सम्पादकीय
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मन सरसों की पोटली की तरह है- एक बार बिखर गई, तो सारे दानों को बटोर लेना असंभव सा हो जाता है। -रामकृष्ण परमहंस (श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग में पृ. 133 से उद्धृत)
पांच राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश में चुनाव पर्व ने सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को सत्ता संघर्ष में फंसा दिया है। कहते हैं कि उत्तर प्रदेश दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता है, इसलिए कोई भी दल अपनी उन भावी संभावनाओं को ध्यान में रखकर न कोई कसर छोड़ना चाहता है और न किसी से पिछड़ना चाहता है। इस अवसर पर कुछ बातें बेहद विचारणीय हैं जो देश की राजनीति की चाल और चरित्र से जुड़ी हैं। देश की स्वाधीनता के बाद राष्ट्र के नवनिर्माण में राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण थी, ताकि पराधीनता के काल में अस्त-व्यस्त और दुर्बल हुई राष्ट्रीय व सामाजिक स्थितियों को व्यवस्थित व सशक्त बनाकर भारत को सर्वतोमुखी प्रगति की ओर अग्रसर किया जा सके और देश में सुशासन स्थापित कर जनता की खुशहाली, जाति-मत-पंथ-भाषा व क्षेत्र से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता, राष्ट्र की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा, समाज जीवन में शिक्षा के माध्यम से श्रेष्ठ जीवनमूल्यों का निर्माण करते हुए राष्ट्रभक्ति, सद्गुण-सदाचार व बंधुत्व भाव जगाने जैसे लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। यह तभी संभव था जब राजनीति राष्ट्राभिमुख व समाजोन्मुख हो, न कि सत्ताभिमुख। लेकिन दुर्भाग्य से जिन लोगों के हाथ में देश की बागडोर आई उन्होंने राजनीति की दिशा सत्ता की ओर मोड़ दी और सत्ता प्राप्ति के लिए छल-प्रपंच, विभाजनकारी कोशिशें, धनबल-बाहुबल, अवसरवाद राजनीति के हथकंडे बनते चले गए। कालांतर में राजनीति एक धंधा बन गई जिसमें अपराधियों, भ्रष्टाचारियों, जातिवादी-मजहबी ताकतों का बोलबाला होने लगा। और राजनीति राष्ट्रनिर्माण का उपक्रम न रहकर रुतबा व माल बनाने का साधन हो गई। चुनाव दर चुनाव राजनीति का यह पतन और बढ़ता गया तथा राजनीतिक कुसंस्कृति ने लगभग सभी दलों को अपनी चपेट में ले लिया।
आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में यह नजारा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ रहा है। सत्ता की लालसा में अवसरवाद की सारी हदें पार की जा रही हैं। एक-एक सीट पर जीत का गणित बिठाने के लिए मूल्यों को ताक पर रखकर ऐसे ऐसे लोगों से समझौते किए जा रहे हैं जो अपने कुकृत्यों से लोकतंत्र और जनहित की मर्यादाओं को पलीता लगाते रहे हैं। इनका एक पार्टी छोड़, दूसरी में जाना और ऐसे दागी व्यक्तियों को बिना शर्म-संकोच के अपना लिया जाना मानो राजनीतिक चलन हो गया है। जो दल अपने चाल, चरित्र और चेहरे के लिए जनता के बीच मिसाल बनने चाहिए, उनका स्खलन लोकतंत्र के लिए तो गंभीर चिंता का विषय है ही, संविधान की लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना पर भी यह गहरी चोट है, क्योंकि बिना राजनीतिक शुचिता के सुशासन स्थापित नहीं किया जा सकता। जो नेता और दल मूल्याधारित राजनीति की बजाय चुनावी गणित, वोट व सत्ता की राजनीति करेंगे वे सुशासन के संवाहक नहीं बन सकते हैं। चुनाव में जीत से आगे सोचते हुए अपवित्र राजनीतिक गठजोड़ से परहेज करते हुए जनहित और राजनीतिक शुचिता की चिंता किए जाने से ही देश का यह कलुषित राजनीतिक परिदृश्य बदला जा सकता है। इसके लिए जनता में राजनीतिक चेतना जगना अत्यंत आवश्यक है ताकि वह बिना किसी भय व लोभ-लालच के सही-गलत का निर्णय करते हुए मतदान करे। उसका विवेक ही देश में लोकतांत्रिक व राजनीतिक मूल्यों को बचा सकता है, अन्यथा जब सभी दल एक ही भेड़चाल के शिकार हों तो उनसे उम्मीद करना व्यर्थ है।
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