चर्चा सत्र
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डा. अश्विनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ानी है तो
हाल ही में प्रधानमंत्री ने कहा कि देश के सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर इस वर्ष 7 प्रतिशत के आसपास रहने का अनुमान है। उल्लेखनीय है कि फरवरी 2011 में सरकार द्वारा प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में यह कहा गया था कि यह संवृद्धि दर 8.5 प्रतिशत रहेगी। अगस्त 2011 में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने इस अनुमान को घटाकर 8.2 प्रतिशत कर दिया था। दिसम्बर 2011 तक आते-आते वित्त मंत्रालय की अद्र्धवार्षिक समीक्षा में इसे घटाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया था, और अब डा. मनमोहन सिंह ने इस अनुमान को और घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। पिछले साल यह आर्थिक संवृद्धि 8.5 प्रतिशत रही थी। आर्थिक संवृद्धि के घटे हुए अनुमानों को भी यह कह कर औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है कि वैश्विक मंदी के बावजूद हम इतना भी प्राप्त करने की स्थिति में आ सके हैं।
भ्रम फैलाने की कोशिश
नई आर्थिक नीति और तथाकथित आर्थिक सुधारों के समर्थकों का लगातार यह कहना रहा है कि इससे आर्थिक संवृद्धि को बढ़ावा मिलेगा और देश के आम लोगों का जीवन स्तर भी सुधरेगा। आर्थिक सुधारों के नाम पर बारम्बार जो नीति-सुझाव आते हैं वे विदेशी निवेश से संबंधित होते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि आर्थिक सुधार और विदेशी निवेश जैसे पर्यायवाची बन गये हैं। प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की बात मानें तो इस घटती आर्थिक संवृद्धि के पीछे सरकार द्वारा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को न कर पाना एक मुख्य कारण है। जब भी सरकार विरोधों के चलते इन तथाकथित आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पाती तो सारा दोष इनके विरोधियों पर मढ़ने का प्रयास किया जाता है। जब ऐसा नहीं हो पाता तो अर्थव्यवस्था की तमाम समस्याओं के लिये अंतरराष्ट्रीय हालात को जिम्मेदार ठहराया जाता है।
इस बात में दो मत नहीं हैं कि अमरीका और यूरोप के देशों में बढ़ते सरकारी ऋणों के चलते वे देश भयंकर मंदी से गुजर रहे हैं। उसका प्रभाव यह हुआ है कि भारत में जिन विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारी मात्रा में शेयर बाजार में धन लगाया हुआ था, वे अपना धन वापिस ले जाने की होड़ में लगे हुये हैं। इसके फलस्वरूप शेयर बाजारों में मंदी तो आई ही है, साथ ही विदेशी मुद्रा के बहिर्गमन के कारण रुपया भी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है। रुपये की कमजोरी का एक मुख्य कारण तेजी से बढ़ते आयात, विशेषतौर पर चीन से आयात और घटते निर्यात हैं। जो रुपया कुछ माह पहले 44-45 रुपये प्रति डॉलर की दर से खरीदा-बेचा जाता था, वह कमजोर होकर 54.25 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया। इससे विदेशों से आयात महंगे हुए, जो पेट्रोल-डीजल इत्यादि की कीमतों में वृद्धि का एक कारण बने। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य का भारत पर कोई विशेष असर दिखाई नहीं देता है। इस मंदी से पूर्व 2008 में आई अमरीकी-यूरोपीय मंदी का भी भारत पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा था।
साफ है, देश में घटती आर्थिक संवृद्धि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के कारण नहीं बल्कि सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण है। पिछले लगभग कई वर्षों से मंहगाई लगातार बढ़ती जा रही है। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा अपनाए जाने वाले तमाम उपाय निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा महंगाई खाद्य वस्तुओं में दिखाई देती हैं, जो मुख्यतौर पर सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी के कारण है। कभी-कभी मौसम के अनुसार खाद्य मुद्रास्फीति थोड़ी-बहुत घट भी जाए तो फिर पुन: मौसम का असर समाप्त होने के बाद खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की गति तेज हो जाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार महंगाई को रोकने में अपने आप को पूर्णतया असहाय मान रही है।
बढ़ती ब्याज दरें
भारतीय रिजर्व बैंक पिछले काफी समय से लगातार ब्याज दरों में वृद्धि करता रहा है। मार्च 2010 से अक्तूबर 2011 के बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने 13 बार ब्याज दरों में वृद्धि की है और “रैपोरेट”, जो मार्च 2010 में मात्र 5 प्रतिशत था अभी बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गया है। “रिवर्स रैपोरेट” 3.5 प्रतिशत से बढ़कर 7.5 प्रतिशत पर पहुंच चुका है। कहा जा रहा है कि ब्याज दरें बढ़ाकर देश में मांग को काबू में रखने की कोशिश हो रही है ताकि महंगाई को रोका जा सके। लेकिन हो इससे उलटा रहा है, क्योंकि ब्याज दरें बढ़ने के बावजूद कीमतें थमने का नाम नहीं ले रहीं। अब तो ब्याज दरें बढ़ने का प्रतिकूल प्रभाव भी दिखाई देने लगा है और जहां वर्ष 2010-11 में आर्थिक संवृद्धि की दर 8.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थी, 2011-12 के वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में यह मात्र 6.9 प्रतिशत पर पहुंच गई है। ब्याज दरों के बढ़ने से उद्योगों की लागतें बढ़ रही हैं। जिसका असर आर्थिक संवृद्धि पर पड़ रहा है।
यदि पिछले 10 वर्षों का लेखा-जोखा लिया जाए तो हम देखते हैं कि देश में वर्ष 2008-09 तक में आर्थिक संवृद्धि की दर पहले से तेज हुई, चाहे इसके साथ ही कृषि में विकास की दर पहले से काफी घट गई, लेकिन उसके साथ ही सेवा क्षेत्र में होने वाली अभूतपूर्व आर्थिक संवृद्धि ने सकल दर को घटने नहीं दिया, बल्कि उसमें पहले से ज्यादा तेजी आ गई। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस दशक के पहले 6-7 वर्षों तक कीमतों में वृद्धि को काफी हद तक काबू में रखा जा सका। कीमतों में अपेक्षित नियंत्रण के चलते ब्याज दरें घटने लगीं। घटती ब्याज दरों ने देश में घरों, कारों, अन्य उपभोक्ता वस्तुओं इत्यादि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की। यही नहीं, कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा अपने पूर्व में लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा। देश में ढांचागत विकास में भी इसकी अच्छी भूमिका रही, क्योंकि निजी कम्पनियों को निवेश के लिए सस्ती दरों पर ऋण मिलना शुरू हो गया। इस प्रकार मांग में अभूतपूर्व वृद्धि तो हुई, साथ ही निवेश की दर भी पहले से कहीं बढ़ गई। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि महंगाई पर तुरंत प्रभावी कदम उठाते हुए उसे नियंत्रित किया जाए। महंगाई पर काबू पाने के लिए कृषि उत्पादों की पूर्ति बढ़ानी होगी। इससे गरीबों को सस्ती दरों पर खाद्य पदार्थ तो उपलब्ध होंगे ही, ब्याज दरों को नियंत्रण में रखते हुए आर्थिक संवृद्धि की दर भी बढ़ाई जा सकेगी। द
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