कौन बने राष्ट्रपति?
|
कौन बने राष्ट्रपति?
देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद को लेकर वोट बैंक गणित में उलझे कांग्रेसी
कलाम जैसे सर्वमान्य अराजनीतिक व्यक्ति से संप्रग को चिढ़ क्यों?
कमलेश सिंह
हालांकि मौजूदा राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का कार्यकाल जुलाई में समाप्त होना है, पर नये राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर गंभीर चिंतन-मनन और पहल के बजाय जैसी घटिया राजनीति सामने आ रही है, उससे यही लगता है कि देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई जा रही है। सत्तारूढ़ दल द्वारा मनमाने ढंग से किसी भी पसंदीदा व्यक्ति को राष्ट्रपति चुनवाने के दिन तो गठबंधन राजनीति के इस दौर में हवा हो चुके हैं, लेकिन केन्द्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस शायद अभी भी इस कठोर सच को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
केन्द्र सरकार के स्थायित्व के लिए तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक सरीखे संप्रग के बड़े घटक दलों से लेकर पांच सांसदों वाले राष्ट्रीय लोकदल सरीखे छोटे दलों पर निर्भरता के बावजूद कांग्रेस अपने राजनीतिक गणित से बाहर देखने को तैयार नहीं है। संभव है कि केन्द्र में सरकार बनाने और चलाने के लिए भानुमती का कुनबा जोड़ने वाली कांग्रेस की इस अहमन्यता की वजह राष्ट्रपति का पिछला चुनाव हो, जब वह प्रथम महिला राष्ट्रपति का कार्ड चलकर पुरानी 'निष्ठावान' कांग्रेसी श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह को राष्ट्रपति भवन भिजवाने में सफल हो गयी थी।
सर्वमान्य को चुनें
अमूमन श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का अभी तक का राष्ट्रपति का कार्यकाल किसी भी अशोभनीय, अवांछित विवाद से मुक्त रहा है, लेकिन देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद की अपनी एक गरिमा है, जिसे हर कीमत पर बचाये रखा जाना चाहिए। यह तभी संभव होगा, जब दलीय निष्ठा और वोट बैंक राजनीति के संकीर्ण दायरे से बाहर निकल किसी ऐसे सर्वमान्य व्यक्ति को राष्ट्रपति चुना जाये, जिस पर वाकई पूरा राष्ट्र गौरवान्वित महसूस कर सके।
यह विभाजनकारी वोट बैंक राजनीति के मौजूदा दौर में मुश्किल तो जरूर है, पर असंभव हरगिज नहीं। आखिर भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने देश को गौरवान्वित करने वाले असाधारण वैज्ञानिक डा.अब्दुल कलाम को तमाम मत भिन्नताओं से परे राष्ट्रपति बनवाया ही था। अपने सादगीपूर्ण निर्विवाद राष्ट्रपतित्वकाल में डा.कलाम जिस तरह पूरे देश, खासकर युवाओं और बच्चों के लिए प्रेरणास्रोत बन गये, उसकी मिसाल देश ही नहीं, दुनिया में भी आसानी से नहीं मिलेगी।
दरअसल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में राष्ट्रपति के रूप में डा.अब्दुल कलाम इस बात की मिसाल बनकर उभरे कि उच्च संवैधानिक पदों पर कैसे उच्च आदर्शों और असंदिग्ध निष्ठावाले व्यक्ति पदासीन होने चाहिए। यही कारण था कि पिछली बार वर्ष 2007 में राष्ट्रपति चुनाव के समय भी तत्कालीन उप राष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को अपना उम्मीदवार बनाते हुए राजग ने साफ-साफ कहा था कि अगर डा.कलाम को दूसरा कार्यकाल दिये जाने पर आम सहमति बन जाती है तो वह शेखावत की उम्मीदवारी वापस ले लेगा। लेकिन वर्ष 2004 में संप्रग बनाकर केन्द्र में सत्तारूढ़ हो गयी कांग्रेस की हठधर्मिता के चलते जो कुछ हुआ, वह सभी के सामने है।
अपने राजनीतिक जीवन में कभी कोई चुनाव न हारने वाले और उप राष्ट्रपति काल में बतौर राज्यसभा सभापति दलगत सीमाओं से परे सभी सदस्यों का दिल जीतने वाले भैरोंसिंह शेखावत राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गये और श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल राजस्थान के राजभवन से राष्ट्रपति भवन पहुंच गयीं। किसी भी चुनाव में हार-जीत स्वाभाविक परिणाम हैं, लेकिन पिछले राष्ट्रपति चुनाव के दौरान, खासकर कांग्रेस शेखावत और कलाम के प्रति जैसी अशोभनीय टिप्पणियों और दुष्प्रचार पर उतर आयी थी, उससे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बढ़ी तो हरगिज नहीं।
कांग्रेसी मुहिम
अभी राष्ट्रपति चुनाव की औपचारिक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, इसलिए कांग्रेसी या संप्रग खेमे की ओर से पिछली बार जैसा दुष्प्रचार तो सामने नहीं आया है, लेकिन अपने पसंदीदा व्यक्ति को ही राष्ट्रपति बनवाने की मुहिम निश्चय ही बेहद अशोभनीय ढंग से छेड़ दी गयी है। हैरत की बात यह है कि औपचारिक तौर पर कुछ नहीं कहा जा रहा, सूत्रों के हवाले से ही मीडिया में नाम उछाले जा रहे हैं। यह काम कितने अहमन्य तरीके से किया जा रहा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि संप्रग के घटक दलों से भी विचार-विमर्श, आहत विपक्ष के तीखे तेवरों से बने राजनीतिक दबाव की मजबूरी में ही शुरू किया गया है।
तर्क दिया जा सकता है कि अतीत में भी सक्रिय राजनेता रहे व्यक्ति राष्ट्रपति चुने जाते रहे हैं। बेशक यह सच है। यह भी सच है कि उनमें से कुछ ने राष्ट्रपति के रूप में अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह बेहद शानदार ढंग से किया है, लेकिन जब कलाम सरीखी अराजनीतिक विभूति को राष्ट्रपति बनाये जाने का अनुभव अद्वितीय साबित हुआ हो और आमतौर पर शोभायमान मान लिया जाने वाला यह संवैधानिक पद भी देशवासियों के लिए अभूतपूर्व प्रेरणा का स्रोत बन गया हो, तब उसे परंपरा बनाने से मुंह क्यों चुराया जाना चाहिए?
दरअसल कांग्रेस की अगुआई वाले संप्रग के समक्ष तो यह अपनी पिछली गलती सुधारने का भी मौका है, जब उसकी हठधर्मिता से डा.कलाम को दूसरा कार्यकाल नहीं मिल पाया था, जबकि तमाम सर्वेक्षण बता रहे थे कि देश का जनमानस उन्हें ही पुन: राष्ट्रपति देखना चाहता था। राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त होने के बाद कलाम के लिए नियमानुसार सरकारी आवास तैयार कराने में भी संप्रग सरकार की उनके प्रति कटुता ही उजागर हुई, लेकिन 'मिसाइल मैन' के नाम से लोकप्रिय रहे कलाम ने अपने हर कार्य में देशहित को सर्वोपरि रखते हुए साबित कर दिया कि वह सही मायने में सच्चे राष्ट्रभक्त हैं।
इसके बावजूद डा.कलाम के प्रति कांग्रेसी कटुता कम होती नहीं दिख रही। जाहिर है, राष्ट्रपति चुनाव की बाबत औपचारिक तौर पर तो कांग्रेस की ओर से अभी तक कुछ कहा ही नहीं गया है, लेकिन सूत्रों के हवाले से उनके नाम को पूरी तरह नकार दिया गया है। कांग्रेस की यह अहमन्यता तब और भी चौंकाती है, जब मुख्य विपक्षी दल भाजपा द्वारा कलाम के नाम पर सहमति की स्वत: पहल सामने आयी हो।
एक आदर्श स्थिति
लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने साफ कहा कि राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन कर पाना तो राजग के लिए संभव नहीं होगा, पर यदि डा.कलाम सरीखे अराजनीतिक व्यक्ति का नाम आगे आये तो समर्थन किया जा सकता है। यह एक आदर्श स्थिति होती कि सरकार का नेतृत्व करने वाला दल और मुख्य विपक्षी दल नये राष्ट्रपति के रूप में किसी अराजनीतिक नाम पर सहमत होते, पर जो सब कुछ राजनीतिक गुणा-भाग लगा कर करते हैं, वे भला ऐसा कैसे होने दे सकते हैं?
ऐसा नहीं है कि इकलौती सुषमा स्वराज ने ही अराजनीतिक राष्ट्रपति की वकालत की। केन्द्र में सत्तारूढ़ संप्रग के प्रमुख घटक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया एवं केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने भी ऐसा ही सुझाव दिया। दरअसल पवार द्वारा सार्वजनिक रूप से दिया गया यह सुझाव भी कांग्रेस पर दबाव बनाने में मददगार रहा, जिसके चलते उसे पहले पवार, फिर करुणानिधि और ममता बनर्जी से राष्ट्रपति चुनाव की बाबत चर्चा करनी पड़ी।
संवाद लोकतंत्र का अहम तत्व है, पर वह तभी सार्थक हो सकता है, जब एजेंडा सुविचारित हो, जबकि कांग्रेस का कुविचारित एजेंडा तो जगजाहिर है। उसके लिए तो हर चुनाव सत्ता के खेल की तरह है, फिर चाहे वह राष्ट्रपति का ही चुनाव क्यों न हो। जरा याद करिए कि वर्ष 2007 में उप राष्ट्रपति पद के लिए अचानक कहां से डा.हामिद अंसारी को खोजकर लाया गया था? यह भी कि वर्ष 2009 में मंत्री पद की शपथ दिलाने के कुछ ही दिन बाद किस तरह 'वंचित वर्ग की महिला' का कार्ड चलते हुए श्रीमती मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनवा दिया गया था?
वैसे ही दांवपेंच अब राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भी चले जा रहे हैं। कुछ वर्ष के अंतराल के अपवाद के अलावा खांटी कांग्रेसी रहे प्रणव मुखर्जी वर्ष 2004 से ही मनमोहन सिंह सरकार के संकटमोचक बने हुए हैं। स्वाभाविक ही वह प्रधानमंत्री पद के उपयुक्त उम्मीदवार हो सकते हैं, पर किसी राजनीतिक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने का जोखिम इसी पद के लिए अपने लाड़ले 'राहुल' को तैयार कर रहीं श्रीमती सोनिया गांधी नहीं ले सकीं।
सांसत के दांव
इसीलिए अब जबकि वर्ष 2014 में कांग्रेस की केन्द्रीय सत्ता से विदाई सुनिश्चित नजर आ रही है, उससे पहले एक 'निष्ठावान' कांग्रेसी को राष्ट्रपति भवन में बिठाने का दांव चला जा रहा है। पश्चिम बंगाल से आने वाले प्रणव मुखर्जी के नाम पर कांग्रेस को वामदलों के साथ साथ तृणमूल कांग्रेस के भी मान जाने की उम्मीद है। पर प्रणव बाबू कैमरों के सामने तो ना-नुकर ही करते दिख रहे हैं। उधर, कांग्रेस में ही एक तबका उनके नाम के विरुद्ध है। दलीय गोटियां बिठाने के साथ-साथ वोट बैंक राजनीति के कार्ड भी फेंटे जा रहे हैं। वंचित वर्ग की महिला के रूप में मीरा कुमार का नाम चलाया जा रहा है, तो मुस्लिम चेहरे के रूप में उप राष्ट्रपति डा.हामिद अंसारी का नाम भी आगे किया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि अकेली कांग्रेस ही वोट बैंक राजनीति खेल रही है। सड़क पर विरोध का नाटक कर संसद में कांग्रेस सरकार का समर्थन करने वाले समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल सरीखे दल भी यही खेल खेल रहे हैं। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव हामिद अंसारी की वकालत कर रहे हैं तो सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव हर दूसरे दिन अपनी पसंद बदल रहे हैं। पहले उन्होंने उन डा.कलाम का नाम सुझाया, जिनसे बात करने के बाद वर्ष 2008 में परमाणु करार पर मनमोहन सिंह सरकार का समर्थन करने का दावा किया था, फिर हामिद अंसारी का नाम आगे बढ़ाया और अब वह मुख्य चुनाव आयुक्त डा.एस.वाई कुरैशी के पक्ष में बताये जा रहे हैं। कांग्रेस और उसके इन अवसरवादी मित्र दलों के आचरण से यह समझ पाना मुश्किल है कि वे देश के लिए नया राष्ट्रपति चुनना चाहते हैं या अगले लोकसभा चुनाव की बिसात का एक मोहरा।
टिप्पणियाँ