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द आशीष कुमार अंशु
चार साल पहले महाराष्ट्र के पचौड़ा (जलगांव) में बाईस-चौबीस साल के दर्जन भर युवाओं ने जब कस्बे में लगे रक्त दान शिविर में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया तो स्थानीय लोगों ने इसे समूह के चंद युवाओं का अति उत्साह ही समझा। इसलिए उनकी गतिविधियों को समाज में अधिक तवज्जो युवा बदल रहे हैं तस्वीरों नहीं मिली। फिर सफाई अभियान, नुक्कड़ नाटकों का सिलसिला शुरू हुआ। इन गतिविधियों से समूह को यह लाभ मिला कि नए युवा साथ में काम करने की इच्छा लेकर सामने आए। इस तरह युवाओं का यह समूह बढ़ने लगा। धीरे-धीरे समूह के सदस्यों ने सौ का आंकड़ा पार कर लिया लेकिन इस समय तक इनके समूह का न तो अपना कोई नाम था, ना ही काम करने की कोई दिशा तय थी। कोई साइकिल रैली के लिए बुलाता तो हाजिर, कोई मशाल यात्रा के लिए बुलाता तो भी हाजिर। समय के साथ टीम के सदस्यों ने खुद महसूस किया कि उनकी टीम के पास एक नाम होना चाहिए। लगभग ढाई साल पहले इन युवाओं ने मिलकर अपनी टीम को नाम दिया “लक्ष्य”। इस समय तक टीम में सदस्यों की संख्या लगभग एक सौ पचास हो गई थी और सभी सदस्य युवा थे। इनमें भी सत्तर फीसदी संख्या तीस साल से कम उम्र के युवाओं की थी। उम्र सभी सदस्यों की एक जैसी ही थी, अधिकार भी सबके बराबर क्योंकि लक्ष्य सभी सदस्यों का ही तो था, जो थोड़ा-बहुत भेदभाव था वह लक्ष्य से जुड़े सदस्यों की पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से ही था। क्योंकि इन सदस्यों में कोई अस्पताल का मालिक था, कोई अखबार की नौकरी वाला था, कोई वेÏल्डग मशीन पर काम करता था, कोई होटल में प्लेट साफ करता था। लक्ष्य में सचिव की भूमिका निभा रहे और जलगांव में कानून की पढ़ाई पढ़ रहे विजय चौधरी के अनुसार- कहने के लिए हमारे अध्यक्ष डा. जयंत राव पाटिल हैं, और कार्यकारी अध्यक्ष माधव सिंह परदेसी हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि लक्ष्य के मंच पर आकर सभी बराबर हैं। 26 वर्षीय चौधरी अपनी बात जारी रखते हैं, डॉक्टर साहब इस साल हमारे अध्यक्ष बने हैं, इनसे पहले हमारे अध्यक्ष प्रमोद बारी थे। उनको पचौरा से लगभग पचास किलोमीट दूर जलगांव में एक गैराज में नई नौकरी मिल गई तो उनकी सहमति लेकर सर्वसम्मति से डॉक्टर साहब को अध्यक्ष चुना गया। वर्तमान में बारी लक्ष्य के उपाध्यक्ष हैं। संस्था के कार्यकारी अध्यक्ष परदेसी 27 साल के हैं और एक क्षेत्रीय मराठी अखबार में नौकरी करते हैं। दो साल पहले पचौड़ा और उसके आस पास के इलाकों से साम्प्रदायिक दंगों की खबरें आ रही थीं। ऐसा लग रहा था कि यह आग पचौड़ा तक भी पहुंच सकती है। उस वक्त स्थानीय पुलिस वालों ने लक्ष्य टीम से संपर्क किया। पुलिस का कहना था कि इस टीम को कुछ साम्प्रदायिक सौहार्द बढ़ाने वाला कार्यक्रम कस्बे में आयोजित करना चाहिए, जिससे दंगों की आग इस कस्बे तक ना पहुंचे। उस वक्त चौधरी वेÏल्डग में काम करने वाले 24 वर्षीय जगदीश चौधरी ने नुक्कड़ नाटक तैयार कर जगह-जगह उसकी प्रस्तुति दी थीं। चौधरी याद करते हुए कहते हैं- “उस दौरान हमारे आयोजन में हजार-हजार लोगों की भी भीड़ इकट्ठी हुई थी।” लक्ष्य को लेकर कार्यकारी अध्यक्ष युवराज कहते हैं- इस वक्त लक्ष्य के साथ दो सौ के आस पास युवा सीधे तौर पर जुड़े हैं। इनमें अधिक युवा कामकाजी हैं और कुछ कॉलेज जाने वाले भी हैं। कुल मिलाकर सबके पास अपनी अपनी व्यस्तता है, उसके बावजूद जब हम कोई आयोजन रखते हैं, सभी एक साथ इकट्ठे होते हैं। वैसे हमारी कोशिश होती है कि जो कार्यक्रम तय हो, वह छुट्टी वाला दिन ही हो। हमारे लिए अपने एक एक सदस्य की राय महत्वपूर्ण है। युवराज आगे कहते हैं, आयोजन के लिए पैसों की तकलीफ कभी नहीं आती, यदि हमने बीस-बीस रुपए भी इकट्ठे किए तो तीन-चार हजार रुपए आसानी से इकट्ठा हो जाता है। एक आयोजन के लिए इससे अधिक क्या चाहिए? लक्ष्य ने पचौड़ा में अपने सौ सदस्यों के नाम, रक्त समूह और मोबाइल नंबर वाली एक डायरी तैयार की है। इस डायरी को लक्ष्य के साथियों ने पान की दुकान, टेलीफोन बुथ, दवा की दूकान और नर्सिंग होम के अंदर रखवाया। डायरी में नाम, नंबर और रक्त समूह देने के पीछे स्पष्ट संदेश यही था कि जिन्हें खून की जरूरत हो, वे सीधा रक्तदाता से बात करें। लक्ष्य से जुड़े साथी कहते हैं, रक्तदाता और जो जरूरतमंद हैं, उसके बीच में हमारा होना जरूरी नहीं है, उनका सीधा संवाद हो इसीलिए यह डायरी तैयार करवाई गई। साथी यह भी कहते हैं, ब्लड बैंक में कई बार जरूरत पड़ने पर हमें खून नहीं मिला। इसी वजह से यह कदम उठाना पड़ा। यहां एक बात उल्लेखनीय है कि जिन लोगों के नाम और नंबर डायरी में लिखे गए हैं, उन सभी से इसके लिए सहमति पहले ले ली गई है। एक बार लक्ष्य के एक साथी के पास रात के वक्त शिरडी से फोन आया। कोई महिला फोन पर रो रही थी। उनके बच्चे को खून की जरूरत थी। फिर क्या था, वे साथी रात को ही लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए निकल पड़े और खून देकर लौटे। पाचौड़ा में प्रबंधन की पढ़ाई कराने वाला कोई संस्थान नहीं था। बच्चों को पचास किलोमीटर दूर जलगांव जाना पड़ता था। पिछले साल कस्बे में लक्ष्य के प्रयास से एक प्रबंधन संस्थान प्रारंभ हुआ। संस्थान का सारा काम 32 वर्षीय अतुल आर सिरसमाने देख रहे हैं। प्रबंधन में एक साल के डिप्लोमा कोर्स, से जुड़े प्लेसमेन्ट के सवाल पर सिरसमाने स्पष्ट कहते हैं- “हम अभी मैदान में बिल्कुल नए हैं, आने वाले समय में इस दिशा में भी हम बिल्कुल कुछ करेंगे।” छात्रों से हम एक साल के लिए मात्र साढे चार हजार रुपए लेते हैं, अपनी बातचीत में सिरसमाने जोड़ते हैं। लक्ष्य के सदस्य गोबिन्द पाटिल के अनुसार उन्हें और उनके एक दर्जन दूसरे साथियों को महाराष्ट्र पुलिस में शामिल होने की तैयारी के लिए टीशर्ट और जूते लक्ष्य के दूसरे साथियों ने मिलकर दिलवाए। एक होटल में काम करने वाले भाइबू के अनुसार वे सुबह ग्यारह बजे से शाम सात-आठ बजे तक होटल में होते हैं। उसके बाद रात ग्यारह बजे से सुबह तीन-चार बजे तक तीन बंगलों की चौकीदारी करते हैं। इस तरह उनके पास सोने के लिए तीन से चार घंटे ही एक दिन में होते हैं। भाइबू कहते हैं- इसके बावजूद कभी लक्ष्य के साथी कोई कार्यक्रम करते हैं तो उसमें समय निकालकर शमिल होता हूं। कौन कहता है कि आज के युवा समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते। जिन्हें ऐसा लगता हो, उन्हें एक बार लक्ष्य की टीम से मिलना चाहिए। विश्वास मानिए आज के युवाओं को लेकर आपकी सोच बदल जाएगी।
द बाल मन
कहते चन्दा-मामा
चन्दा-मामा कहते सब से
मेरे घर जब भी तुम आना,
सुंदर सुमन संग में लाना
पर बारूद कभी न लाना।
प्यारे मीठे गीत सुनाना
नफरत-बैर छोड़कर आना,
मुझे उदासी लगे न प्यारी
बच्चों सी किलकारी लाना।
बुरा नशा है करना भैया चरस,
गांजा, न गुटखा लाना,
गुरुजनों का आदर करना
अच्छी बात मुझे बतलाना।
चन्दा-मामा कहते सब से
मेरे घर जब भी तुम आना,
दंगा-फसाद छोड़ धरा पर
हंसने वाली गुड़िया लाना।
द राजेंद्र निशेश
बाल कहानी
द अशीष शुक्ला
भाग्यशाली कलम
अजय ने अमित से बात करना बिल्कुल बन्द कर दिया और अभिजीत, अजय को समझाते-समझाते हार गया लेकिन उसके कान पर जूं तक न रेंगी। उसने तो बस एक ही धुन लगा रखी थी भाग्यशाली कलम… परीक्षाएं दो दिन बाद ही थीं और अजय बहुत दुखी व निराश था। वह समझ नहीं पा रहा था कि कक्षा में प्रथम स्थान कैसे प्राप्त किया जाए। दो साल पहले उसने नीले रंग की चमचमाती कलम परीक्षाएं देने के लिए खरीदी थी और वह प्रथम आया था। उसके अगले साल भी उसी कलम से परीक्षा देने पर वह फिर प्रथम आया। तब से अजय को विश्वास हो गया कि यह एक भाग्यशाली कलम है और इससे परीक्षा देने पर ही वह प्रथम आ रहा है। आज वह कलम अमित से न जाने कहां खो गयी। असल में अमित आज अपनी कलम घर भूल आया लिहाजा उसने अपने मित्र अजय से लिखने के लिए कलम मांगी। अजय ने उसे अपनी भाग्यशाली कलम लिखने को दे दी और वह न जाने कहां गुम हो गयी। हालांकि अमित खुद चकित था क्योंकि उसे अच्छी तरह याद था कि खेल में जाने से पहले उसने उस कलम को बैग में रखकर बैग को ठीक से बन्द कर दिया था। इसके बाद भी कलम का गायब हो जाना उसकी समझ से परे था लेकिन अजय था कि अमित को ही दोषी ठहराए जा रहा था। उसका यह बर्ताव अभिजीत को अच्छा नहीं लगा। उसने अजय को समझाया लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। अजय की यह स्थिति देखकर अभिजीत को लगा कि उन तीनों की वर्षों पुरानी मित्रता आज सिर्फ एक कलम के पीछे टूट जाएगी। अभिजीत किसी भी दशा में ऐसा नहीं होने देना चाहता था। इस कारण वह बहुत चिंतित था। बोझिल कदमों से अभिजीत स्कूल से घर आ गया। खाना खाकर वह पढ़ने बैठा ही था तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। अभिजीत ने दरवाजा खोलकर देखा तो सामने अमित खड़ा था। “अजय को हो क्या गया है? मुझ पर विश्वास नहीं है। आखिर मैं क्यों खोऊंगा उसकी कलम? अब तुम ही बताओ अभिजीत किसी ने मेरे बैग से कलम चोरी कर ली तो क्या यह मेरी गलती है?” अमित ने अभिजीत के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। अभिजीत कुछ देर चुप रहा फिर अमित के कन्धे पर हाथ रखकर गंभीर स्वर में बोला, “मुझे तो लगता है अमित, किसी ने हमारी मित्रता को तोड़ने के लिए ही ऐसा किया है और अजय उस जाल में फंस गया।” “हां तुम ठीक कह रहे हो अभिजीत, कलम खो जाने से अजय का मनोबल टूट गया है। मुझे तो लगता है कि परीक्षा में वह फेल ही हो जाएगा।” “यही तो मैं भी सोच रहा हूं। अमित मुझे लगता है कि हमें उसकी मदद करनी चाहिए लेकिन मेरी बुद्धि तो काम ही नहीं कर रही।” “मेरे पास एक विचार है लेकिन वह काम तुम्हीं कर सकते हो।” “मुझे जल्दी वह विचार बताओ अमित।” अमित ने अभिजीत को अपना विचार बताया तो अभिजीत के मुख पर मुस्कान आ गई। इसके बाद अमित अपनी राह चला गया और अभिजीत कुछ रुपए लेकर बाजार को निकल पड़ा। जब अभिजीत बाजार से लौटा तो उसके हाथ में एक सुन्दर सा पिंजरा था जिसके अन्दर एक प्यारा सा तोता बन्द था। अभिजीत के पास दो दिन का समय था क्योंकि दो दिन की छुट्टियों के बाद ही परीक्षाएं थीं इसलिए उसने समय गंवाना उचित न समझा। वह तोते के सामने बैठ गया और बार-बार यही रटने लगा कि तुम फस्र्ट आओगे। रात होने तक वह यही कहता रहा लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। उसके मन में हल्की सी निराशा भी आई फिर भी उसने हार नहीं मानी। उसने तोते को खाने के लिए खाना दिया और खुद भी खाना खाकर सो गया। अगले दिन भी वह तोते से कहता रहा “तुम फस्र्ट आओगे।” शाम तक अभिजीत की मेहनत रंग लाई। तोता बोल पड़ा, “तुम फस्र्ट आओगे।” अभिजीत खुशी से उछल पड़ा। अब बार-बार वह तोते से कुछ भी पूछता तो वह एक ही जवाब देता “तुम फस्र्ट आओगे।” अभिजीत बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अजय को फोन करके कहा “हेलो अजय मैं अभिजीत बोल रहा हूं। तुम इसी समय मेरे घर आ जाओ।” इसी समय क्या कोई खास बात हैं? अजय कुछ परेशान सा होकर बोला। “असल में मेरे घर में कहीं से उड़कर एक तोता आया है। मैंने उसे एक पिंजरे में बंद कर लिया है। उस तोते में विशेष बात यह है कि वह जैसा भविष्यफल कहता है वह सच साबित होता है लेकिन एक व्यक्ति उससे एक ही प्रश्न पूछ सकता है। तुम आजकल अपनी परीक्षाओं को लेकर परेशान हो चाहो तो उससे अपना रिजल्ट ही पूछ लो।” “हां अभिजीत मैं तुरन्त आता हूं।” यह कहकर अजय ने फोन काट दिया। कुछ ही देर बाद वह अभिजीत के घर में था। अभिजीत उसे तोते के पास ले गया। अजय ने झट तोते से प्रश्न किया, मेरा रिजल्ट कैसा रहेगा? “तुम फस्र्ट आओगे।” तोते का जवाब सुनकर अजय की खुशी का ठिकाना न रहा। वह अभिजीत को धन्यवाद देकर वापस अपने घर चला गया। अभिजीत ने इस कामयाबी की सूचना अमित को फोन पर दी, जिसे सुनकर वह भी बहुत प्रसन्न हुआ। परीक्षा भर अजय का चेहरा देखने लायक था। वह पहले से भी ज्यादा खुश नजर आता लेकिन अमित से उसकी बोलचाल बन्द ही रही। परीक्षाएं खत्म हो गई थीं। अब सभी को परीक्षाफल की प्रतीक्षा थी। उसके सभी सहपाठी अपना-अपना परीक्षाफल लेकर उसके ही घर इकट्ठे हो रहे थे। अभिजीत पार्टी की व्यवस्था में व्यस्त होने के कारण परीक्षाफल लेने स्कूल न जा सका। उसका परीक्षाफल अमित ले आया। दोनों बहुत ही खुश थे क्योंकि दोनों ही अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए थे। सभी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। अब सिर्फ अजय के आने का इंतजार था। थोड़ी ही देर में वह भी आ गया और अभिजीत के गले लिपट कर बोला, “वाह अभिजीत, तुम्हारा तोता तो एकदम सही भविष्फल बताता है। मैं सचमुच फस्र्ट आया हूं।” तुम फस्र्ट आ जाओ इसीलिए तो मैं एक बोलने वाला तोता खरीद कर लाया और उसे केवल एक वाक्य ही रटा दिया कि तुम फस्र्ट आओगे। जब तुमने उससे रिजल्ट के बारे में पूछा तो उसने वही शब्दा दोहरा दिए। यह कहकर अभिजीत चुप हो गया। लेकिन तुमने यह सब क्यों किया? अजय का प्रश्न सुनकर अभिजीत मुस्करा कर बोला, तुमने एक सामान्य कलम को भाग्यशाली मानकर खुद को गहरे अंधविश्वास के शिंकंजे में फंसा लिया था और जब वह खो गयी तो तुम्हारा मनोबल बुरी तरह से टूट गया। तुम्हारे भीतर दुबारा आत्मविश्वास जगाने के लिए मैंने ऐसा किया और तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि यह विचार तुम्हारे व मेरे प्रिय मित्र अमित का था। जैसे ही अभिजीत ने अपनी बात खत्म ही, किसी के सिसकियां भरने की आवाज सुनाई दी। अमित, अजय और अभिजीत ने देखा कि उनकी ही कक्षा का छात्र वैभव रो रहा था। अभिजीत के पूछने पर वह बोला, “वह कलम अमित के बैग से मैंने ही चुरायी थी, क्योंकि मैं हर बार बड़ी मुश्किल से उत्तीर्ण हो पाता था लेकिन उस कलम से परीक्षा देने पर मैं तो फेल ही हो गया।” इतना कहकर वह फिर रोने लगा, अभिजीत और अमित ने आश्चर्य से अजय की ओर देखा लेकिन वह तो, रोते हुए वैभव को टकटकी लगाकर देख रहा था। द
प्रिय बच्चो!
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