खबर राज्यों से
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जम्मू–कश्मीर/ विशेष प्रतिनिधि
महाराजा हरिसिंह प्रतिमा अनावरण पर कांग्रेसी तमाशा
राजनीति भी एक विचित्र खेल है। पिछले दिनों जम्मू में उसी कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर रियासत के उन्हीं महाराजा हरिसिंह की प्रतिमा का अनावरण किया जिन्हें कांग्रेस के ही बड़े नेताओं ने राज्य से बाहर रहने पर विवश कर दिया था। और तब महाराजा हरिसिंह को अपने राज्य से बाहर लगभग 20 वर्षों तक एक तरह से निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा। और जब 26 अप्रैल, 1961 को मुम्बई में उनका निधन हुआ तब उनके परिवार तक का कोई भी सदस्य उनके पास नहीं था।
जम्मू तथा अन्य निकटवर्ती कस्बों से लम्बे कालखण्ड से यह मांग उठ रही थी कि जिन महाराजा हरि सिंह ने देश के पीड़ादायक बंटवारे के पश्चात भारत के साथ अपनी रियासत का विलय किया था, उन महाराजा की अन्य कई महापुरुषों की भांति जम्मू में प्रतिमा लगाई जाए। इस मांग को जम्मू विकास प्राधिकरण ने सैद्धान्तिक रूप से कई वर्ष पूर्व स्वीकार कर लिया था किन्तु प्रतिमा लगाने का काम तथा उसका अनावरण करने का विषय कई महीनों तक लटका रहा। अब जबकि राज्य में नगर निकायों के चुनाव की चर्चा चल रही है तब जम्मू में तवी नदी के किनारे महाराजा हरि सिंह की प्रतिमा के अनावरण की घोषणा कर दी गई। बताया गया कि केन्द्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद तथा सांसद डा. कर्ण सिंह महाराजा हरि सिंह की प्रतिमा का अनावरण करेंगे। इस घोषणा के पत्र-पत्रिकाओं में सरकारी खर्च पर बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाए गए। मीडिया में अच्छी खासी चर्चा की गई, जिस पर लाखों रुपए का खर्च हुआ। किन्तु जिस हेतु समारोह का आयोजन किया गया वह पीछे रह गया और पूरा आयोजन एक कांग्रेसी तमाशा जैसा दिखा।
प्रतिमा के अनावरण समारोह में महाराजा हरि सिंह का उल्लेख नाममात्र को किया गया और कांग्रेस को मजबूत बनाने की चर्चा अधिक हुई। मुख्य वक्ता गुलाम नबी आजाद ने सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जम्मू कश्मीर की कांग्रेस में कोई गुटबाजी नहीं है, सभी कांग्रेसी एकजुट हैं व सभी राज्य की गठबंधन सरकार को सुदृढ़ बनाने में लगे हैं। उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। वहीं कुछ कांग्रेसी वक्ता यह कह रहे थे कि आजाद के बिना जम्मू-कश्मीर की जनता की समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है और राज्य की जनता गुलाम नबी आजाद की प्रतीक्षा में है।
उल्लेखनीय यह भी है कि इस समारोह में डा. कर्ण सिंह तथा उनके पुत्र आजातशत्रु सिंह, जो पूर्व मंत्री तथा विधान परिषद सदस्य भी हैं, अनावरण समारोह में तो पहुंचे किन्तु जनसभा में भाग नहीं लिया। सभा में नेशनल कान्फ्रेंस तथा अन्य राजनीतिक दलों का कोई प्रतिनिधि उपस्थित नहीं हुआ। भाजपा, पैंथर्स पार्टी तथा कई अन्य दलों के सदस्यों ने विधानसभा में इस बात पर रोष व्यक्त किया कि सरकारी खर्च पर आयोजित इस समारोह को पूरी तरह कांग्रेस की जनसभा बना दिया गया था। दूसरे दलों के प्रमुखों को आमंत्रण पत्र तक नहीं भेजे गए थे। जबकि पूरे प्रदेश की जनता महाराजा का सम्मान करती है।
इस आयोजन के साथ ही यह भी चर्चा शुरू हो गई है कि जिन महाराजा को जवाहर लाल नेहरू ने अपने मित्र शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को प्रसन्न करने के लिए राज्य से बाहर का रास्ता दिखाया था, आज वही कांग्रेस उन्हीं महाराजा की प्रतिमा का अनावरण करके अपनी राजनीतिक रोटियां क्यों सेकना चाहती है? इस संबंध में डोगरी भाषा की एक कहावत उचित लगती है-
जिन्दगी ढांगा मोएं गी भांगा
अर्थात जीवित पर डण्डे बरसाना, मरणोपरांत दुख व्यक्त करना और ®úÉäxÉÉ*n
उत्तर प्रदेश/सुभाष चन्द्र
मुलायम की मजहबी राह पर अखिलेश
सिलसिलेवार बम धमाकों के दो आरोपियों को छोड़ेगी सरकार
उत्तर प्रदेश में नवनिर्वाचित समाजवादी पार्टी की सरकार ने मजहबी रंग दिखाना शुरु कर दिया है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जरूर हैं लेकिन सारे फैसले पिता मुलायम सिंह यादव की वोट बैंक राजनीति को ध्यान में रखकर ही ले रहे हैं। तभी तो फैजाबाद, वाराणसी तथा लखनऊ के न्यायालय परिसरों में सिलसिलेवार बम धमाकों के दो आरोपियों को रिहा करने की तैयारी कर ली गई है। ये आरोपी हैं तारिक कासमी तथा खालिद मुजाहिद। तारिक आजमगढ़ की रानी की सराय कस्बे के निकट सम्मोही का निवासी है जबकि खालिद जौनपुर की मड़ियाहू तहसील के महतवान मोहल्ले का रहने वाला है। वर्ष 2007 के उक्त तीनों न्यायालय परिसरों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के ये आरोपी हैं। इन धमाकों में कई लोग मारे गए थे। लखनऊ कचहरी विस्फोट के मामले में पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स ने इन दोनों को 22 दिसम्बर, 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से आर.डी.एक्स. व अन्य हथियारों के साथ गिरफ्तार किया था। सपा तथा कुछ अन्य दलों ने इस पर हंगामा किया तो मायावती सरकार ने जांच के लिए निमेश आयोग का गठन किया। कई सुनवाइयां हुईं लेकिन आयोग अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा। इस बीच सपा की सरकार आ गई और उसने मुलायम सिंह यादव के इशारे पर इन दोनों को छोड़ने की कानूनी प्रक्रिया शुरू कर दी। राज्य के गृह विभाग ने इस सम्बन्ध में विधि विभाग से राय मांगी है। स्पेशल टास्क फोर्स तथा आतंकवाद निरोधक दस्ते से भी इस विषय में उपलब्ध सबूतों के बारे में पूछा गया है।
सरकार के इस कदम पर विपक्ष खासा नाराज है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रमोद तिवारी ने एक समाचार पत्र को दी अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि अगर दोनों निर्दोष हैं तो रिहा होने चाहिए लेकिन ध्यान रखने की आवश्यकता है कि आतंकवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है। सरकार किसी दोषी को मुक्त करने की पहल करेगी तो कांग्रेस विरोध करेगी। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही का कहना है कि सपा राष्ट्रीय हितों के साथ खेल खेल रही है। वोट बैंक व मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते सरकार निदोर्षों की हत्या करने वाले आतंकवादियों के प्रति नरमी दिखा रही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी अपने पिता मुलायम सिंह यादव की वोट बैंक राजनीति की राह पर चलते दिख रहे हैं। n
पंजाब/राकेश सैन
'कैप्टन' ऐसा हो तो टीम हारेगी ही!!
हार के बाद मचा कांग्रेस में घमासान
पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कैप्टन. अमरेन्द्र सिंह व पार्टी की एक और दिग्गज राजिन्दर कौर भट्टल के बीच राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार को लेकर हाल में हुई तीखी नोक झोंक ने पार्टी की कलह को सतह पर ला दिया है। गत बुधवार को पार्टी बैठक में तो जमकर हंगामा हुआ और कई प्रमुख नेताओं ने कैप्टन से त्यागपत्र मांगा। चौदहवीं विधानसभा के लिए सम्पन्न हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी जीत के प्रति इतनी आश्वस्त थी कि मंत्री पदों के लिए परस्पर संघर्ष भी शुरू हो गया था, परंतु परिणामों के रूप में हुए वज्रपात के बाद यही संघर्ष अब अन्दरूनी कलह में बदल चुका है। भले ही पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस पराजय का विश्लेषण करते हुए हार का ठीकरा मनप्रीत बादल के नेतृत्व वाली नवगठित पंजाब पीपुल्स पार्टी के सिर फोड़ा है परंतु स्थानीय व जमीन से जुड़े कांग्रेसी नेताओं को यह विश्लेषण हजम नहीं हो पा रहा है।
मतगणना के दिन तक कैप्टन अमरेन्द्र सिंह 70 सीटें जीतने का दावा करते रहे, परंतु हाथ लगीं 46 सीटें, जो बहुमत के लिए आवश्यक 59 सीटों के आंकड़े से काफी पीछे थीं। विधानसभा चुनाव परिणामों से निराश कांग्रेसी नेताओं ने अब कैप्टन अमरेन्द्र सिंह पर एक के बाद एक आरोप लगाने शुरू कर दिये हैंै। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की कार्यशैली पर नाराजगी जताने वालों ने उनके विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान भी शुरू कर दिया है और अपने-अपने स्तर पर कांग्रेस आलाकमान को पंजाब में कांग्रेस की हार पर रपट भी भेज रहे हैं। कांग्रेस ने जब 2012 के पंजाब विधानसभा चुनाव कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में लड़ने की घोषणा की तो उसका दबाव अकाली-भाजपा गठबंधन, विशेषकर बादल पिता-पुत्र पर भी पड़ा। कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं को लगा कि कैप्टन अमरेन्द्र सिंह बादल परिवार को चुनौती देने में सफल रहेंगे। लेकिन समय बीतने के साथ कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को लेकर जो आशा कांग्रेस समर्थकों ने लगाई थीं, निराशा में बदलने लगीं, क्योंकि कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की कार्यशैली में किसी को कोई नयापन दिखाई नहीं दिया। इसके विपरीत कैप्टन अमरेन्द्र सिंह अति आत्मविश्वास से भरे दिखाई दिए। उनका संपर्क कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं से तो बन ही नहीं पाया, आम आदमी को भी लगा कि कैप्टन अमरेन्द्र सिंह अहंकार से भरे हैं।
चाटुकारों से घिरे
दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर सोनिया और राहुल की स्तुति करने वालों की कमी नहीं है तो पंजाब में भी कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के दरबार में स्तुति करने वालों की लम्बी-कतार थी। चापलूसों ने ऐसा माहौल बना दिया कि पंजाब में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के ही नेतृत्व में कांग्रेस विजयी होकर निकलेगी। चापलूसों की बनाई हवा से कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व जमीनी सच्चाई को देखने में असफल रहा। परिणामस्वरूप कांग्रेस के भीतर टिकट चाहने वालों की संख्या बढ़ती चली गई। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह और प्रदेश प्रभारी गुरचैन सिंह चाड़क की जोड़ी ने टिकटों की बंदरबांट में पार्टी हित की अनदेखी की और व्यक्तिगत हित को प्राथमिकता दी। परिवारवाद, जातिवाद के साथ-साथ पैसे के चढ़ावे ने भी एक बड़ी भूमिका निभाई। टिकट वितरण में धांधली के विरोध में जो लोग चुनाव मैदान में आजाद उम्मीदवार के रूप में उतरे या फिर अन्य दलों में गए, उन्हें मनाने के भी कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए, क्योंकि दिमाग में एक ही बात बैठी थी कि हमारी जीत पक्की है।
कांग्रेस की गलत नीतियों के परिणामस्वरूप दोआबा, जो कभी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था, में आज कांग्रेस बहुत कमजोर हो चुकी है। जालंधर जिले की 9 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुई। शिरोमणि अकाली दल (बादल) के प्रमुख प्रकाश सिंह बादल ने एक गुणात्मक परिवर्तन करते हुए अकाली दल को समूचे पंजाबियों की पार्टी के रूप में बदलने में सफलता पाई। शायद पहली बार है कि अकाली दल (बादल) ने पंजाबी हिन्दू समाज के 11 उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे और उनमें से 10 उम्मीदवार विजयी भी हुए। इसी तरह भाजपा के सिख उम्मीदवार भी विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रहे हैं।
आम आदमी से बढ़ती दूरी
उधर कांग्रेस के भीतर भट्टल धड़े सहित अन्य वर्गों को जिस तरह किनारे किया गया उससे आम आदमी की नजरों में कांग्रेस की साख कमजोर होती चली गई, परिणामस्वरूप कांग्रेस का आधार भी कमजोर होता चला गया। अब पंजाब के प्रमुख कांग्रेसी नेता व सांसद प्रताप सिंह बाजवा, पूर्व मुख्यमंत्री राजिन्दर कौर भट्टल, विधायक सुखपाल खैरा, सांसद रवनीत बिट्टू ने साफ तौर पर आरोप लगाए हैं कि कैप्टन की कार्यप्रणाली के चलते राज्य में कांग्रेस की हार हुई है। इनका कहना है कि कैप्टन को मिलने के लिए आम जनता तो क्या, सांसद और विधायकों तक को घंटों इंतजार करना पड़ता है। राज्य की जनता से वे पूरी तरह कटे हुए हैं, चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, पांच सालों बाद ही नजर आते हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि कैप्टन अपने 34 समर्थकों को पार्टी टिकट दिलवाने में सफल रहे, परंतु उनमें से केवल 2 ही चुनाव जीत पाए हैं और उनका पुत्र रणइंदर सिंह भी चुनाव हार चुका है। फिलहाल उत्तर प्रदेश में मिली करारी हार से कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व सन्निपातग्रस्त है। वह पंजाब कांग्रेस में चल रहे भीतरी संघर्ष के बारे में कुछ कर पाएगा, इसको लेकर भीसंशय ½èþ*n
केरल/ प्रदीप कृष्णन
उप चुनाव में हार व विधायक के त्यागपत्र से सांसत में
माकपा में गुटबाजी का जोर विजयन की तानाशाही चरम पर
पिरावम में 17 मार्च को होने वाले उपचुनाव से पूर्व ही केरल के माकपाई नेता यह ख्वाब देखने लगे थे कि वे यह उपचुनाव जीत ही जाएंगे और तब विधानसभा में उनकी संख्या 69 हो जाएगी। सत्तारूढ़ संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ), जिसे बहुमत से मात्र 1 सीट अधिक, कुल 71 विधायकों का समर्थन ही प्राप्त है, के 2 या 3 साथी तोड़कर वाममोर्चा एक बार फिर सत्ता पर कब्जा कर लेगा। पर खुली आंखों से दिन में ही सपना देख रहे माकपाई नेताओं को उन्हीं के दल के एक विधायक ने विधानसभा और पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र देकर धरती पर ला पटका। इधर 9 मार्च को तिरुअनंतपुरम की नेय्यातिन्नकारा विधानसभा सीट से दो बार विधायक आर. सेल्वाराज ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता, सभी पदों और विधानसभा से त्यागपत्र दिया तो विधानसभा में वाममोर्चे की संख्या घटकर 67 रह गई और उधर पिरावम उप चुनाव में भी वाममोर्चे के प्रत्याशी को 12 हजार से अधिक मतों के अंतर से हार का स्वाद चखना पड़ा और यूडीएफ और अधिक मजबूत हो गया।
9 मार्च को जिस तरह से आर. सेल्वाराज ने अचानक पार्टी और विधानसभा से त्यागपत्र दिया, वह भी कम चौंकाने वाला घटनाक्रम नहीं था। पार्टी नेतृत्व को तो इसकी भनक तक नहीं थी कि उनका एक वरिष्ठ साथी पार्टी में व्याप्त तानाशाही और गुटबाजी से इस कदर आहत है कि विधानसभा से ही त्यागपत्र दे देगा। मीडिया के सामने अपने त्यागपत्र की घोषणा करते हुए सेल्वाराज ने साफ कहा कि माकपा के भीतर व्याप्त गुटबाजी से उनका दम घुटने लगा था। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का व्यवहार तानाशाह जैसा है। अधिकांश वरिष्ठ माकपाई नेताओं के बैंकों में गुप्त खाते हैं और वे बेनामी सम्पत्ति के भी मालिक हैं। और पार्टी में जिन कुछ इने-गिने लोगों की मार्क्सवाद और मार्क्सवादी प्रतीकों पर दृढ़ आस्था है उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन का पिछलग्गू बताकर निशाना बनाया जा रहा है। सेल्वाराज ने सभी पदों से त्यागपत्र देने का कारण यह भी बताया कि उनकी यह स्पष्ट धारणा बन चुकी है कि वर्तमान पार्टी नेतृत्व किसी भी विपरीत परिस्थिति में उनका, उनके परिवार व उनके समर्थकों का संरक्षण नहीं करेगा।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले 3 वर्षों के दौरान सेल्वाराज ऐसे चौथे वरिष्ठ पार्टी कार्यकर्ता हैं जिन्होंने माकपा से त्यागपत्र दिया है। उनके द्वारा त्यागपत्र देने के बाद माकपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया है। इससे पूर्व पार्टी के सांसद ए.पी. अब्दुल्ला कुट्टी को मार्च, 2009 में इसलिए पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी द्वारा गुजरात में किए जा रहे विकास के कार्यों की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा कर दी थी। फिर जनवरी, 2010 में पूर्व सांसद व समर्पित ईसाई के.एस. मनोज ने पार्टी की अनीश्वरवादी या नास्तिक विचारधारा को कारण बताते हुए पार्टी छोड़ दी। फरवरी, 2010 में पूर्व सांसद व वंचित वर्ग के नेता एस. शिवरामन ने भी पार्टी नेतृत्व के तानाशाहीपूर्ण रवैये के कारण पार्टी छोड़ने की घोषणा की।
दरअसल देश भर में केवल केरल में ही माकपा की सबसे सशक्त इकाई है। इसके बाद ही प. बंगाल का नम्बर आता है। लेकिन माकपा की इस सबसे सशक्त इकाई में भी तानाशाही और गुटबाजी अपने चरम पर है। पिछले विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा यहां मामूली अंतर से हार गया और मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन का धड़ा कमजोर पड़ गया। इधर कन्नूर की सबसे सशक्त जिला इकाई की बदौलत केरल माकपा पर कब्जा जमा चुके पार्टी के राज्य सचिव पिनरई विजयन का रवैया तानाशाह जैसा होता गया। इस सबमें विजयन को पार्टी महासचिव प्रकाश करात का वरदहस्त प्राप्त था। लेकिन लगता है कि प्रकाश करात को भी इस बात का अहसास हो गया है कि पानी अब सिर से ऊपर निकल रहा है। इसीलिए सेल्वाराज के त्यागपत्र पर सवालों की बौछार में विजयन का बचाव न करते हुए पार्टी महासचिव ने कहा कि यह सब आप पिनरई विजयन से ही क्यों नहीं पूछते।
खबर है कि नेय्यातिन्नकारा से विधायक आर. सेल्वाराज द्वारा अचानक दिए इस्तीफे से पार्टी नेतृत्व सकते में हैं। अब पार्टी द्वारा गठित एक गोपनीय समिति अपने सभी विधायकों की निगरानी करेगी। पार्टी की राज्य इकाई ने सभी जिला सचिवों को निर्देश दिया है कि वह क्षेत्रीय स्तर पर एक गोपनीय कमेटी बनाकर अपने स्थानीय माकपाई जन प्रतिनिधियों की गतिविधियों पर नजर रखें। यानी पार्टी अपने ही विधायकों की जासूसी कराने पर मजबूर हो गयी है।
अब 5 अप्रैल से कोझिकोड़ में शुरू हुई माकपा की 20वीं राष्ट्रीय कांग्रेस में 1977 के बाद से लगातार 34 साल तक पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ रहे वाममोर्चे की करारी हार पर चर्चा और उसकी कारण मीमांसा तो होगी, पर केरल में मात्र 1 प्रतिशत कम मत और 3 सीटों के मामूली अंतर से हार को पार्टी बहुत गंभीरता से नहीं ले रही है। लेकिन पार्टी सचिव विजयन की तानाशाही और राज्य इकाई में व्याप्त गुटबाजी को कितनी गंभीरता से लेती है, या विजयन द्वारा पार्टी कांग्रेस के लिए की गई भव्य तैयारी के कारण उसे नजरंदाज करती है, यह कुछ दिनों में ही स्पष्ट हो जाएगा। n
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