संगठन से सेवा, सेवा से संगठन
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स्वामी विवेकानन्द का मंत्र
देवेन्द्र स्वरूप
रामकृष्ण परमहंस यदि अध्यात्म साधना और अनुभूति हैं तो स्वामी विवेकानंद उसकी व्याख्या और अभिव्यक्ति। 1893 से 1900 तक (पूरे सात वर्ष) उन्होंने अमरीका, इंग्लैण्ड, यूरोप और भारत में बिजली के समान तड़ित गति से भ्रमण कर अपने गुरुदेव द्वारा अनुभूत सत्य को, व्यावहारिक वेदांत को, शब्द रूप में प्रचारित किया। इन सात वर्षों में केवल ढाई वर्ष उन्होंने भारत में व्यतीत किये। पश्चिमी समाजों का सूक्ष्म अध्ययन कर स्वामी विवेकानंद ने उनकी समृद्धि, शक्ति और उन्नति के रहस्य को समझा। उन्होंने देखा कि संगठन भावना ही उन समाजों के उत्कर्ष का आधार है। संगठन के लिए ईष्र्या का अभाव, आज्ञापालन और सहयोग की भावना तथा संवेदनापूर्ण अंत:करण की नितांत आवश्यकता है। उन्होंने एक पत्र में लिखा कि नारी का तिरस्कार और जाति प्रथा के द्वारा गरीबों का उत्पीड़न ही भारत के पतन के मुख्य कारण हैं।
सिर्फ कर्मकांड से क्या लाभ?
1895 में कलकत्ता स्थित अपने गुरुभाईयों को एक पत्र में वे लिखते हैं, “हमारी जाति से कभी कोई आशा नहीं की जा सकती। किसी के मस्तिष्क में कोई नवीन विचार जाग्रत नहीं होता। उसी एक चिथड़े से सब कोई चिपके हुए हैं-रामकृष्ण परमहंस देव ऐसे थे और वैसे थे, वही लम्बी-चौड़ी कहानी-जिसका न कोई आदि है और न कोई अंत। हाय भगवान। तुम भी तो ऐसा कुछ करके दिखलाओ कि जिससे यह पता चले कि तुम लोगों में कुछ असाधारण है। अन्यथा आज घंटा आया तो कल बिगुल और परसों-चमटा। आज खाट मिली, कल उसके पायों को चांदी से मढ़ा गया, आज खाने के लिए खिचड़ी दी गयी, लोगों को दो हजार लम्बी चौड़ी कहानियां सुनायीं गयी। वह चक्र, गदा, शंख, पद्म- ये सब निरा पागलपन नहीं तो और क्या है? घंटा दायीं ओर बजना चाहिए अथवा बायीं ओर, चंदन माथे पर लगाना चाहिए या अन्यत्र, आरती दो बार उतारनी चाहिए या चार बार-इन विषयों को लेकर ही जो दिन-रात माथापच्ची किया करते हैं, उन्हीं का नाम भाग्यहीन है और इसीलिए हम लोग श्रीहीन तथा जूतों की ठोकर खाने वाले हो गए तथा पश्चिम के लोग जगद्विजयी।’ स्वामी जी आगे लिखते हैं, “लाखों रुपये खर्च कर काशी तथा वृन्दावन के मंदिरों पर पट खुलते और लगते हैं। कहीं ठाकुर जी वस्त्र बदल रहे हैं तो कहीं भोजन या कुछ और कर रहे हैं। किन्तु दूसरी ओर जीवित ठाकुर भोजन और विद्या के बिना मरे जा रहे हैं। यही हमारे देश की सबसे बड़ी बीमारी है, यह देश नहीं, पागलपन है।’
नर को ही नारायण समझो
“यदि भलाई चाहते हो तो घंटा इत्यादि को गंगा जी में सौंप कर साक्षात भगवान नारायण की विराट और स्वराट की, मानवधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा में तत्पर हो। यह जगत ही ब्रह्म का विराट रूप है-उसकी पूजा का अर्थ है उसकी सेवा, इसी को कर्म कहते हैं।’ आगे कहते हैं, ‘तुम लोग अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ और उस विराट की उपासना का प्रचार करो। गांव-गांव तथा घर-घर में जाकर इस आदर्श का प्रचार करो, तभी यथार्थ में कर्म का अनुष्ठान होगा। एक वर्ष के अंदर यदि भारत के विभिन्न स्थानों में दो चार-लाख शिष्य बना सको तब मैं तुम्हारी बहादुरी मानूंगा। गांव-गांव तथा घर-घर में जाकर लोकहित के कार्यों में आत्मनियोग करो, जिससे कि जगत का कल्याण हो सके। चाहे अपने को नरक में क्यों न जाना पड़े, परंतु दूसरों की मुक्ति हो। हमेशा ध्यान रखो कि- थ् “हम लोग संन्यासी हैं, भक्ति तथा भुक्ति-मुक्ति सब कुछ हमारे लिए त्याज्य है।” थ् “जगत का कल्याण करना, प्राणिमात्र की सेवा करना हमारा व्रत है, चाहे उससे मुक्ति मिले अथवा नरक।” थ् “जगत के कल्याण के लिए ही श्रीरामकृष्ण परमहंस का आविर्भाव हुआ था। इस संदेश को लेकर तुम घर-घर जाओ तो सही, देखोगे कि तुम्हारी सारी अशांति दूर हो गयी है।’
एक अन्य पत्र में वे स्वामी ब्रह्मानंद को लिखते हैं, “तुम लोग चारों ओर फैल जाओ, अर्थात जगह-जगह शाखा स्थापित करने का प्रयत्न करो। मद्रासियों से मिलकर जगह-जगह समिति इत्यादि की स्थापना करनी होगी। प्रिय भाई, मुक्ति न मिली तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े तो हानि ही क्या है? एक संगठित समिति की आवश्यकता है। एक स्थायी केन्द्र स्थापित करो। अखबारी प्रकाशन बहुत हो चुका है, अब कुछ करके दिखाओ। यदि कोई मठ बना सको तब मैं समझूंगा कि तुम बहादुर हो, नहीं तो कुछ नहीं। गांव अथवा शहर में, जहां कहीं भी जाओ, परमहंस देव के प्रति श्रद्धा सम्पन्न दस व्यक्ति जहां भी मिलें, वहीं एक समिति स्थापित करो। गांवों में जाकर अब तक तुमने क्या किया? हरिसभा इत्यादि को धीरे-धीरे स्वाहा करना होगा। संसार में यही एकमात्र रास्ता है। तुम भगवान हो, मैं भगवान हूं और मनुष्य भगवान ही दुनिया में सब कुछ कर रहा है, तो फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठे हुए हैं? साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल में पहुंचाया है। देहि-देहि की रट लगाना तथा चोरी-बदमाशी करना, किन्तु हैं धर्म के प्रचारक। धन कमाएंगे, सर्वनाश करेंगे, साथ ही यह भी कहेंगे कि हमें न छूना। उनका काम बस यह बतलाना मात्र है कि यदि आलू से बैंगन का स्पर्श हो जाए तो कितने समय में यह ब्रह्मांड रसातल को पहुंच जाएगा।’
‘वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न तो वेद में है, न पुराण में, न भक्ति में और न मुक्ति में। धर्म तो भोजन पात्र में समा चुका है- मुझे न छूना, मुझे न छूना- यह अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलम्बन है। आत्मवत् सर्वभूतेषु- क्या यह वाक्य केवल पोथी में लिखा रहने के लिए है? जो लोग गरीब को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते वे मुक्ति कैसे दे सकते हैं? दूसरों की सांस मात्र से जो अपवित्र हो जाते हैं, वे दूसरों को पवित्र कैसे बना सकते हैं।”
संगठन की आवश्यकता
अपने गुरुभाईयों के नाम प्रत्येक पत्र में स्वामी जी संगठन की आवश्यकता पर बल देते थे। 1895 में ही उन्होंने स्वामी अखण्डानंद को लिखा, “तुम्हारा संकल्प अत्यंत सुंदर है। किन्तु तुम लोगों में संगठित होकर कार्य करने की शक्ति का एकदम अभाव है। वही अभाव सब अनर्थों का मूल है। मिल-जुलकर कार्य करने को कोई भी तैयार नहीं है। संगठन की पहली आवश्यकता है आज्ञा पालन का भाव। इच्छा हुई तो कुछ किया अन्यथा खाली बैठे हैं-इस तरह कोई काम नहीं होता। कलकत्ता तथा मद्रास में केन्द्र पहले से हैं ही, यदि मेरठ और अजमेर में संभव हो सके तो बहुत ही अच्छा होगा। धीरे-धीरे इसी प्रकार विभिन्न स्थानों में केन्द्र स्थापित करते रहो। बस कार्य करते रहो।”
एक अन्य गुरुभाई योगानन्द को 24 जनवरी, 1896 को न्यूयार्क से लिखते हैं, “स्वयं कुछ करना नहीं और यदि दूसरा कोई कुछ करना चाहे तो उसका मखौल उड़ाना, हमारी जाति का यह एक बड़ा दोष है और इसी से हमारी जाति का सर्वनाश हुआ है। हृदयहीनता तथा उद्यम का अभाव सब दु:खों का मूल है। अत: इन दोनों को त्याग दो।’ 27 अप्रैल, 1896 को लंदन से कलकत्ता के गुरुभाईयों के नाम एक लम्बे पत्र में स्वामी जी ने रामकृष्ण मठ की स्थापना की पूरी रूपरेखा और नियमावली लिखकर भेजी। इसमें उन्होंने मठ की संरचना, जीवनशैली, दिनचर्या, भोजन पद्धति, कार्य विभाजन, विभागों का वितरण, पदाधिकारियों की निर्वाचन पद्धति, आपसी संबंधों का रूप, स्त्री-भक्तों के साथ व्यवहार आदि अनेक विषयों को नपे-तुले शब्दों में प्रस्तुत किया। पत्र में वे निर्देश करते हैं कि यह पत्र गौरी मां, योगेन मां आदि को भी दिखा देना और उनके द्वारा स्त्रियों का मठ स्थापित करवाना। एक वर्ष के लिए गौरी मां को उसका अध्यक्ष बनने दो…परंतु तुममें से किसी को वहां नहीं जाना चाहिए। वे अपना कार्य स्वयं संभालें। तुम्हारे आदेश पर उन्हें कार्य नहीं करना है।”
नारी संगठन को प्राथमिकता
वस्तुत: अमरीका में नारी शक्ति की तेजस्विता और समाज कार्य में योगदान से प्रभावित होकर स्वामी जी ने भारत में भी नारी संगठन को प्राथमिकता दी। 1895 में ही अपने गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानंद को अमरीका से एक पत्र में उन्होंने लिखा, “स्त्रियों की अवस्था को सुधारे बिना जगत के कल्याण की कोई संभावना नहीं है। पक्षी का एक पंख से उड़ना संभव नहीं है। इस कारण रामकृष्ण अवतार में ‘स्त्री-गुरु’ को ग्रहण किया गया है। इसीलिए उन्होंने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और इस कारण ही जगत जननी की प्रतिरूप स्त्रियों के मातृभाव का प्रचार हुआ। इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे स्त्रियों के समान कभी-कभी वस्त्र पहनते थे-वे माना हमारी जगत्माता जैसे ही थे। इसलिए हमें सब स्त्रियों को उस जगत्माता की ही मूर्ति मानना चाहिए। इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों का मठ स्थापित करने का है। इस मठ से गार्गी और मैत्रेयी और उनसे भी अधिक योग्यतावाली स्त्रियों की उत्पत्ति होगी।”
स्वामी जी के अमरीका और इंग्लैण्ड के पत्रों से स्पष्ट है कि उनकी चिंता का केन्द्र भारत ही रहा और भारत को ही अपना मुख्य कार्यक्षेत्र मानते थे। पश्चिम में अपनी दौड़-धूप को उन्होंने इस कार्य की आधारभूमि तैयार करने के माध्यम के रूप में ही देखा, उससे अधिक नहीं। स्वामी रामकृष्णानंद को 1895 के पत्र में स्वामी जी ने अपने इन उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए लिखा, “इस देश से शीघ्र ही लौटने में कोई लाभ नहीं है। पहली बात यह है कि यहां थोड़ा शब्द होने से वहां प्रतिध्वनि बहुत होगी। फिर यहां के लोग अति धनवान हैं और देने का भी साहस रखते हैं। जबकि हमारे देश के लोगों के पास न धन है और साहस तो तनिक भी नहीं।’ वैसा ही हुआ भी, पश्चिमी विश्व पर अपनी धर्म-मीमांसा की धाक जमाकर जब स्वामी जी कुछ गौरवर्णी शिष्यों के साथ भारत के दक्षिणी तट पर वापस लौटे तो भारतीय युवकों ने उनके रथ के घोड़ों की जगह स्वयं को जोतकर उनका रथ खींचा और स्वामी जी ने भी घोषणा की कि भारत से विदेश जाने के पहले भी मुझे अपने हिन्दू धर्म पर गर्व था किन्तु पश्चिमी देशों का प्रत्यक्ष अनुभव पाकर तो वह गर्व कई गुना अधिक बढ़ गया है।
केवल भारतमाता की उपासना
अमरीका और इंग्लैण्ड में उनकी सफलता ने भारत में राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्मविश्वास की लहर पैदा कर दी। कोलम्बो से अल्मोड़ा तक अपनी देशव्यापी यात्रा में स्वामी जी ने अपनी ओजस्वी वाणी से देशभक्ति और दरिद्र नारायण की भावना को उद्दीपित किया। उन्होंने कहा कि आगामी पचास वर्ष के लिए अन्य सब देवी-देवताओं को किनारे रखकर केवल भारत माता की उपासना करो। ब्रह्मज्ञान को केवल प्रवचन और शब्द चर्चा तक सीमित रखने की प्रवृत्ति को धिक्कारते हुए स्वामी जी ने कहा कि यहां हर कोई ब्रह्म की बात करता है। धिक्कार है तुम्हें। तुम डूबे तो तमस में हो और बात ब्रह्म की करते हो। इसीलिए स्वामी जी का आग्रह था कि भारतीय युवकों के हाथ में गीता से पहले फुटबाल दो। उन्होंने देश के नवयुवकों को भारत माता के चरणों में अपने कर्तृत्व को समर्पित करने का आह्वान किया। स्वामी जी चाहते थे कि पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय युवक संन्यास मार्ग पर बढ़कर देश के करोड़ों गरीब, निरक्षर, पिछड़े और अस्पृश्य समझे जाने वाले देशवासियों के बीच जाकर काम करें। स्वामी विवेकानन्द का आह्वान था कि “नरसेवा ही नारायण सेवा है, दरिद्र नारायण ही तुम्हारे भगवान हैं, उन्हीं की मन वचन कर्म से सेवा करो।”
स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि भारत धर्म प्रधान देश है और वहां दरिद्र नारायण की सेवा व समाज सुधार का प्रयास राजनीतिक व आर्थिक आंदोलनों की बजाय धर्माधिष्ठित होना चाहिए। उन्होंने अपने सहयोगियों को बार-बार निर्देश दिया कि वे प्रचलित राजनीति से दूर रहें। 19 नवम्बर, 1894 को न्यूयार्क से आलासिंगा को चेतावनी देते हैं, “हमारे मूर्ख नौजवान अंग्रेजों से अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के लिए सभाएं करते हैं। इस पर वे (अंग्रेज शासक) केवल हंस देते हैं।’ अपनी कार्य पद्धति की स्पष्ट कल्पना देते हुए स्वामी जी आगे लिखते हैं, “एक मुख्य केन्द्र बनाओ और भारत भर में उसकी शाखाएं खोलते जाओ। अभी केवल धर्म की भित्ति पर इसकी स्थापना करो और किसी उथल-पुथल मचाने वाले सामाजिक सुधार का प्रचार मत करो, किन्तु साथ ही मूर्खतापूर्ण कुसंस्कारों को सहारा भी मत दो।’
संगठन का आधार क्या हो?
21 फरवरी, 1900 को कैलीफोर्निया से स्वामी अखंडानंद के नाम पत्र में स्वामी जी ने अपनी कार्य योजना की रूपरेखा को विस्तार से प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा, ‘सेवा कार्य बौद्धिक पाण्डित्य से नहीं संवेदनशील हृदय से ही हो सकता है। जितना अधिक तुम हृदय का विकास कर सकोगे, उतनी अधिक तुम्हारी विजय होगी। बुद्धि की भाषा तो कोई-कोई ही समझता है परंतु वह भाषा जो हृदय से निकलती है, उसे ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक, सभी समझ सकते हैं।’ राजनीतिक आंदोलन की व्यर्थता की ओर संकेत देते हुए उन्होंने लिखा, “इन उग्र दुर्भिक्ष, जल प्रलय, रोग और महामारी के दिनों में तुम्हारे कांग्रेस वाले कहां हैं? क्या यह कहना पर्याप्त होगा कि राजव्यवस्था हमारे हाथ में दे दो और उनकी सुनेगा भी कौन? यदि मनुष्य काम करता है तो क्या उसे अपना मुख खोलकर कुछ मांगना पड़ता है? यदि तुम्हारे जैसे दो हजार लोग कई जिलों में काम करते हों तो क्या राजनीतिक आंदोलन के विषय में अंग्रेज स्वयं आगे बढ़कर तुमसे सम्मति नहीं लेंगे? किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो गांवों का उपकार करना, बीस-पच्चीस अनाथों वाला अनाथालय तथा दस-बीस कार्यकत्र्ता ही पर्याप्त नहीं है, यह वह केन्द्र है जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहां से लाखों मनुष्यों को समय पाकर लाभ पहुंचेगा। अभी हम को आधे दर्जन सिंह चाहिए, बाद में सैकड़ों गीदड़ भी उत्तम काम कर सकेंगे। यदि अनाथ बालिकाएं तुम्हारे आश्रम में आएं तो तुम उन्हें सबसे पहले लेना, नहीं तो ईसाई मिशनरी उन बेचारियों को ले जाएंगे। हमारा संघ दीन-हीन, दरिद्र, निरक्षर, किसान एवं श्रमिक समाज के लिए है। उनके लिए सब कुछ करने के बाद जो समय बचेगा, तभी कुलीनों की बारी जाएगी। प्रेम द्वारा तुम उन किसान और श्रमिकों को जीत सकोगे। इसके पश्चात वे स्वयं थोड़ा-सा धन संग्रह करके अपने-अपने गांव में ऐसे ही संघ बनाएंगे और धीरे-धीरे उन्हीं लोगों में से शिक्षक पैदा होंगे। हम उनकी सहायता इसीलिए करते हैं कि वे स्वयं अपनी सहायता कर सकेंगे।’
हिन्दू धर्म के प्रति गर्व की भावना रखते हुए भी स्वामी जी दरिद्रनारायण सेवा के अपने कार्य पर संकीर्ण सम्प्रदायवाद का ठप्पा नहीं लगने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आलासिंगा को परामर्श दिया कि मद्रास में स्थापित केन्द्र को वह ‘प्रबुद्ध भारत’ जैसा नाम दे, यद्यपि उनका यह सुझाव माना नहीं गया। 10 अक्तूबर, 1897 को कश्मीर यात्रा से लौटते समय मरी नामक स्थान से उन्होंने स्वामी अखंडानंद के अनाथालय शुरू करने के विचार का स्वागत करते हुए लिखा, “अनाथालय अवश्य होना चाहिए, इसमें कोई सोच-विचार की बात नहीं है। बालिकाओं को हम विपत्ति में नहीं छोड़ सकते। परंतु बालिका अनाथालय के लिए हमें एक स्त्री पदाधिकारी की आवश्यकता होगी और लड़के-लड़कियों के रहने का स्थान पृथक होना चाहिए। तुम्हें मुसलमान लड़कों को भी लेना चाहिए परंतु उनके धर्म को कभी दूषित न करना। तुम्हें केवल यही करना होगा कि उनके भोजन आदि का प्रबंध अलग कर दो और उन्हें शुद्धाचरण, पुरुषार्थ और परहित में श्रद्धापूर्वक तत्परता की शिक्षा दो। यह निश्चय ही धर्म है। इस समय हमारे देश में पुरुषार्थ और दया की आवश्यकता है। वेद, कुरान, पुराण और सब शास्त्रों को कुछ समय के लिए विश्राम करने दो-मूर्तिमान ईश्वर जो प्रेम और दया स्वरूप है, उसकी उपासना देश में होने दो। भेद के सब भाव बंधन हैं और अभेद के मुक्ति। सभी धर्मों के लड़कों को लेना-हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या कुछ भी हों। परंतु धीरे-धीरे आरंभ करना अर्थात यह ध्यान रखना कि उनका खान-पान अलग हो। केवल धर्म की सार्वभौमिकता का ही उन्हें उपदेश देना।’
संगठन दीर्घजीवी कैसे हो?
स्वामी जी अपने शिष्यों को दुर्भिक्ष निवारण जैसे कार्यों में लगाते हुए भी चिंतित रहते थे कि उनके बाद भी वह कार्य चलता और बढ़ता रहे। अपनी इस चिंता को स्वामी ब्रह्मानंद से बांटने के लिए उन्होंने श्रीनगर (कश्मीर) से 1 अगस्त, 1898 को पत्र लिखा, ‘इस समय तो कार्य चालू करा दिया गया है, बाद में हमारे चले जाने पर कार्य जिससे चलता रहे एवं दिनोंदिन बढ़ता रहे, मैं दिन-रात इसी चिंता में निमग्न रहता हूं। ऐसा यंत्र खड़ा करो जोकि अपने आप चलता रहे, चाहे कोई मरे अथवा जीवित रहे। हमारे भारत वर्ष का यह एक महान दोष है कि हम कोई स्थायी संस्था नहीं बना सकते हैं और उसका कारण यह है कि दूसरों के साथ कभी अपने उत्तरदायित्व का बंटवारा नहीं करना चाहते, और हमारे बाद क्या होगा- यह भी हम नहीं सोचते।’ इसका व्यावहारिक उपाय उन्होंने बताया, “चाहे हजार गुना तात्विक ज्ञान क्यों न रहे-प्रत्यक्ष रूप से किए बिना कोई कार्य सीखा नहीं जाता। निर्वाचन एवं रुपये पैसों के हिसाब- किताब की चर्चा मैं बार-बार इसलिए करता हूं कि हमसे और लोग भी कार्य कराने के लिए तैयार रहेंगे। एक की मृत्यु हो जाने से अन्य कोई व्यक्ति (आवश्यकता पड़ने पर दस व्यक्ति) कार्य करने को प्रस्तुत रहें। सभी को यह बतलाना उचित है कि कार्य और सम्पत्ति में प्रत्येक का हिस्सा है और कार्य प्रणाली में अपना मत प्रकट करने का सभी को अधिकार है। एक के बाद एक करके प्रत्येक व्यक्ति को निरीक्षण तथा नियंत्रण का उत्तरदायित्व सौंपना, तब कहीं कार्य के लिए व्यक्ति का निर्माण हो सकता है।’
संगठन शास्त्र के व्यावहारिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने 26 अगस्त, 1896 को स्विट्जरलैंड से मद्रास के डा.नान्जुंदा राव को लिखा, “भारत में जो काम साझे में होता है वह एक दोष के बोझ से डूब जाता है। दोष यह है कि इसमें अभी तक कार्य प्रणाली के संबंध में नियमों की कट्टरता नहीं आयी है। अपने जिम्मे जो हिसाब-किताब है, वह बहुत ही सफाई से रखना चाहिए और कभी एक कोष का धन किसी दूसरे काम में नहीं लगाना चाहिए, चाहे दूसरे क्षण भूखा ही क्यों न रहना पड़े। यही है कार्य की सच्चाई। दूसरी बात यह है कि जो कुछ तुम करते हो, उस समय के लिए उसे अपनी पूजा समझो।” 1896 में लंदन से आलासिंगा को लिखे पत्र के अनुसार उनकी आंखें ऐसे युवकों को खोजती रहीं- “मैं जो चाहता हूं वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु। उनके भीतर ऐसा मन वास करता हो जो वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्र, वीर्य और ब्रह्मतेज। हे भगवान! मेरा हृदय विलाप करता है, उसे सुनो। मद्रास तभी जाग्रत होगा जब उसके प्रत्यक्ष हृदय स्वरूप सौ शिक्षित युवक संसार को त्यागकर और कमर कसकर देश-देश में भ्रमण करते हुए सत्य का संग्राम लड़ने को तैयार होंगे। ऐ वीर हृदय बालकगण अध्यवसाय सम्पन्न होओ! हमने अभी कार्य आरंभ ही किया है। निराश न हो! कभी न कहो कि बस इतना काफी है।”
युवाओं का आह्वान
मनुष्य निर्माण को ही उन्होंने सर्वोपरि माना। उनका कहना था “मनुष्य-केवल मनुष्य ही हमें चाहिए, फिर हर एक वस्तु हमें प्राप्त हो जाएगी। हमें चाहिए केवल दृढ़, तेजस्वी, आत्मविश्वासी तरुण, ठीक-ठीक सच्चे हृदय वाले युवक।’ उनका आग्रह था कि “सबसे पहले हमारे तरुणों को मजबूत बनना चाहिए। धर्म इसके बाद की वस्तु है। मेरे तरुण मित्रो, शक्तिशाली बनो, मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल के द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुंच सकोगे।’ स्वामी विवेकानन्द युवकों का आह्वान करते हैं, “तुम्हें ईश्वर को ढूंढने कहां जाना है? क्या गरीब, दु:खी और निर्बल ईश्वर नहीं हैं? पहले उन्हीं की पूजा क्यों नहीं करते? तुम गंगा के किनारे खड़े होकर कुआं क्यों खोदते हो? मैं पुन:पुन: जन्म धारण करूं और हजारों मुसीबतें सहूं ताकि मैं उस परमात्मा को पूज सकूं जो सब जातियों, सब वर्गों के गरीबों के रूप में प्रकट हुआ है, वही मेरा एकमात्र आराध्य है।”
देश की युवा शक्ति को विवेकानंद ने ललकारा, “क्या तुम्हें यह देखकर पीड़ा होती है कि देवताओं और ऋषियों के लाखों वंशज आज पशुवत् स्थिति में पहुंच गए हैं? क्या तुम्हें यह देखकर वेदना होती है कि लाखों मनुष्य आज भूख की आग से तड़प रहे हैं और सदियों से तड़पते रहे हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञानता सघन मेघों की तरह इस देश पर छा गई है? क्या इस वेदना से तुम छटपटाते हो? क्या इसने तुम्हारी आंखों से नींद छीन ली है? क्या यह वेदना तुम्हारी शिराओं में बहती हुई तुम्हारे हृदय की धड़कन के साथ स्वरूप होकर तुम्हारे रक्त में समा गई है? क्या इसने तुम्हें लगभग पागल बना दिया है? सर्वनाश के दु:ख की इस भावना ने क्या तुम्हें बेचैन कर दिया है? क्या तुम इस कारण अपने नाम, यश, स्त्री-बच्चे, सम्पत्ति, यहां तक कि अपने शरीर की भी सुध-बुध भूल गए हो? क्या तुम्हें ऐसा हुआ है? देशभक्त बनने की यही है पहली सीढ़ी, केवल पहली सीढ़ी।’
उन आदर्शों पर चलें
स्वामी जी के ये मर्मस्पर्शी शब्द पिछले सौ-सवा सौ वर्षों से भारत की कई पीढ़ियों के कानों में गूंजते रहे हैं। किंतु 1902 में स्वामी जी के महाप्रयाण के बाद 45 वर्ष तक स्वाधीनता संघर्ष के दौरान और स्वाधीन भारत की 65 वर्ष लम्बी यात्रा में हम उनके स्वप्न, उनकी आकांक्षा और उनके आह्वान को कितनी मात्रा में पूरा कर पाये? हम उस दिशा में आगे बढ़े या पीछे हटे? आज भारत का सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन भ्रष्ट, विखंडित, आदर्श और सिद्धांत विहीन, सत्तालोलुप राजनीतिक भंवर में फंस गया है। गैर-राजनीतिक समाजसेवा की भावना लगभग मृतप्राय: है। जाति भेद सामाजिक धरातल पर कम हो रहा है तो जाति का राजनीतिकरण हो गया है और आरक्षण के नाम पर जाति प्रथा जन्मना हो गयी है। विकास के नाम पर हम पश्चिम की उपभोग- प्रधान मशीनी सभ्यता के मोह जाल में फंस गए हैं। कामिनी और कंचन का आकर्षण पूरे वातावरण पर छाया हुआ है। पर, पिछले 110 वर्षों से हम प्रतिवर्ष विवेकानंद जयंती के नाम पर खोखला शब्दाचार करते आ रहे हैं।
यह सत्य है कि 1898 में स्वामी जी द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ने हजारों समर्पित संन्यासी प्रदान किए हैं, भारत और विश्व में मिशन की सैकड़ों शाखाएं खड़ी हैं, रामकृष्ण- विवेकानंद भावधारा से अनुप्राणित विपुल साहित्य का सृजन हुआ है, किंतु क्या उसका यह भागीरथ प्रयास स्वामी जी के दरिद्र नारायण की सेवा की कार्यप्रणाली को पूरी तरह अपना पाया है, या पूजा के जिस कर्मकांड से स्वामी जी को वितृष्णा थी, उसी कर्मकांड में वह स्वयं भी फंस गया है।
स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों के प्रति गहरी श्रद्धा रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और देश के प्रत्येक कोने में अपनी सहस्रावधि शाखा-प्रशाखाओं के साथ स्वामी जी की कल्पना के अखिल भारतीय संगठन के अधिक निकट प्रतीत होता है। संघ परिवार में ही वह सामथ्र्य है कि यदि वह रामकृष्ण मिशन के आशीर्वाद की छत्रछाया में स्वामी जी की 150वीं जयंती के अवसर पर अपने सम्पूर्ण संगठन तंत्र एवं समस्त कार्यकत्र्ता शक्ति को “नरसेवा ही नारायण सेवा” के स्वामी जी के आदर्श के प्रति समर्पित करने का संकल्प घोषित करे, तो विलम्ब से ही क्यों न हो, देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूर्योदय हो सकता है। तभी “संगठन से सेवा और सेवा से संगठन” की रचनात्मक कार्य पद्धति समाज में से संवेदनशील, क्षमतावान, श्रेष्ठ अंत:करणों को आकर्षित करने में समर्थ होगी। तभी भारत माता के विश्व गुरु के सिंहासन पर पुन:प्रतिष्ठित देखने का स्वामी जी का सपना पूरा हो सकेगा।द (19-1-2012)
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