मंथन
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देवेन्द्र स्वरूप
आज हमने 25,000 संगीनों की छत्रछाया में भारतीय गणतंत्र की 62वीं वर्षगांठ मनायी। इन 62 वर्षों में हमारा गणतंत्र संविधान में अंगीकृत आदर्शों से कितना दूर भटक चुका है, इसका ज्वलंत उदाहरण सलमान रुशदी प्रकरण और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को पाने के लिए “सेकुलरिज्म” की कसमें खाने वाले तीन बड़े दलों-बसपा, सपा और सोनिया कांग्रेस के बीच लगी होड़ से मिल जाता है। सोनिया के चुनावी प्रवक्ता दिग्विजय सिंह ने आजमगढ़ यात्रा के दौरान बटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी कहने का अभियान शुरू करके मुस्लिम कट्टरवाद को रिझाने की प्रक्रिया आरंभ की। राहुल ने मजहबी कट्टरवादियों से गुप्त मुलाकातें करके इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। मायावती ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर मुसलमानों को आरक्षण देने के सवाल को सार्वजनिक तौर पर उठाया। सोनिया ने अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे से मुसलमानों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा लोकपाल विधेयक में जोड़कर लोकसभा में आरक्षणवादी दलों में दरार पैदा की। केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने सत्ता में आने पर मुसलमानों को 9 प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा कर जानबूझकर चुनाव आयोग को इस बहस में घसीट लिया, ताकि विषय जिंदा रहे। सोनिया पार्टी की पतंग काटने के लिए मुलायम सिंह की वंशवादी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कर दिया। मायावती ने इन सबकी काट करने के लिए 403 प्रत्याशियों की अपनी सूची में 85 मुसलमानों के नाम घोषित कर दिए। यह तीनों दल यह सिद्ध करने की कोशिश में लगे हैं कि वही मुसलमानों के सबसे बड़े हित-चिंतक हैं और यह सिद्ध करने का एकमात्र तरीका है उन्हें आरक्षण देना और मजहबी आधार पर प्रतिनिधित्व देना।
रुशदी प्रकरण
स्वाभाविक रूप से इस वोट बैंक की दौड़ से मुस्लिम समाज में मजहबी कट्टरवाद और पृथकतावाद को बल मिला है। इसी कट्टरवाद का प्रकट रूप प्रसिद्ध मुस्लिम लेखक सलमान रुशदी की भारत यात्रा के विरोध के रूप में सामने आया। सितम्बर, 1988 में लंदन से सलमान रुशदी की पुस्तक “सैटेनिक वर्सेज” प्रकाशित हुई थी, वह भारत पहुंची भी नहीं थी, किसी ने उसे पढ़ा भी नहीं था कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संस्थापक और “मुस्लिम इंडिया” नामक मासिक के संपादक सैयद शहाबुद्दीन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को पत्र लिखकर उस पुस्तक पर अविलम्ब प्रतिबंध लगाने की मांग की, क्योंकि उनके अनुसार, उस पुस्तक में पैगम्बर मुहम्मद की वृद्धावस्था में नौ वर्षीय आयशा से चौथी शादी को इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे हजरत मुहम्मद के प्रति मुस्लिम श्रद्धा को आघात पहुंचता है। और इस एक चिट्ठी के आधार पर भारत जैसे सेकुलर देश के प्रधानमंत्री ने बिना पुस्तक पढ़े, उसके प्रकाशन के केवल 9 दिन बाद, 5 अक्तूबर, 1988 को उसका भारत में आयात प्रतिबंधित कर दिया। उधर, ईरान के मजहबी तानाशाह अयातुल्लाह खुमैनी ने “सैटेनिक वर्सेज” को इस्लाम विरोधी कहकर रुशदी की हत्या का फतवा जारी कर दिया। तब से ही ब्रिटिश सरकार ने उनकी सुरक्षा के लिए भारी सुरक्षा प्रबंधों पर अपार धनराशि खर्च की है। सलमान रुशदी की भारत में सम्पत्ति है और उन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त है, इसलिए वे बीच-बीच में भारत आते रहे हैं। पांच वर्ष पहले जयपुर में आयोजित साहित्य सम्मेलन में भी वे पूरे तीन दिन तक सम्मिलित रहे। तब उनके भारत आगमन का कोई विरोध नहीं हुआ था। किन्तु इस बार सेकुलर पार्टियों के बीच मुस्लिम वोटों को रिझाने की होड़ से उत्साहित होकर कुछ कट्टरवादियों ने जयपुर साहित्य सम्मेलन में सलमान रुशदी के आगमन के विरुद्ध बबाल शुरू कर दिया। इस दिशा में पहल की देबबंद के दारुल उलूम ने। दारुल उलूम ने फतवा जारी किया कि सलमान रुशदी को भारत प्रवेश का वीजा न दिया जाए। इसके जवाब में रुशदी ने कहा कि भारतीय नागरिक होने के नाते मुझे वीजा की कोई कानूनी आवश्यकता ही नहीं है, मैं बिना वीजा के ही आ सकता हूं। दारुल उलूम के फतवों के बाद विभिन्न मुस्लिम मजहबी संगठनों और सेकुलर पार्टियों के मुस्लिम राजनेताओं में रुशदी के आगमन के विरोध की होड़-सी लग गयी। केन्द्र और राजस्थान-दोनों जगह सोनिया पार्टी के सत्तारूढ़ होने के कारण रुशदी का भारत आगमन उत्तर प्रदेश चुनावों के मद्देनजर सोनिया पार्टी के गले की हड्डी बन गया। एक ओर देश का मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग था जो सलमान रुशदी की अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य की रक्षा की गुहार लगा रहा था, दूसरी ओर संगठित मुस्लिम वोटों के सहारे उत्तर प्रदेश के चुनाव जीतकर केन्द्र में राहुल के अभिषेक का सपना लुभा रहा था।
छल और फरेब का रास्ता
इस उलझन से बाहर निकलने के लिए सोनिया पार्टी ने छल और फरेब का रास्ता अपनाया। एक ओर चिदम्बरम के गृह मंत्रालय ने घोषणा की कि भारत में प्रवेश के लिए रुशदी को वीजा की कोई आवश्यकता नहीं है, दूसरी ओर राजस्थान सरकार को निर्देश दिया कि रुशदी की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी उस पर है। राजस्थान सरकार ने सलमान रुशदी को गुप्त रूप से सूचित किया कि महाराष्ट्र के गुप्तचर विभाग ने चेतावनी दी है कि उनकी हत्या के लिए वहां के तीन डान या बाहुबलियों ने हत्यारों को हथियार एवं पैसा मुहैया कराया है। मौलानाओं ने रुशदी के हिंसक विरोध की धमकियां देना शुरू कर दीं। जिनसे डर कर रुशदी ने जयपुर आने का विचार त्याग दिया। साहित्य समारोह में एकत्र देशभर के हजारों साहित्यकर्मी कुछ कट्टरवादियों के दबाव में अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के हनन के इस दृश्य से बहुत आहत और आक्रोशित हुए। तब चार वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपने अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का प्रदर्शन करने के लिए “सैटैनिक वर्सेज” के कुछ अंशों का सार्वजनिक पाठन कर दिखाया। इन साहित्यकारों को एक प्रतिबंधित पुस्तक का सार्वजनिक पाठन करने के अपराध में गिरफ्तारी का भय दिखाकर साहित्य महोत्सव से बाहर जाने को बाध्य किया गया। कानूनन “सैटेनिक वर्सेज” का भारत में आयात प्रतिबंधित है, न कि उसका वाचन या अध्ययन। अत: यह भी छल हुआ। अंत में तय हुआ कि यदि हिंसा के भय से रुशदी इस समारोह में सशरीर उपस्थित नहीं हो पा रहे हैं तो वे इंग्लैण्ड से ही वीडियो के माध्यम से अपनी बात समारोह में रख दें। समारोह के अंतिम दिन, 23 जनवरी को सायं 4 बजे उनके वीडियो प्रसारण का कार्यक्रम घोषित कर दिया गया, किन्तु कट्टरवादियों ने इस प्रसारण के विरोध में हिंसक प्रदर्शन करने की धमकी दे दी। जिससे डरकर ऐन समय पर वह प्रसारण भी रद्द कर दिया गया। रुशदी ने अपने ताजा वक्तव्य में स्पष्ट किया है कि राजस्थान पुलिस द्वारा उनको भेजी गयी चेतावनी झूठ निकली, क्योंकि जिन तीन बाहुबलियों के नाम मुझे भेजे गये थे उनमें से दो का तो अस्तित्व ही नहीं है, और एक नाम सिमी नामक संगठन के भूमिगत कार्यकत्र्ता है।
संक्षेप में यह है सेकुलर कहाने वाली राजनीति का चरित्र और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की कसमें खाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग का साहस। विचारणीय प्रश्न यह है कि सलमान रुशदी पिछले दस साल में कई बार भारत आ चुके हैं, वे इधर से उधर घूमते रहे हैं, किन्तु उनके आगमन का पहले कभी विरोध नहीं हुआ। पांच साल पहले 2007 में वे इसी जयपुर साहित्य समारोह में पूरे तीन दिन रहे किन्तु कोई तूफान खड़ा नहीं हुआ है। अंतर केवल इतना है कि उस समय राजस्थान में भाजपा की सरकार थी और इस समय सोनिया पार्टी की सरकार है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या इन 62 वर्षों में मुस्लिम मानसिकता में कोई परिवर्तन हुआ है? क्यों वह लम्बी दाढ़ी वाले मौलानाओं को ही अपना असली रहनुमा समझता है, क्यों मुस्लिम भावनाओं का सवाल खड़ा होते ही वे टेलीविजन स्क्रीनों पर छा जाते हैं? क्यों सेकुलर पार्टियों के मुस्लिम नेता मुस्लिम समाज को “सेकुलरिज्म” के रास्ते पर लाने के बजाय मौलानाओं के सुर में सुर मिलाने लगते हैं?
संविधान सभा की कार्यवाही
क्या भारतीय गणतंत्र के संविधान ने “सेकुलरिज्म” की यही व्याख्या स्वीकार की है? इस संविधान की रचना देश विभाजन की खूनी छाया में की गयी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपनी “फूट डालो-राज करो” नीति के अन्तर्गत 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट में मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर भारतीय मुसलमानों को देश विभाजन के रास्ते पर आगे बढ़ाया था। मि.जिन्ना ने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए मुसलमानों को हिंसा के रास्ते पर बढ़ने का प्रोत्साहन दिया था। संविधान निर्माताओं का संकल्प था कि हम खंडित भारत में मुस्लिम समाज को सर्वपंथ समादर भाव की मुख्यधारा में लाकर दिखाएंगे। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा आरोपित अल्पसंख्यकवाद के विष बीज को जड़मूल से समाप्त करने के लिए संविधान सभा का राष्ट्रवादी नेतृत्व कितना अधिक व्याकुल था, यह संविधान सभा की कार्यवाही पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है। यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि जुलाई, 1946 में जो संविधान सभा निर्वाचित हुई वह वयस्क मताधिकार से निर्वाचित सार्वभौम स्वतंत्र संविधान सभा नहीं थी अपितु 16 मई, 1946 को “कैबिनेट मिशन” के वक्तव्य के अन्तर्गत 1935 के एक्ट में निर्धारित केवल 16 प्रतिशत वयस्क मतदाताओं द्वारा निर्वाचित प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन में से पैदा हुई संविधान सभा थी। संविधान सभा की कार्यविधि और सीमाओं का निर्धारण भी “कैबिनेट मिशन” ने अपने वक्तव्य में कर दिया था। 16 मई, 1946 के वक्तव्य के 20वें पैरा में निर्देश दिया गया था कि संविधान सभा एक परामर्शदाता समिति चुनेगी जो अल्पसंख्यकों, वन्य जातियों और अलगीकृत क्षेत्रों के विशेषाधिकारों की व्याख्या करेगी। 25 मई को एक पूरक वक्तव्य में “कैबिनेट मिशन” ने स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यकों को पर्याप्त सुरक्षा मिलने की शर्त पर ही सत्ता दी जाएगी और उस परामर्शदाता समिति में अल्पसंख्यकों एवं अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व आवश्यक है। “कैबिनेट मिशन” द्वारा निर्धारित इन बंधनों के भीतर परामर्शदाता समिति का निर्वाचन 24 जनवरी, 1947 को सम्पन्न हुआ। यहां यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई और संविधान का अंतिम प्रारूप 26 जनवरी, 1949 को स्वीकार होने के बाद 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। अर्थात संविधान की रचना प्रक्रिया को तीन महत्वपूर्ण चरणों से गुजरना पड़ा। पहला चरण 3 जून, 1947 को देश विभाजन के समझौते तक, दूसरा 15 अगस्त, 1947 को विभाजन के पूरा होने तक, और तीसरा 26 जनवरी, 1949 तक विभाजन की दुष्ट छाया से मुक्ति पाने तक। मुस्लिम लीग ने पहले चरण का बहिष्कार किया, पं. नेहरू के मित्र चौ. खलीकुज्जमा ही उन दिनों चालाकी के साथ मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे। मौलाना आजाद की शह पर मौलाना हिफजुर्रहमान और अब्दुल कय्यूम अंसारी परामर्शदाता समिति में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन और विशेषाधिकारों की मांग उठाते रहे, जबकि उ.प्र. के शिया नेता अली जहीर और बिहार के शिया नेता तजमुल हुसैन ने पृथक मताधिकार एवं विशेषाधिकारों का कड़ा विरोध किया। भारतीय ईसाईयों के प्रतिनिधि, एच.सी.मुखर्जी एवं पारसी नेता होमी मोदी ने स्पष्ट घोषणा की कि हमारे समाजों को कोई विशेषाधिकार नहीं चाहिए।
संविधान का मूल स्वर
परामर्शदाता समिति के अध्यक्ष पद पर सरदार पटेल आसीन थे। उनका प्रयास था कि अल्पसंख्यकों को पृथक निर्वाचन एवं विशेषाधिकार की मांग पूर्ण एकमत से होनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने परामर्शदाता समिति की लम्बे अंतराल से तीन बैठकें बुलायी थीं। पहली 8 अगस्त, 1947 को, दूसरी 3 अप्रैल, 1948 को और तीसरी 30 सितम्बर, 1948 को। तीसरी बैठक में 3 के विरुद्ध 58 मतों से पृथक निर्वाचन और विशेषाधिकारों की मांग का पटाक्षेप हो पाया। इससे प्रसन्न होकर पं. नेहरू ने अपने भाषण में कहा, “हमारी नियति में इस ऐतिहासिक मोड़ के जुड़ने का मुझे गर्व है। वस्तुत: राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के बाद यदि किसी वर्ग की सहायता के लिए आरक्षण दिया जाता है तो इससे उस वर्ग का लाभ नहीं, हानि ही होती है, वह मुख्यधारा से कट जाता है क्योंकि बहुसंख्यक समाज की सहानुभूति एवं मातृत्व भावना से वह कट जाता है। मैं समझता हूं कि आरक्षण व्यवस्था की समाप्ति अल्पसंख्यक समुदाय के हित में ही है।”
इस अवसर पर सरदार पटेल ने भाव विह्वल होकर कहा, “जिन लोगों का यह दावा है कि देश में दो राष्ट्र हैं और उन दोनों के बीच कुछ भी साझा नहीं है तथा जो मानते हैं कि हमारे पास एक ऐसा वतन होना चाहिए जहां हम आजादी की सांस ले सकें, उन्हें यह सोचने का पूरा हक है। परंतु जिन लोगों ने ऐसे वतन के लिए काम किया है। उन्हें वही मार्ग यहां अब भी अपनाना चाहिए। उन लोगों से मैं अदब के साथ अपील करता हूं कि वे पाकिस्तान जाकर उस स्वतंत्रता का उपभोग करें और हमें शांति से जीने के लिए छोड़ दें। जो लोग अभी भी अलग प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं, उनके लिए भारत में कोई स्थान नहीं है। आप मेहरबानी करके भूतकाल को भूल जाएं… उसे भूलने का प्रयास करें।” “मुझे याद है कि पिछली बार अगस्त, 1947 में जिन मित्र ने पृथक निर्वाचन मंडल की मांग करने वाला प्रस्ताव संसद में रखा था, उन्होंने कहा था कि मुसलमान आज भी बड़े शक्तिशाली, एक्यबद्ध और सुसंगठित अल्पमत हैं। बड़ी खुशी की बात है। जो अल्पमत बलपूर्वक देश के टुकड़े करा सका, वह तो सच में अल्पमत है ही नहीं। आप क्यों सोचते हैं कि आप अल्पमत हैं। अगर आप शक्तिशाली, एक्यबद्ध और सुसंगठित अल्पमत हैं तो आप संरक्षणों की मांग क्यों करते हैं? आप विशेषाधिकारों की मांग क्यों करते हैं? भारत में जब तीसरा पक्ष था, तब तो यह ठीक था पर अब वह चला गया। इसलिए किसी भी अल्पमत का भविष्य इसी में संरक्षित है कि वह बहुमत में विश्वास रखे। हम भारी संकटों के बीच से अपनी नाव खे रहे हैं और इतिहास की दिशा बदल रहे हैं। एक स्वतंत्र देश के नाते इस देश का भावी चित्र उससे भिन्न होगा जो देश के विभाजन के लिए काम करने वालों ने सोच रखा था। अब मेरे लिए पृथक निर्वाचन मंडलों के प्रश्न पर समय बर्बाद करना जरूरी नहीं है।”
किन्तु 62 वर्ष बाद हम देख रहे हैं कि देश तेजी से विभाजन पूर्व की स्थिति में पहुंच रहा है। वोट बैंक राजनीति इसके लिए उत्तरदायी है। विशेषकर सोनिया ने माकपा नेता हरकिशन सुरजीत के मार्गदर्शन में परदे के पीछे मुस्लिम कट्टरवाद से गठबंधन कर केन्द्र में सत्ता प्राप्त की और उसके मूल्य स्वरूप पहली बार अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय बनाया, सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोग बनाए और अब आरक्षण की छुरी उठाली- संविधान की हत्या करने के लिए।द
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