते हैं। मार्ग व्यय एवं निवास से लेकर उनके टेलीफोन तक का खर्च केन्द्र सरकार वहन करती है। कैग सम्बंधित विभागों को बार-बार चेतावनी देता है लेकिन होता कुछ नहीं है। समाचार पत्रों में इसकी कटु आलोचना भी होती है, लेकिन तुष्टीकरण नीति के तहत सरकार कोई भी कार्रवाई नहीं करती है। कहा जाता है कि हज कमेटी के अध्यक्ष बनने के लिए लाखों रुपए की रिश्वत दी जाती है। सदस्य बनने के लिए भी बड़ी तिकड़में लगाई जाती हैं। लेकिन हज के नाम सब माफ कर दिया जाता है। हज यात्रा अरबी महीने 'जिलहज' की दसवीं तारीख को हर वर्ष सम्पन्न होती है, जिसे सामान्य भाषा में बकरीद कहा जाता है। जिस मुस्लिम महिला, पुरुष की आर्थिक स्थिति ठीक हो और वह अपने घरेलू जीवन की जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका हो, उस पर इस्लाम ने हज को अनिवार्य घोषित किया है। हज यात्रा के लिए अपनी मेहनत की कमाई का पैसा होना अनिवार्य है। लेकिन पिछले कुछ समय से इस्लाम के इन सिद्धान्तों को भुलाकर भारत के मुसलमानों ने हज यात्रा को सरकारी यात्रा में बदल दिया है, क्योंकि इस यात्रा के लिए सरकार की ओर से अनुदान दिया जाता है। सरकारी पैसे पर हर मुसलमान अपने इस मजहबी कर्तव्य को पूरा करना चाहता है।
नियमावली में फेरबदल
इस बार भारत सरकार ने इस यात्रा के लिए दिए जाने वाले अनुदान की नियमावली में फेरबदल किया है। अब तक तो जो प्रति वर्ष हज के लिए जाता था उसे भी सरकारी कोष से सहायता मिल जाती थी, लेकिन अब केवल उसी व्यक्ति को सरकारी अनुदान मिलेगा, जो पहली बार हज यात्रा पर जा रहा है। अब तक इस मामले में मुसलमानों ने अपना विरोध प्रारम्भ नहीं किया है, लेकिन यदि मुसलमानों को यह बात ठीक नहीं लगी तो फिर वोट बैंक होने के नाते सरकार उक्त निर्णय को बदल भी सकती है। लेकिन इस बार अदालत का निर्णय पीछे खड़ा है, इसलिए सरकार को बहुत कुछ सोच- समझकर करना पड़ेगा। सरकार इस मामले में आश्वासन भी दे चुकी है इसलिए अब मामला उम्मीद से बाहर है।
चूंकि हज यात्रा विदेश विभाग के तहत होती है, इसलिए उसकी हर छोटी-बड़ी चीज पर सरकार की नजर होना स्वाभाविक है। उक्त प्रतिनिधिमण्डल को भेजने का मुख्य लक्ष्य यह होता है कि दुनिया के अन्य देशों के मुसलमानों के सम्मुख भारत की उज्ज्वल छवि उनके मन-मस्तिष्क तक पहुंचे। यदि उक्त प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य भारत के दूत बनकर भारत की उज्ज्वल तस्वीर पेश करें तब तो इस पवित्र उद्देश्य की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। लेकिन यह प्रतिनिधिमण्डल राजसी ठाठ-बाट के साथ प्रतिवर्ष सऊदी अरब का चक्कर लगाए तब तो देश की आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा में सेंध लगाने जैसी बात होगी ही। इसकी शुरुआत 1967 में तब हुई थी जब पाकिस्तान ने इसी प्रकार के प्रतिनिधिमंडल को मक्का मदीना भेजकर भारत की छवि को दूषित करने का प्रयास किया था। पिछले वर्षों में इन प्रतिनिधिमण्डलों ने क्या इस दिशा में कोई राष्ट्रीय सेवा की? इस बात का मूल्यांकन किए बिना ही अब तो यह हर साल की एक रस्म बन गई है। पिछले कुछ वर्षों से तो यह प्रतिनिधिमंडल प्रभावशाली मुसलमानों का वार्षिक पिकनिक दल बन गया है। सरकारी खर्च से मक्का मदीना में जाकर तमाशे किए जाएंगे तो यह सवाल उठाया जाना लाजिमी है कि क्या इस प्रकार के सरकारी प्रतिनिधिमण्डल की परम्परा को जीवित रखना चाहिए? लोकसभा के साथ-साथ प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय को भी इसकी शिकायतें की जाती रही हैं। प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य मक्का मदीने में किस प्रकार के गुलछर्रे उड़ाते हैं, इसकी जानकारियां अखबारों में भी प्रकाशित होती रही हैं। लेकिन इन सदस्यों और हज कमेटी में अपना दबदबा रखने वाले अधिकारियों ने इसकी ओर ध्यान नहीं दिया, तो मजबूरन लोगों को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
उनकी असलियत
1967 में जब इस प्रतिनिधिमंडल की रचना की गई थी उस समय इसमें केवल तीन सदस्य शामिल थे। लेकिन समय के साथ इसकी सदस्य संख्या भी बढ़ती चली गई। 2006 में 49, 2007 में 25, 2008 में 34, 2009 में 36, 2010 में 30 और 2011 में 27 सदस्य शामिल थे। दिलचस्प बात तो यह है कि उनमें सरकारी अधिकारी अथवा सदस्यों की संख्या 7-9 तक ही होती है। शेष तो इनके सगे-सम्बंधी सरकारी प्रतिनिधि के रूप में पहुंच जाते हैं। पत्नी, बच्चे, काका-काकी और मामा-मामी के अतिरिक्त साले-साली भी इस फौज में शामिल होते हैं। दो-तीन बार तो इसमें सदस्यों की प्रेमिकाएं भी शामिल होने से नहीं चूकीं। केरल के एक पूर्व विदेश राज्य मंत्री, जो पिछले कई वर्षों से निरंतर हज प्रतिनिधिमंडल में शामिल होते रहे हैं, मक्का पहुंचते ही कहां गायब हो जाते हैं, उन्हें ढूंढना कठिन हो जाता है। कहा जाता है कि वहां जाकर वे किसी न किसी संस्था के लिए चंदा एकत्रित करने के काम में लग जाते हैं। एक सदस्य तो वर्षों से मुसलमानों के लिए उर्दू और अंग्रेजी अखबार प्रारम्भ करने के लिए चंदा मांगने में व्यस्त हो जाते थे। हज प्रतिनिधिमण्डल में कौन शामिल होगा, इसका फैसला तो भारत सरकार के वरिष्ठ मंत्री ही करते हैं, यह समझा जाता है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसकी चल जाए बस वही हज प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बन जाता है। मक्का के पंच तारांकित होटलों में उनके रहने की व्यवस्था की जाती है। यानी एक राजनीतिज्ञ को जितना ऐशोआरम मिलना चाहिए वह इस पवित्र जगह पर इन 'नवाबों' को मिल जाता है। 2006 में एक प्रतिनिधि मण्डल का खर्च 2 करोड़ 39 लाख रुपए आया। यात्रा का खर्च 12 लाख 85 हजार रुपए था। इन 'महाराजाओं' को प्रतिदिन का जेब खर्च भी दिया जाता है, जो कुल 12 लाख 12 हजार रुपए था। मक्का मदीना में उनका अन्य खर्च 2 करोड़ 14 लाख रुपए था। इस प्रकार प्रत्येक सदस्य पर सरकार ने 8 लाख 85 हजार रुपए खर्च किए। इससे बढ़कर शानदार पिकनिक और क्या हो सकती है? सीएजी की रपट में इनके लिए जो टिप्पणियां की गईं हैं वे गंभीर हैं। इन शाही खर्चों के अतिरिक्त सीएजी ने विदेश मंत्रालय और जेद्दाह स्थित भारतीय दूतावास के दस्तावेजों की जो जांच-पड़ताल की है उसकी कुछ अलग ही कहानी है। कमेटी के अध्यक्ष सहित इन सदस्यों ने शायद ही कभी सऊदी अधिकारियों से मिलने का कष्ट किया होगा? साधारणतय: उनके द्वारा दिए गए भोज में दो-तीन सदस्य अवश्य शामिल हो जाते हैं। वे भारत की छवि के लिए वहां क्या करते हैं? इस सवाल का उत्तर तो वे जानें, लेकिन वे अपनी छवि विकसित कर किसी बड़े सरकारी पद के लिए स्वयं को सबसे अधिक योग्य मानने लगते हैं। सीएजी की रपट में पूछा गया है कि प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों की क्या योग्यता होनी चाहिए इसका कोई मापदंड नहीं है। प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य चुनने के लिए अपनाई गई व्यवस्था में भी गड़बड़ियां पाई गई हैं। एयर इण्डिया इन हाजियों को जेद्दाह विमानतल तक पहुंचाने और पुन: भारत लाने का काम करती है। इतने अधिक यात्री मिलने के पश्चात् भी उसे सरकार से 'बेल आउट' मांगना पड़ता है, यह कैसा विचित्र व्यवहार है? सर्वोच्च न्यायालय ने जिस प्रकार का साहस दिखा कर अपना निर्णय दिया है, यदि सरकार भी अपना कोई आयोग स्थापित करके इस सम्पूर्ण यात्रा की जांच-पड़ताल करे तो अनेक रहस्यों पर से पर्दा उठ सकेगा।Enter News Text.
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