फतवे के आगे भी जाकर देखें
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गोहत्या के सम्बंध में
मुजफ्फर हुसैन
पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम के फतवा विभाग ने दो मामलों पर फतवे जारी किए। प्रथम विषय तो यह था कि क्या इस्लामी शरीयत के अनुसार इस्लाम के प्रणेता पैगम्बर मोहम्मद साहब की वर्षगांठ मनाई जानी चाहिए? दूसरा मसला था कानून और संविधान का सम्मान करते हुए ईद-उल-जुहा के अवसर पर जहां गोहत्या पर प्रतिबंध है, उन प्रदेशों में गोहत्या नहीं होनी चाहिए। पैगम्बर साहब के जन्म दिवस को अत्यंत धूमधाम से मनाया जाए और उस दिन सार्वजनिक छुट्टी घोषित की जानी चाहिए, यह मांग मुस्लिम बंधुओं की तुलना में अवसरवादी राजनीतिज्ञों की अधिक थी। इसको हवा उस समय दी गई जब पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पैगम्बर साहब के जन्म दिवस की छुट्टी की घोषणा लालकिले से राष्ट्र के नाम संदेश देते समय की। भारत में अनेक महापुरुषों की जयंती के अवसर पर सार्वजनिक अवकाश रहता है। इसलिए यदि पैगम्बर हजरत मोहम्मद के जन्म दिन पर भी सार्वजनिक अवकाश दिया जाए, यह कोई बड़ी बात नहीं थी। यह काम तो भारत सरकार द्वारा जारी अध्यादेश के माध्यम से भी किया जा सकता था। लेकिन अपने वोट बैंक को खुश करने और विश्व में प्रचार करने की दृष्टि से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लालकिले से इस छुट्टी की घोषणा की थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह जब तक जीवित रहे अपने इस काम की प्रशंसा अपने मुंह से करते रहे। लेकिन देश के समझदार वर्ग ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया, बल्कि इसे अनावश्यक कसरत ही निरूपित किया।
केवल सात देशों में छुट्टी
वैसे भी पैगम्बर साहब के जन्म दिन पर आपत्ति नहीं थी। किसी भी मजहबी, सामाजिक संस्था अथवा राजनीतिक दल ने इसकी मांग भी नहीं की थी। पिछले दिनों इस विषय पर देवबंद के फतवा विभाग ने फिर से अपना मुंह खोला और स्पष्ट कर दिया कि इस्लाम में पैगम्बर साहब की वर्षगांठ मनाए जाने का कोई आदर्श नहीं है। बल्कि इस पवित्र दिन पर पैगम्बर साहब के जन्म दिन की आड़ में कुछ ऐसी हरकतें होती हैं, जो इस्लाम के आदर्श के विरुद्ध हैं। दारूल उलूम देवबंद ने अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए एक बार फिर से यह बात दोहराई कि वह इस्लाम के जन्मदाता हजरत मोहम्मद साहब के जन्म दिवस को उत्सव के रूप में मनाने के पक्ष में नहीं है। इस्लामी दुनिया में केवल सात देश ऐसे हैं, जो इस अवसर पर सार्वजनिक छुट्टी घोषित करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 50 मुस्लिम राष्ट्र पैगम्बर साहब की वर्षगांठ पर न तो सार्वजनिक छुट्टी देते हैं और न ही सार्वजनिक उत्सव मनाते हैं। देवबंद ने अपनी बात कह कर अपना दायित्व पूरा कर लिया। लेकिन भारत तो उत्सवों का देश है इसलिए यहां के मुस्लिम बंधु पैगम्बर साहब के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए वर्षगांठ के अवसर पर अपनी खुशियां व्यक्त करते हैं तो देश की जनता को कोई आपत्ति नहीं। उक्त घटना इतना अवश्य ही स्पष्ट कर देती है कि लालकिले से की गई घोषणा अपने वोट बैंक को खुश करने का मात्र एक नाटक था।
जफर का फरमान
दारूल उलूम के फतवा विभाग ने दूसरी घोषणा यह की कि जिन प्रदेशों में गोवंश हत्या पर प्रतिबंध है, वहां मुसलमानों को सरकारी कानून का सम्मान करते हुए गोवंश की कुर्बानी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह गैर कानूनी है और साथ ही जनता के एक बहुत बड़े वर्ग की भावना को आहत करने वाली है।
न केवल ईद-उल-जुहा के अवसर पर दी जाने वाली कुर्बानी, बल्कि सामान्य दिनों में भी गोहत्या के सम्बंध में अनेक फतवे समय-समय पर जारी होते रहे हैं। बहादुरशाह जफर ने न केवल मजहबी उलेमाओं से इसके लिए फतवा जारी करवाया था, बल्कि बादशाह होने के नाते शाही फरमान जारी किया था। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में उक्त फतवे ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का सबूत देकर अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी। आजादी के पश्चात् देश के लिए बनाए गए संविधान में गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए इसका आग्रह संविधान सभा ने किया है। लेकिन उक्त मामला राज्य सरकारों के अधिकार के तहत दिया गया है। केन्द्र सरकार से जब कभी यह मांग की जाती है कि देश में करोड़ों लोगों की आस्था गोमाता में है।
गाय हमारी खेती का सबसे बड़ा आधार है। बैल खेतों में वही काम करता है जो हमारे यहां अश्व शक्ति से चलने वाली मशीनें करती हैं। कृषि के अतिरिक्त भी गाय में करोड़ों भारतीयों की आस्था है। गाय एक देवी के समान पूजी जाती है। भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों में गोवंश से जुड़े अनेक त्योहार मनाए जाते हैं। गोपाष्टमी, दीपावली के पश्चात् गोवर्धन पूजा और महाराष्ट्र में पोले का त्योहार इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इसलिए यदि गोवंश की हत्या होती है तो यह हमारी आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध है। इसलिए जिन प्रदेशों में गोहत्या बंदी कानून नहीं है, वहां सतत् सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन चलते हैं। राजनीति एक ताकतवर माध्यम है इसलिए अब राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित अनेक संगठन गो बचाओ आन्दोलन में जी-जान से लगे हुए हैं। देश में आज भी एक ऐसा वर्ग है जो गाय को सामान्य पशु के रूप में ही देखता है। इसलिए उसकी हत्या उनके लिए वर्जित नहीं है। यह वर्ग बहुत छोटा है लेकिन वोट बैंक की खातिर अनेक राजनीतिक दल उनकी वकालत के लिए खड़े हो जाते हैं।
गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध हो
भारतीय कानून में अब भी गोवंश की स्पष्ट परिभाषा देखने को नहीं मिलती है। गाय का वध करने की कानूनी तौर किसी को हिम्मत नहीं होती है, लेकिन चोरी-छिपे यह धंधा होता है, इसमें भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। सबसे बड़ी समस्या तो गोवंश की परिभाषा को लेकर है। गाय का बछड़ा एक विशेष आयु तक कत्ल नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब वह बैल बन जाता है उस समय अनेक राज्यों में उसकी हत्या की छूट है। बैल की आड़ में न केवल बछड़े, बल्कि गाय के वध किए जाने के भी अनेक मामले सामने आते हैं। बकरा ईद के अवसर पर इस प्रकार की घटनाओं में वृद्धि हो जाती है। इसलिए सबसे पहला सवाल तो यह है कि जिन प्रदेशों में गोहत्या पर प्रतिबंध है उनके यहां गोवंश पर भी सम्पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए, ताकि अपराधी के लिए कोई गुंजाइश न रहे।
गाय और बैल की उपयोगिता को देखते हुए क्या संविधान में यह संशोधन नहीं हो सकता है कि उक्त कानून केन्द्र सरकार के दायरे में होगा? यह हुआ तो फिर कोई भी राज्य इससे अपने आपको नहीं बचा पाएगा। फतवे की असली परीक्षा तो सम्पूर्ण गोवध बंदी में ही है। राज्य स्तर के कानून से सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि जिन प्रदेशों में गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध है वे अपने यहां का गोधन उन राज्यों में स्थानान्तरित कर देते हैं जहां उसकी हत्या वर्जित नहीं है। सम्पूर्ण भारत में यह प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है कि वह अपने व्यापार के लिए भ्रमण करे और चाहे तो व्यापार को संचालित भी करे। इसलिए उच्च गुणवत्ता का गोधन भी बूचड़खानों में पहुंच जाता है। यही कारण है कि भारतीय गाय की प्रसिद्ध नस्लें अब प्राय: समाप्त होती जा रही हैं। बूचड़खाने के कायदे-कानून इतने लचर हैं कि वहां किसी भी प्रकार का पशु सरलता से पहुंच जाता है।
बकरा ईद के अवसर पर गोरक्षक अपनी टोलियां बनाकर अवैध पशुओं को ले जाते हुए पकड़ते हैं। अपनी जान की बाजी लगाकर वे उन्हें छुड़ा भी लेते हैं। आस-पास यदि कोई गोशाला है तो वहां उसे पहुंचाने का प्रबंध करते हैं। यदि सरकारी कर्मचारी और बीच के दलालों के हाथ उक्त गोधन लग जाता है तब तो यह मानकर चलें कि वह येन-केन प्रकरेण बूचड़खाने पहुंच ही जाता है।
कानून का उल्लंघन
बकरा ईद के अवसर पर बड़े पशुओं को काटने की आज्ञा मात्र बूचड़खाने में ही होती है। अब तो मुम्बई जैसे महानगरों के मुस्लिम मोहल्लों में जब जाकर देखते हैं तो ईद से दो-तीन दिन पूर्व ही बड़े पशु लाकर बांध दिए जाते हैं। गली और मोहल्ले इस कारण कितने सड़ते हैं यह वहां के नागरिकों को हमेशा का अनुभव है। प्राय: इन बड़े जानवरों को इन्हीं बस्ती की सड़कों पर अथवा मैदानों में सामान्यतया काटने का रिवाज बढ़ता जा रहा है। बड़े पशु को काटते समय जो खून के फव्वारे उड़ते हैं उसे देख पाना कठिन होता है। खून, गोबर, मूत्र और काटने के पश्चात् पेट से निकलने वाले अवयव इतनी गंदगी करते हैं कि आम आदमी का स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है। मुम्बई की चालों और इमारतों के खाली स्थानों पर बकरे काटे जाने का दृश्य देखने को मिलता है। बकरे को चार-पांच दिन पूर्व ले जाकर उसे घास और पेड़ों के पत्ते खिलाए जाते हैं। वह जिस प्रकार की गंदगी करता है उसका वर्णन करना कठिन है। इसी गंदगी में लोग निवास करते हैं। उनके बच्चे चार-पांच दिन पहले से इन्हें सजा-धजाकर घुमाते हैं। पशुओं को इन छोटे बच्चों के सामने काटा जाता है। उक्त हिंसा के दृश्य कोमल मन मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। नगर पालिकाएं और महापालिका उन्हें छूट देती है। बैलों को बूचड़खाने के बाहर ले जाना और काटना सख्त मना है। कानूनी तौर पर यह जुर्म है। लेकिन मुम्बई वासियों को यह सब सहन करना पड़ता है। महापालिका की इस लापरवाही पर कहीं तो कोई प्रतिबंध होना चाहिए। देवबंद के फतवे के अनुसार यदि प्रतिबंधित गोवंश काटना अपराध है तो फिर आम जनता के बीच ले जाकर उन्हें काटना भी अपराध होना चाहिए। मुम्बई में ईद-उल-जुहा के अवसर पर इस वर्ष 1 लाख 81 हजार 90 बकरे और 10 हजार 340 बैल और भैसों की कुर्बानी दी गई। इस सम्बंध में यदि देवबंद मदरसा आम जनता को शिक्षित करे तो यह देश और मजहब दोनों के लिए एक प्रशंसनीय कार्य होगा।
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