निर्णय नहीं, न्याय चाहिए
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लक्ष्मीकांता चावला
यह दोनों घटनाएं एकदम ताजी हैंके समक्ष आया और न्यायालय ने इन तीनों निर्दोष 'हत्यारों' को जेल से छोड़ने का आदेश दिया।
राजगढ़ मध्यप्रदेश की पुलिस ने 22 साल पुराने लूट के एक मामले में फरार आरोपी को तीन माह पहले गिरफ्तार कर लिया। पुलिस को बहुत वाहवाही मिली और जिसे पुलिस ने दबोचा उसकी आयु थी 74 वर्ष और वह लकवाग्रस्त बुजुर्ग बोल , यद्यपि देश में ऐसी अनेक होंगी।
पहले झांसी की दुर्घटना सुनिए। एक व्यक्ति भगवान दास मारा गया, ऐसा पुलिस ने केस दर्ज किया। 2 अगस्त 2000 को भगवान दास की हत्या के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत मुकदमा झांसी के मऊरानीपुर पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया। इस संबंध में तीन व्यक्तियों को उम्रकैद की सजा दी गई, जिसकी इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी पुष्टि कर दी और अब दस वर्ष पश्चात् जिस भगवान दास की हत्या के आरोप में तीन व्यक्ति, यूं कहिए तीन परिवार यातना भुगत रहे थे, वह जिंदा वापस आ गया। उनका कहना है कि वह तो हिमाचल प्रदेश में काम करने चला गया था और अब तीनों कैदी जेल से मुक्त हो गए। इन्हें मुक्ति भी तब मिली जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं सकता था। उसके निरक्षर परिजन यह समझते रहे कि संभवत:उनके बुजुर्ग ने सचमुच ही 1989 में ब्यावर क्षेत्र में कोई अपराध किया होगा। वास्तविकता यह रही कि पुलिस को मागूनाथ नाम का व्यक्ति चाहिए था, पर वह जिसे जेल में ले गए वह मागूनाथ था ही नहीं। संयोग से तीन महीने पश्चात ही इस व्यक्ति की जेल में मृत्यु हो गई। इलाज करना तो इस देश का जेल प्रशासन जानता ही नहीं और जब मृत्यु के पश्चात् परिजनों को लाश सौंपने का समय आया तब यह जानकारी मिली कि वह मागूनाथ नहीं बापूनाथ है, जिसने कभी कोई अपराध किया ही नहीं। अनपढ़, गरीब परिवार का बीमार बापूनाथ जेल में मर गया। पुलिस और अदालत दोनों ने ही उसे कारागार की सलाखों के पीछे धकेल दिया था।
यह दो ताजा घटनाएं हैं। लगभग दो वर्ष पूर्व पंजाब के बरनाला क्षेत्र में भी यही सब हुआ। तीन परिवारों के पांच लोग कत्ल के जुर्म में सजा भोगते रहे, उनके परिवार टूट गए, दो लोगों की मौत हो गई और तब जाकर यह जानकारी मिली कि वह तो जिंदा है जिसकी हत्या के आरोप में पांच लोग जेल में हैं।
मुझे लगता है कि हमारे देश कि जेलों में कम से कम पचास प्रतिशत लोग निर्दोष हैं। अनेक बार मानवाधिकार आयोगों से निवेदन कर चुकी हूं कि उनकी आवाज सुनें, जो बहुत गरीब हैं। कानून की मदद लेने के लिए जिनके पास कोई साधन नहीं, सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचना तो दूर की बात यह निचली अदालत तक भी अपना केस सही ढंग से नहीं पहुंचा सकते और 'फ्री लीगल एड' अर्थात मुफ्त कानूनी सहायता तो बस नाम बड़े और दर्शन छोटे हैं। इस सेवा की वास्तविकता क्या है यह वही लोग बता सकते हैं जो भुक्तभोगी हैं।
बाल सुधार गृहों के नाम पर भी देश में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा। देश के कुछ प्रांतों के बाल सुधार गृहों को मैंने स्वयं देखा है। कहीं-कहीं तो वह केवल भोजनालय से शौचालय तक के ही विभाग हैं, पर कुछ प्रांतों में हिरासत में पल रहे बच्चों को शिक्षा और तकनीकी शिक्षा देने का काम कुछ मात्रा में किया जा रहा है, पर इनमें से भी बहुत से बच्चे निर्दोष मैंने पाए हैं। उनका दोष इतना ही है कि वह गरीब घर में पैदा हुए, माता-पिता से दूर मजदूरी करने के लिए बड़े शहरों में काम करने को विवश होते हैं और कहीं उनसे छोटी मोटी वह गलती हो जाती है जो अभाव और गरीबी की मजबूरी कही जा सकती है। एक ऐसे ही बाल सुधार गृह में तीन बिलखते बच्चों को देखा, जो पुकार-पुकार कर कह रहे थे कि वे विवाह उत्सवों में बढ़िया खाना खाने के लिए तो जाते हैं, पर चोरी नहीं करते। पंजाब के ही एक बाल गृह में जब छोटी सी बालिका को साथियों ने चोर कहा, तो वह खूब रोई। उसका कहना था कि उसने चोरी नहीं की। बाद में पता चला कि नन्ही सी इस बालिका पर ट्रैक्टर चोरी का केस है। यह संभव ही नहीं था। बाद में पुलिस ने केस वापस लिया। अगर यह ध्यान में न आता तो वह बचपन से जवानी में चली जाती और किसी कारागार में चोर बनकर सड़ती रहती।
सवाल यह है कि देश में न्यायपालिका है, जांच एजेंसियां हैं, गुप्तचर और सतर्कता विभाग है, वकील और गवाह हैं। इस सबके होते हुए भी निर्दोष, निरापराध जेल में क्यों पहुंचते हैं। यह भी सच है कि ईश्वर का रूप कहे जाने वाले कुछ डाक्टर अपनी कलम से साधारण चोट को गंभीर चोट बनाकर भी लोगों को अदालतों की दहलीजों पर एड़ियां रगड़ने को विवश करते हैं। सच यह भी है कि कभी यह काम लालच से होता है और कभी किसी सत्तापति अथवा संबंधी को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।
मेरा प्रश्न और चिंता का विषय तो यह है कि आखिर इस नागपाश से हम अपने उन लोगों को कैसे मुक्त करें, जो नेक हैं, कानून का पालन करने वाले हैं, गरीब हैं पर अपराधी नहीं? एक और बीमारी अपने समाज में है, जिसका इलाज किए बिना न्याय मिल ही नहीं सकता। यहां बहुत से लोगों का धंधा गवाही देना है। ईश्वर के नाम पर कुछ भी कहलवा लीजिए, वे लोग कहने को तैयार हैं। पर सवाल यह है कि जो लोग झूठी गवाही देते हैं उनको दंड क्यों नहीं दिया जाता, यद्यपि झूठी गवाही देना अपराध है। बड़े-बड़े नेताओं के जब केस अदालतों में चलते हैं तो गवाहों का मुकर जाना आम बात है। कौन यह देखेगा कि वे कब झूठ बोलते हैं, गवाह बनने के साथ या गवाही से मुकर जाने के समय। अगर ऐसे लोगों को कठोर दंड दिया जाए तब बहुत से दोषी दंड पाएंगे और बेकसूर मुक्त हो सकेंगे। इसमें भूमिका केवल सरकार की ही नहीं अपितु समाज की भी है। सत्ता के शिखरों पर बैठे इस देश के जन प्रतिनिधि क्यों इतने संवेदनाशून्य हो गए हैं कि वे उनका दर्द महसूस ही नहीं करते जो बरनाला, राजगढ़ या झांसी में हुए अन्याय का शिकार हैं और वर्षों तक जेलों की काली रातें और धंुधले दिनों में जीने को विवश हो चुके हैं। क्या अपनी सरकारें इतनी अक्षम हैं कि हिरासत में जी रहे लोगों की सच्चाई और झूठी गवाही देने वालों की आपराधिक पृष्ठभूमि की जांच नहीं करवा सकतीं। यह भी याद रखना होगा कि जो लोग बिना दोष कारागारों में सड़ते हैं, वे विद्रोही और अपराधी न बनें तो आश्चर्य होगा।
अमृतसर की जेल में अभी-अभी जिस तरह एक कैदी उपचार के लिए तड़प-तड़प कर मर गया, वह भी कोई अकेली घटना नहीं, गरीब के साथ सभी जगह ऐसा होता है। इस देश के न्यायाधीश कुछ ऐसा करें जिससे लोगों को न्याय मिले, केवल निर्णय नहीं। केवल निर्णय मिलने का ही यह दुष्परिणाम है कि वर्षों तक लोग निर्दोष होते हुए भी 'कातिल' बनाकर जेल में आखिर क्यों डाल दिए जाते हैं। क्या इसके लिए केवल वकील, गवाह और पुलिस ही जिम्मेदार है? यह लोग उम्रकैदी बनाकर दीवारों के पीछे जीवन भर तड़पने के लिए धकेल दिए जाते हैं। क्या इस यातना का कोई मुआवजा है जो सरकार या न्यायालय दे सके? आयु के दस वर्ष गए, बच्चों का वर्तमान और भविष्य धूमिल हो गया, परिवार की इज्जत गई, बच्चों के विवाह शादी के समय भी यह धब्बा बाधा बनेगा कि अपराधी परिवार से संबंध रखते हैं। कोई तो सोचे आखिर देश की संवदेना क्यों सूख MÉ<Ç?n.
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