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विवाह एक मांगलिक उत्सव
ह्रदयनारायण दीक्षित
परिवार बड़ी रम्य रचना है। बिल्कुल सरस सलिल गीत जैसी लयबद्ध कविता, गायत्री छन्द अथवा वृहद् सामगान जैसी। थके हारे विश्रान्त चित्त का भरोसा है परिवार। पूर्वजों ने धरती को व्वसुधैव कुटुम्बकम्व् कहा है। वसुधा-पृथ्वी बड़ा परिवार है। परिवार में गुरुत्वाकर्षण होता है, गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की शक्ति है। पृथ्वी सभी वस्तुओं को खींचती है – आओ, घर लौटो, यहीं हमारे आश्रय में अपने आंचल में लौटो। हरेक छोटा-बड़ा परिवार भी खींचता है। हरेक सरल चित्त से पूछिए – धरती में सबसे प्रीतिकर स्थान क्या है? कहां है? वह फौरन उत्तर देगा – हमारा परिवार, घर। तभी तो घर छोड़ दूर मजदूरी करने गए श्रमिक, कर्मचारी या व्यवसायी मौका पाते ही लौट पड़ते हैं अपने परिवार की ओर। लेकिन इस परिवार रूप आकार को सतत् प्रवाही बनाने का काम करता है- विवाह। विवाह इसीलिए मंगल मुहूत्र्त है, मांगलिक उत्सव है। बिना छन्द जाने ही गाने बजाने और बिना नृत्य जाने ही यों ही मस्त-मस्त नाचने की मंगल भवन अमंगलहारी लगन।
लेकिन विवाह टूट रहे हैं। यूरोपीय सभ्यता बहुत पहले से ही विवाहेत्तर रंगत लाई थी। अब अमेरिकी सभ्यता की बहार है। विवाह पहले दो प्राणों का मिलन था, अब कोरा व्लिव-इन-रिलेशनव् है। कह सकते हैं कि साथ-साथ रहने का अश्लील समझौता। वैदिक समाज में प्रीति थी, परस्पर समर्पण थे। इस समाज की मूल इकाई परिवार था और परिवार गठन की मूल संस्था विवाह है। विवाह संस्था ऋग्वेद के पहले से है। लेकिन एस. ए. डांगे सहित तमाम माक्र्सवादी विद्वान वैदिक काल में व्विवाहव् होने को स्वीकार नहीं करते। ऐसे लोगों की राय में वैदिक काल मे विवाह नहीं थे और वैदिक समाज स्वच्छन्द था। कतिपय विद्वान ऋग्वैदिक समाज को स्वेच्छाचारी बताते हैं, लेकिन यज्ञ जैसे कर्मकाण्ड में भी अविवाहित पुरुष को अधिकारी नहीं माना जाता था- अयज्ञो वा ह्रेष यो अपत्नीक:। (तैत्तिरीय ब्रााहृण 2.2.2.6)। तैत्तिरीय (6.3.10.5) के अनुसार व्मनुष्य तीन ऋण लेकर जन्म लेता है – देवऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण। पितृ ऋण उतारने के लिए विवाह और संतान आवश्यक हैं।
सामाजिक उत्तरदायित्व
विवाह एक सामाजिक उत्तरदायित्व था। कुछ लोग जिम्मेदारी से बचने या अन्य कारणों से विवाह से कतराते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में ऋषि पत्नी लोपामुद्रा और अगस्त्य का रोचक सम्वाद है। अगस्त्य महान ऋषि थे, अध्ययन तप के कारण वैवाहिक रिश्तों के निर्वहन में संभवत: शिथिल थे। लोपामुद्रा एक मन्त्र (1.179.2) में कहती हैं व्प्राचीनकाल के सत्यनियम आबद्ध ऋषियों ने भी विवाह और संतानोत्पति का कार्य किया था। वे आजीवन ब्राहृचारी नहीं रहे।व् कहती हैं व्हम दोनों अनेक वर्ष श्रमनिष्ठ व्शश्रमाणांव् रहे हैं, बुढ़ापा शरीर क्षमता को जीर्ण करता है, समर्थ पुरुष पत्नियों के पास जायेंव् (वही, 1) अगस्त्य कहते हैं व्हमारा परिश्रम – व्श्रान्तव् बेकार नहीं गया। देवता परिश्रमी को संरक्षण देते हैं, हम दोनो अब संतान उत्पन्न करें।व् (वही, 3) विवाह पति-पत्नी के द्वैत को समाप्त करता है। ऋग्वेद में विवाह के कारण दोनो से बनी नई एकता के लिए व्दंपत्तिव् शब्द आया है। दंपत्ति बड़ा प्यारा शब्द है। इसके ठीक पर्यायवाची अन्य भाषाओं में नहीं मिलते।
दम्पत्ति का निर्माण मन मिलौवल से होता है। अग्नि देव दोनों का मन मिलाते हैं और अश्विनौ दोनों का जोड़ा बनाते हैं। ऋषि कहते हैं, व्अग्निदेव पति और पत्नी के मन को मिलाते हैं।व् (ऋ0 5.3.2) विवाह की मजबूती का आधार अग्नि के 7 फेरे हैं। भारतीय विवाहों में आधुनिक काल में भी अग्नि के सात चक्कर लगाने यानी व्सप्तपदीव् की परम्परा है। प्राचीन परम्परा के तमाम भावुक सांस्कृतिक अवशेष ग्राम परम्परा में जस के तस मौजूद हैं। विवाह के पूर्व कन्या दिन में पूरे गांव में घर-घर जाती है। वह पूरे गांव से आशीष मांगती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे व्सोहागव् मांगना भी कहते हैं। वह इस गांव को छोड़ रही है। अब नया घर मिलेगा। गांव नया होगा। ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं, व्हे कन्या तुम्हें हम पितृकुल से मुक्त करते हैं। तुमको पतिकुल से संयुक्त करते हैं। वहां आप गृहस्वामिनी बनें, सबको अपने अनुशासन में रखने वाली बनें। तुम्हारे 10 पुत्र हों, 11 वां पुत्र पति हो, तुम पशुओं और घर की चिंता करो।व् फिर वर वधु से कहते हैं, व्आप कभी पृथक न हों। गृहस्थ धर्म का निर्वहन करते हुए पुत्र, नाती, पोतों के साथ आमोद प्रमोद करें।व्
अश्विनौ लोकमंगल के देवता हैं। वे पति पत्नी का जोड़ा भी मिलाते हैं। ऋग्वेद (10.40.5) में कक्षीवान की पुत्री घोषा कहती हैं कि मैं आपकी स्तुतियां करती हूं व्मैं पति पत्नी के साथ रहने वाले सुख से अपरिचित हूं। जो पुरुष पत्नी की रक्षा में रोदन तक करते हैं संतान देते हैं मेरी कामना है कि वैसे ही बलिष्ठ पति के गृह जाऊं। फिर कहती हैं कि हे अश्विनी कुमारो आपकी कृपा से मुझे इच्छित वर मिला है।व् (वही, 9, 10, 11) 10वें मण्डल के सूक्त 85 मन्त्र 9 व 14 के अनुसार व्सूर्या (सूर्य पुत्री) भी पति की कामना करती थी। सोम उसके साथ विवाह के इच्छुक थे लेकिन अश्विनी कुमार ही वर रूप में स्वीकृत हुए। अश्विनी कुमार सूर्या से विवाह की चर्चा के लिए स्वयं गये थे। सभी देवों ने इस विवाह का अनुमोदन किया।व् सूर्या के विवाह का यह प्रकरण ऋग्वेद के मनोरम काव्य रचना तो है ही, गहन दार्शनिक विवेचना भी है।
विवाह सामाजिक महोत्सव है। ऋग्वेद (10.85) में विवाह का रम्य वर्णन है। सूर्या के विवाह का चित्रण मनोहारी है। कहते हैं व्सूर्या के विवाह में ऋचाएं (वैदिक काव्य – मन्त्र) सखियां और सेविकांए थीं। गाथाएं उसके शोभायमान वस्त्र थे। स्तुतियां सूर्या के रथचक्र के डण्डे थे। मन उसका रथ था और आकाश इस रथ का चक्र था।व् (वही, 6-10) पिता सूर्य ने स्नेह-धन (दहेज) दिया। सूर्या और अश्विनी कुमारों के विवाह का अनुमोदन सभी देवों ने किया। (वही 13.14) यहां विवाह के समय वरिष्ठों से परामर्श लेने की परम्परा मौजूद है। आगे कहते हैं व्हे कन्ये हम आपको वरुण बंधन से मुक्त करते है – प्र त्वा मुंचामि वरुणस्य पाशाद्येन। (वही 24) वरुण नियमों के राजा हैं। ऋत-नियम के अनुसार अविवाहित पुत्री पितृग्रह से युक्त रहती है। कहते हैं व्हे कन्या पितृकुल से आपको मुक्त करते हैं, पति कुल से सम्बद्ध करते हैं। इन्द्र से प्रार्थना है कि यह कन्या पुत्रवती हो, सौभाग्यवती हो। (वही, 25) विवाह का अवसर है वर कन्या से कहता है व्हे वधू सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं आपका हाथ ग्रहण करता हूं- गृभ्णमिते सौभगत्वाय हस्तंमया। (वही 36) देवशक्तियां उसे आशीर्वाद देती हैं व्दीर्घायुरस्या य: पतिर्जीवाति शरद: शतम् – इसके पति दीघार्यु हों, सौ शरद् (वर्ष) जियें। (वही 39) इस दम्पत्ति को शत्रु या रोग पीड़ित न करें। (वही, 32) विवाह सामाजिक अनुष्ठान है इसलिए “सभी कन्या को सब देखें। आशीर्वाद दें। (वही, 33) फिर मुक्त भाव से आशीर्वाद देते हैं व्सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्रवाभव, ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवेषु – श्वसुर, सासु, ननद और देवरो की सम्राज्ञी – शासनकत्र्ता बनो।” (वही, 46) वैदिक काल में सास ससुर, ननद और देवर जैसे नेहपूर्ण रिश्तों का विकास हो चुका था। यहां नवबधू भोग्या और सेविका नहीं सम्राज्ञी है।
वैवाहिक सम्बंधों का भौगोलिक क्षेत्र बड़ा है। इसलिए पारिवारिक सम्बंध भी बहुत बड़े क्षेत्र तक व्यापक होते है। यहां गण समूह हैं, गणों से मिलकर बने जन और बड़े समूह हैं। लेकिन वर्ण व्यवस्था नहीं है। डा. सत्यकेतु ने व्प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युगव् (पृष्ठ 189) में लिखा है कि व्ऋग्वेद के समय में भारतीय आर्य चार वर्णों में विभक्त नहीं हुए थे।व् ऋग्वैदिक समाज में व्पांच जनव् सुस्पष्ट हैं। अदिति सम्पूर्णता की पर्यायवाची देवी/देवता हैं उनकी स्तुति में कहते हैं व्विश्वे देवा अदिति: पंचजना अदिति।व् (1.89.10) कई विद्वान वर्तमान संदर्भो में व्पांचजनव् का अर्थ ब्रााहृण, क्षत्रिय वैश्य, शूद्र और निषाद करते हैं। लेकिन डा. सत्यकेतु ने लिखा है व्ये पंचजन अनु, द्रह्रु, यदु, तुर्वस और पुरु थे। इनके अतिरिक्त भरत, त्रित्सु, सृजय आदि अनेक जनों का उल्लेख वेदों में आया है।व् इस प्रकार विवाह ही परिवार, समाज और राष्ट्र की धुरी है।
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