सरोकार
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विद्यानिवास मिश्र
वर्ष में दो नवरात्र पड़ते हैं- शारदीय और वासंती। दोनों संपातों में पड़ते हैं। संपात का अर्थ होता है-स्थूल रूप में रात-दिन का बराबर होना, पृथ्वी का सूर्य से सम दूरी पर होना। सूक्ष्म रूप से इसका अभिप्राय है- संतुलन प्राप्त करने की स्थिति। ताप और शीत के बीच संतुलन होता है। शरद् में ताप उतरते-उतरते प्रखर हो उठता है और शीत आते समय बड़ा सुखद लगता है। वसंत में शीत उतरते-उतरते ही सिहरन पैदा करता है और नए ताप का चढ़ना सुखद लगता है। इसलिए इन दोनों धातुओं के तनाव में ऊर्जा पैदा होती है। उसकी सही पहचान हो, उसका सही विनियोग हो, इसलिए दोनों के शुक्ल पक्ष की प्रारंभिक नौ तिथियों में जगदंबा की पूजा-अर्चना और उनके निमित्त व्रत का विधान है। जगदंबा की पूजा का विधान इसलिए है कि व्यक्ति की अपनी कोई ऊर्जा है, इसका अभिमान छोड़ने का अभ्यास करे। सबकी ऊर्जा का रुाोत एक है, वही आदिशक्ति है, वही मां है, वही नाना रूपों में व्यक्त होती है। फिर अदृश्य, अव्यक्त करुणा और ममता के प्रवाह में समा जाती है। वह व्यक्त दो कारणों से होती है- एक तो तब, जब आसुरी शक्ति का मद प्रबल हो जाता है, दुर्बल वेध्य बन जाता है, तब वह काली होकर अवतीर्ण होती है। वह शक्ति के मद का मद पीती है, तब वह विकराल होती है। दूसरा कारण है, उसे यूं ही लीला करनी होती है, वह छोटी सी बच्ची बन जाती है, वह बच्चों की मांग पर तरह-तरह के खिलौने बनाने वाली मां बन जाती है।
वह भुवनमोहिनी बन जाती है। वस्तुत: प्रकृति में भी सुषमा तभी होती है, जब वह सु अर्थात् अच्छी तरह समता या संतुलन प्राप्त करती होती है। यह संतुलन पाने वाले या देने वाले के बीच हो, सोखने वाले या सींचने वाले के बीच हो, आवेग और शक्ति के बीच हो, तीव्रता और स्थिरता के बीच हो, संतुलन प्राप्त करने की प्रक्रिया ही सौंदर्य बनती है। शरद् की, वसंत की प्रकृति भी इसी प्रकार की प्रकृति है। शरद् में घनघोर वर्षा के बाद आकाश निर्मल होता है, वसंत में घनघोर शीत के कुहासों के बाद आकाश निर्मल होता है। दोनों ऋतुओं में कमल खिलते हैं। दोनों ऋतुओं में तरह-तरह के पंछियों के आने-जाने का कलरव गूंजता है। सर्वत्र एक चढ़ाव-उतार, आरोह-अवरोह दिखाई-सुनाई पड़ता है। इसी सुषमा को भुवनमोहिनी की चितवन कहते हैं, खंजन की तरह ऊंची हुई आंखें शरद् की हैं और कमल की तरह धुली हुई आंखें वसंत की हैं। हम नवरात्र में व्रत इसलिए करते हैं कि अपने भीतर की शक्ति, संयम और नियम से सुरक्षित हों, उसका अनावश्यक अपव्यय न हो। पूरी सृष्टि में जो ऊर्जा का प्रवाह आ रहा है, उसे अपने भीतर रखने के लिए भी पात्र की स्वच्छता आवश्यक है। व्रत के साथ हम ऐसे पुष्पों से, ऐसी सुगंधियों से, ऐसे आमोद-प्रमोद के मनोरम उपायों से जगदंबा को रिझाने का प्रयत्न करते हैं, जो इस लोक में सबसे अधिक चटकीले हों, कमनीय हों, ह्मद्य हों, आस्वाद्य हों और संवेद्य हों। गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य का अर्पण इसी भाव से होता है कि इस संसार में जो कुछ सुंदर है, वह सब मां, तुम्हारा ही है। गंध के रूप में पृथ्वी तत्व अर्पित होता है। पुष्प के रूप में पुष्प की तरह खिला हुआ प्रसन्न आकाश अर्पित होता है। धूप के रूप में सर्वशोधक वायु तत्व अर्पित होता है। दीप के रूप में अग्नि तत्व अर्पित होता है और नैवेद्य के रूप में जल का अमृत अर्पित होता है।
इन पांचों तत्वों की समष्टि तांबूल के रूप में अर्पित होती है। यह अर्पण इस भाव से होता है कि सीमित परिधि में रहने वाला तत्व अनंत असीम में निहित तत्व को अर्पित हो जाए। इन पांच तत्वों के अर्पण के साथ-साथ गीत-वाद्य भी अर्पित होते हैं, उनके माध्यम से मन अर्पित होता है। विश्व मन को स्तुतियां अर्पित होती हैं, उनके व्याज से सीमित बुद्धि असीम बुद्धि को अर्पित होती है। जप और ध्यानयोग के द्वारा आत्मा अर्पित होती है विश्वात्मा को। इस प्रकार शक्ति के आराधन का यह नवरात्र कार्यक्रम उत्सव के रूप में मनाया जाता है। दु:ख-सुख दोनों अर्पित होते हैं ऐसी मां को, जो जागती रहती है हर बच्चे की देखरेख के लिए। वह यह देखती रहती है कि कहीं कोई बच्चा दूसरे बच्चे के साथ अन्याय तो नहीं कर रहा है। सताने वाले बच्चे को वह दंड देती है, चोट खाए हुए बच्चे को सहलाती है। वह सताने वाले को बड़ी डरावनी लगती है और सताए जाने वाले को बड़ी दयालु। पर है वह एक ही। उसी के अनेक रूप दिखाई पड़ते हैं।
इन अनेक रूपों में कोई भेद नहीं है। व्यापार में भेद है, तत्वत: कोई भेद नहीं है। दो या बहुत दिखने का द्वैत नहीं होता है। दो का अनुभव करने भर या गान करने से दो या बहुत होता है। हम व्यापार की विविधता देखते हैं, सब व्यापारों का मूल रुाोत नहीं देखते। हर व्यापार के पीछे कोई-न-कोई मंगल संकेत रहता है।
यही कारण है कि जगदंबा सबको अपनी वत्सल छाया में समेटती है- बड़े-से-बड़े ज्ञानी को, बड़े-से-बड़े विरागी तपस्वी को और अज्ञ-से-अज्ञ, अबोध-से-अबोध जन को, अधम-से अधम विषयों में फंसे जन को। मां के आगे सब कुछ भूल जाता है। बस, इतना ही याद रहता है- संतान कैसी भी हो, मां तो बस मां होती है। एक बार सब दुराव भर छोड़ दे, उनके आगे सब कुछ रख दें, अपनी दुर्बलता, अपनी क्षमता सब उन्हीं को सौंप दें, उन पर छोड़ दें। निश्चय ही मां मंगल करेंगी। वे सर्वमंगल मांगल्या हैं। ऐसी मां की अर्चना जिस सौष्ठव से, जिस भाव से की जानी चाहिए, वह हो नहीं रही है, इसीलिए इतना अमंगल है। देखने में लगता है, बड़ा उत्साह है, बड़ा भावोन्माद है- पर भीतर-भीतर कहीं-न-कहीं दूसरे से बढ़-चढ़कर दिखने का भाव रहता है। जगदंबा यह सहन नहीं करतीं और तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ता है। नवरात्र का पर्व नैसर्गिक पवित्रता और बाल-सुभाव के आवाह्न का पर्व है। यह आह्वान जितनी सुरुचि से, जितनी सादगी से, जितनी प्रकृति के साथ संतुलन बुद्धि रखते हुए किया जाए- जितने बाल-सुलभ भाव से, सरल-निश्छल मन से किया जाए उतनी ही जगदंबा प्रसन्न होती हैं। काश, हम आज अमंगल के घेरे में घिरे हुए लोग समझते तो हमारा आह्वान कर्ण-कटु ध्वनियों का हाहाकार न होता। नवरात्र का संदेश नवसृष्टि का संदेश है, इसे हम समझ लें तो विश्व-मंगल का नया अध्याय प्रारंभ हो जाए।
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