साहित्यिकी गवाक्ष
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शिवओम अम्बर
होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन
कालजयी रचनाएं हर युग में अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करते हुए अभिनव सन्दर्भों के साथ संयुक्त होती हैं। वर्तमान परिवेश में रामनवमी की पवित्र तिथि महाप्राण निराला की “राम की शक्तिपूजा” की पुन: पुन: याद दिला रही है। निराला की यह अमर रचना अवसादग्रस्त राम के अन्त: संघर्ष की गाथा और है उनके अभिनव पुरुषोत्तम के रूप में ढलने का आख्यान है। आज भी चारों तरफ रामत्व पर संकट है। पहली दृष्टि में रावण पर ही महाशक्ति की कृपा नजर आ रही है। कुछ मोर्चों पर राम की पराजय दिखती है और वह विषाद-त्रस्त्र भी हैं अवसादग्रस्त भी। “शक्ति-पूजा” का प्रारम्भ ही सूर्य के अस्त होने के विवरण से होता है-
रवि हुआ अस्त
ज्योति के पत्र पर लिखा अमर,
रह गया
राम-रावण का अपराजेय समर।
युद्धस्थल से भारी कदमों से लौटते राम अपने भुवनविख्यात बाणों की आज की असफलता से अधिक इस बात से विक्षुब्ध हैं कि उनकी भावदृष्टि ने रावण का रक्षा-कवच बनी महाशक्ति को देखा है। “अन्याय जिधर है उधर शक्ति” का दंश उनके चित्त से निकल नहीं पा रहा और वह समझ नहीं पा रहे हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले, न्याय के लिए संघर्ष करने वाले उनके साथ न होकर महाशक्ति रावण को अंक में लेकर क्यों बैठी हैं? उनका मानवीय विक्षोभ प्रज्ज्वलित प्रश्नचिह्न बन जाता है, रात्रि का अन्धकार उनके लिए और भी गहन हो उठता है और वह निराशा की लौह-श्रृंखला से स्वयं को जकड़ा हुआ अनुभव करने लगते हैं। उनका सारा व्यक्तित्व नि:श्वास बनकर कराह उठता है और उनका नैराश्य समग्र सेना में संक्रमित हो उठता है।
ऐसे अवसर पर स्थिरमति जाम्बवन्त का प्रबोधन प्रस्फुटित होता है। वह श्रीराम को समझाते हैं कि शक्ति स्वाभावत: निरपेक्ष है, कोई भी अपनी साधना के द्वारा उसके साथ जुड़ सकता है। (आधुनिक सन्दर्भों में हम समझ सकते हैं कि परमाणु शक्ति आतंकवादियों को भी हस्तगत हो सकती है। एक वैज्ञानिक उसका लोकोपकारक उपयोग करने को उद्यत होगा किन्तु एक अधिनायक उसका विध्वंसक प्रयोग भी कर सकता है!) यदि किसी सात्विक चेतना से युक्त व्यक्ति के पास राक्षसी प्रकृति के व्यक्तियों की तुलना में प्रहारक क्षमता कम है तो उसे शक्ति की साधना करनी चाहिए, शान्ति की चर्चा नहीं, यह साहस के क्षरण का नहीं अभिनव संकल्प के वरण का क्षण है-
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान्, रघुवर
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर
तो निश्चय तुम हो शुद्ध करोगे उसे ध्वस्त
श्रीराम को जाम्बवान् का यह मत अभिनन्दनीय लगता है। वह उसे स्वीकार कर शीश झुकाते हुए जाम्बवान् के वार्द्धक्य का अभिनन्दन करते हैं। इस अवसर पर वयस् की ज्येष्ठता अनुभव और चिन्तन की श्रेष्ठता से भी संयुक्त होने के कारण हर तरह से स्पृहणीय नजर आती है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश में महाराज दिलीप के व्यक्तित्व-वर्णन के प्रसंग में जराग्रस्तता और वार्द्धक्य के अन्तर को रेखांकित किया है। महाभारत का साक्ष्य है कि वह सभा वास्तविक सभा नहीं है जिसमें वृद्धजन उपस्थित न हों और वे वृद्ध वस्तुत: वृद्ध नहीं हैं जो धर्म का प्रतिपादन न करें-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा:
वृद्धा: न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
सभावृद्ध का उचित अवसर पर यथेष्ट धर्म अर्थात्, कत्र्तव्य कर्म का उपदेश श्रीराम के आचरण की दिशा-निर्देशित करता है और वह संकल्पित होकर शक्ति साधना में तल्लीन हो जाते हैं।
साधना के मार्ग पर विघ्नों का प्रवेश भी होता ही है। श्रीराम ने एक सौ आठ इन्दीवरों के अर्पण का संकल्प लिया था। हर पुरश्चरण के उपरान्त एक कमल अर्पित करना था। अन्तिम पुरश्चरण से पूर्व अचानक एक इन्दीवर अदृश्य हो जाता है और श्रीराम साधना में पड़े इस व्यवधान से आघातित होते हैं-
धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोध
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
किन्तु विषाद के इस वात्याचक्र में भी उनके भीतर-भीतर एक अदैन्य भाव जाग्रत रहता है जो किसी भी समस्या के समाधान तक पहुंचने में समर्थ है। वह स्मृति में संरक्षित मां के सम्बोधनों से समस्या को हल करता है और महाशक्ति को “राजीवनयन” अर्पित करने की प्रेरणा प्रदान करता है। श्रीराम का दृढ़ निश्चय महाशक्ति को कठोर परीक्षिका से वत्सला मां में परिवर्तित कर देता है-
ले अस्त्र वाम कर दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन
जिस क्षण बंध गया बेधने का वो दृढ़ निश्चय
कांपा ब्रह्माण्ड हुआ देवी का त्वरित उदय
साधु-साधु साधक वीर धर्म धन-धान्य राम
कह लिया भगवती ने राघव का हस्त धाम
श्रीराम की शक्तिपूजा सफल होती है। महाशक्ति महिषासुर मर्दिनी के रूप में उन्हें दर्शन देती हैं। उनका वाम पद असुर के स्कन्ध पर है और दाहिना सिंह पर है। यह रूप जैसे भविष्य के घटनाक्रम की सूचना है। आराध्या की रूप-कल्पना करते हुए राम ने स्वयं को सिंह के रूप में भावित किया था। उनकी भाव-याचना स्वीकृत हो गई है। विविध अस्त्र-सज्जिता शिवसंयुक्त महाशक्ति सरस्वती तथा लक्ष्मी के साथ-साथ कार्तिकेय और गणेश को भी लिए हैं। श्रीराम इस दर्शन को पाकर विमुग्ध हैं, श्रद्धानत हैं-
हैं दक्षिण में लक्ष्मी सरस्वती वाम भाग
दक्षिण गणेश कार्तिक बाएं रण-रंग-राग
मस्तक पर शंकर, पद पद्मों पर श्रद्धा भर
श्रीराघव हुए प्रणत मन्द-स्वर-वन्दन कर
यह अत्यंत प्रतीकात्मक दृश्यावली है। शिव की सर्वोच्च स्तर पर उपस्थित शिवत्व के लिए किए जा रहे युद्ध के प्रति महाशिव की सदाशयता का अभिव्यञ्जन है। तपस्या तो रावण की भी पुरस्कृत होने का प्रारब्ध लिए है किन्तु जब कोई राघव दृढ़तर आराधन की तपोनिष्ठा से संयुक्त होता है समग्र पराप्रकृति मुस्करा उठती है, दिव्यता का हर आयाम सहज ही उसका संरक्षण बन जाता है। शम् अर्थात् कल्याण के कर्ता शंकर सर्वदा और सर्वथा उसकी सुरक्षा और संरक्षा में सन्नद्ध रहते हैं। स्वयं श्री आगे बढ़कर उसका स्वागत करती हैं तो सरस्वती उसकी निर्मलता पर आंच नहीं आने देतीं। विघ्नविनाशक गणपति का विवेक और देवसेनापति कार्तिकेय का पराक्रम उसे वरदान रूप में अनायास प्राप्त हो जाता है। शिवत्व-शक्तिमत्ता-श्री-वाग्विभा-विवेक और पराक्रम के षट्कोण में प्रतिष्ठित उसका विनयशील व्यक्तित्व पुरुष से पुरुषोत्तम में परिवर्तित हो जाता है और वह नए बोध का द्रष्टा तथा नव्य युग का स्रष्टा बन जाता है।
होगी जय होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।।
श्री रामनवमी के इस पावन पर्व पर महाप्राण निराला की इस अमृत रचना की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए सत्यं-शिवं-सुन्दरम् की अवतरणा में लगे हुए समस्त युग-साधकों से निवेदन करना चाहता हूं कि साधना मार्ग में आने वाली सामयिक बाधाओं और असफलताओं से अवसादग्रस्त न हों, अपनी चेतना में प्रज्ञावन्त जाम्बवन्त के इस निर्देश को गुञ्जित होने दें-आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
विश्वास रखें, अन्तत: श्रीराम की शक्तिपूजा सफल होती है। द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
धरती का है हर एक रतन मिट्टी का
रेशम का दुशाला और कफन मिट्टी का,
इन्सां का मगर शौक तो देखो जौहर
सोने का बटन और बदन मिट्टी का।
-जितेन्द्र जौहर
दिल की बातें दिल तक पहुंचें,
यानी वो मंजिल तक पहुंचें।
दरिया में जो साथ हमारे,
सबके सब साहिल तक पहुंचें।
कटे हुए हैं ख्वाब किसी के,
कैसे हम कातिल तक पहुंचें।
-डा. कमलेश द्विवेदी
इस बच्चे को देखो
द योगेन्द्र वर्मा “व्योम”
इस बच्चे को देखो, यह ही
नवयुग लाएगा
संबंधों में मौन शिखर पर
बंद हुए संवाद
मौलिकता गुम हुई कहीं, अब
हावी है अनुवाद
घुप्प अंधेरे में आशा की
किरण जगाएगा
… नवयुग लाएगा।
घुटन भरा हर पल लगता ज्यों
मुड़ा-तुड़ा अखबार
अपनों के अपनेपन में भी
शामिल है व्यापार
नई तरह से यह उलझी
गुत्थी सुलझाएगा
… नवयुग लाएगा।
सोच नई है, दिशा नई है
नया-नया उत्साह
खोज रहा है नभ में प्रतिदिन
उजले कल की राह
यह भविष्य में एक नया
इतिहास बनाएगा।
… नवयुग लाएगा।
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