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सड़क से संसद तक दिखा महंगाई सेआहत जन-मन का आक्रोशजन-सरोकारों से दूर सरकारआलोक गोस्वामीआज इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त लगातार चौथे दिन भी भारत की संसद ठप्प रही। मंगलवार, 27 जुलाई से शुरू हुआ मानसून सत्र किसी भी विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा से वंचित है और संसद का मान सूना है। यह स्थिति असाधारण है। संसद के दोनों सदनों को अब तक चार दिन लगातार जड़ रखकर आखिर संप्रग सरकार क्या जताना चाहती है? क्या वह नहीं जानती कि भाजपा की अगुआई में पूरा विपक्ष रोजमरा की आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों और पेट्रोल, डीजल के लगातार बढ़ते दामों पर जिस चर्चा की मांग कर रहा है, वह संसदीय परंपराओं, प्रावधानों और लोकतांत्रिक व्यवस्था के ही अंतर्गत है? पर, सरकार की बहस न कराने की जिद से महत्वपूर्ण कामकाज से वंचित संसद के जरिए पूरे देश के सामने कांग्रेस की स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति फिर जाहिर हुई है। एक ऐसे मुद्दे पर, जो हर देशवासी से जुड़ा है, जन-मन के आक्रोश का कारण है, विपक्ष की एकजुटता संसद के भीतर और बाहर देश में एक ऐसा वातावरण बना रही है जो कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के लिए भारी पड़ रहा है। और यही वजह है कि बढ़ती महंगाई पर लोकसभा में भाजपा की नियम 184 के तहत स्थगन प्रस्ताव पर बहस के बाद मतदान में हार कर वह यह पोल नहीं खुलने देना चाहती कि सदन में उसके अपने ही सदस्य इस मुद्दे पर पार्टी से नाराज हैं। संप्रग के कुछेक सहयोगी दल तो खुलकर सरकार के प्रति विरोध जता भी रहे हैं। लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने अध्यक्ष मीरा कुमार के प्रश्नकाल होने देने के अनुरोध पर दो टूक शब्दों में कहा कि आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें ही आज देश में आम आदमी की चिंता का प्रमुख विषय हैं। इसलिए पहले इस विषय पर बहस और मतदान कराइए। ये सरकार अपनी निंदा नहीं सुनना चाहती है। स्वराज का समर्थन करते हुए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जोर देकर कहा कि जब तक महंगाई पर चर्चा की अनुमति नहीं दी जाएगी तब तक संसद से सड़क तक विरोध जारी रहेगा। उधर राज्यसभा में भी भाजपा ने मुद्रास्फीति और आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को रोकने में संप्रग सरकार की असफलता पर बहस का नोटिस दिया, जिस पर राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने बहस की अनुमति नहीं दी।सरकार की तरफ से कोरी बयानबाजी और कोई ठोस पहल न होती देख भाजपा के आह्वान पर तमाम विपक्षी दलों के सहयोग से देशवासियों ने गत 5 जुलाई “भारत बंद” करके अपना तीखा विरोध प्रकट किया था। सरकार हिल गई थी। सरकारी मीडिया जरूर कुछेक प्रायोजित तस्वीरें दिखाकर बंद का “आंशिक” असर घोषित कर रहा था, पर असल में उस दिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक और केरल से कामरूप तक चौराहे सूने थे। प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, कृषि मंत्री शरद पवार, पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा….. कोई भी तो गंभीर नहीं दिखता इस मुद्दे पर। आंकड़ों की अटकलों में जनता को फंसाने की बस कसरत भर दिखती है। प्रधानमंत्री डा.सिंह ने तो 24 मई 2010 को अपनी पहली पत्रकार वार्ता में माना था कि “बढ़ती कीमतों का मुद्दा उन प्रमुख मुद्दों में से एक है जिनका समाधान खोजा जाना है। बढ़ती कीमतें लगातार चिंता का विषय बनी हुई हैं। सरकार मुद्रास्फीति को काबू करने को प्राथमिकता मानती है ताकि आम आदमी प्रभावित न हो। हम स्थिति पर सावधानी से नजर बनाए रखेंगे और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के जिए जरूरी कदम उठाएंगे।” अंग्रेजी में विशुद्ध दार्शनिक अंदाज में वित्त विशेषज्ञ माने जाने वाले डा.सिंह के ये शब्द थे। हुआ क्या? क्या उन फैसलों को करने के लिए प्रधानमंत्री के हाथ किसी ने बांध रखे हैं जो सीधे जनता के हित से जुड़े हैं? उत्पाद कर बढ़ाकर आवश्यक वस्तुओं के दामों को तो केन्द्र ही बढ़ाता है। पेट्रोल, डीजल पर विदेशी बाजार में बढ़त के बहाने नए करों को थोपा जाता रहा है।29 जुलाई को सरकार की बेशर्मी के विरुद्ध भाजपा सांसदों ने राष्ट्रपति भवन जाकर राष्ट्रपति के सामने जन-जन का आक्रोश पहुंचाया। 10 करोड़ हस्ताक्षर सौंपकर उनसे दखल देने की मांग की गई। भाजपा ने राष्ट्रपति को सौंपे 7 पृष्ठीय ज्ञापन में कहा है कि कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में “अगले 100 दिन में आवश्यक वस्तुओं की कीमतें घटाने” का वायदा किया था। लेकिन अब तो वह आम आदमी की ओर देखना ही पसंद नहीं करती।इधर कीमतें बढ़ रही हैं और उधर सरकारी गोदामों में गेहूं, चावल के भंडार सड़ रहे हैं। अप्रैल 2010 में, भारतीय खाद्य निगम के “सेंट्रल पूल” में 183 लाख टन गेहूं था। इसमें से 80 लाख टन गेहूं खुले में पड़ा होने के कारण खराब हो चुका है। जिस देश में, तेंदुलकर कमेटी के हिसाब से, 42 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हों (दिसंबर 2009), जिनकी दैनिक कमाई 20 रु. से कम है, जिनको दो वक्त भरपेट भोजन नसीब नहीं होता, उस देश में लाखों टन अनाज का यूं रखरखाव की कमी के चलते बिगड़ना भीतर तक झकझोरता है। पर जिस सरकार की संवेदनाएं ही शून्य हों, तो उसके कृषि मंत्री को खेत से ज्यादा क्रिकेट के मैदान ही भाएंगे।यह बेशर्मी है, जिसे भाजपा प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद प्रकाश जावड़ेकर ने “सुल्तानी” प्रवृत्ति कहा। सड़क से संसद तक सरकार की इस प्रवृत्ति के विरोध और बढ़ती महंगाई के प्रति सरकार की संवेदन शून्यता पर पाञ्चजन्य से बात करते हुए जावड़ेकर ने कहा, “संसद में हमने स्थगन प्रस्ताव की मांग संसदीय कायदों के अंतर्गत ही रखी थी। संसद के कामकाज में स्थगन प्रस्ताव का प्रावधान है जिसके अंतर्गत पहले कई बार प्रमुख विषयों पर चर्चा हुई है। महंगाई के मुद्दे पर संसद में आम चर्चा तो पांच बार हो चुकी है। लेकिन हर बार वह इसलिए बेनतीजा रही, क्योंकि सरकार दो साल से कोरे आश्वासन देती आ रही है कि दो महीने में स्थिति पर नियंत्रण कर लिया जाएगा। पर ऐसा हो नहीं रहा है। खाद्य पदार्थों, पेट्रोल, डीजल, गैस की बढ़ती कीमतों से आहत जनता आक्रोशित है और उसने भारत बंद को सफल बनाकर इसे प्रकट भी किया था। हम यानी तमाम राजनीतिक दल भी संसद के अंदर लोकतांत्रिक तरीके से सरकार की निंदा करना चाहते हैं। अगर प्रस्ताव पारित होता तो भी सरकार नहीं गिरती। पर सरकार अड़ियल रुख अपनाए है, वह अपनी निंदा सुनने को तैयार नहीं है। हमारा कहना है कि प्रस्ताव बिना मतदान वाले नियम के तहत लाने का कोई फायदा इसलिए नहीं है क्योंकि पांच बार इस नियम के तहत चर्चा हो चुकी है और सरकार कोरे आश्वासन देकर बचती रही है। अगर संसद में प्रावधान के तहत भी बहस नहीं कराई जाएगी तो लोकतंत्र में आक्रोश कैसे दिखाया जा सकता है?” भाजपा की अगुआई में इस मुद्दे पर विपक्ष की एकजुटता पर टिप्पणी करते हुए जावड़ेकर कहते हैं, “जयप्रकाश जी के आंदोलन के बाद आज यह माहौल इसलिए बना है क्योंकि मुद्दा जायज है, जिस पर भाजपा ने कोई पार्टीगत दृष्टिकोण नहीं रखा है। हर पार्टी आंदोलन कर रही है, उस महंगाई का विरोध कर रही है जो देश की सौ करोड़ जनता को चुभ रही है। लेकिन सरकार महंगाई कम करने की बजाय खुद पेट्रोल, डीजल पर नए-नए कर लगा रही है, कीमतें बढ़ा रही है।” सरकार की वर्तमान रीति-नीति स्वस्थ माहौल का परिचय नहीं दे रही है। इसमें से उस स्वेच्छाचारी रवैए की झलक दिख रही है जो आपातकाल से पहले दर्शाया गया था, जब विपक्ष का मुंह बंद करने की बेशर्म कोशिश की गई थी। जावड़ेकर कहते हैं, “सरकार पूरी तरह बेशर्म होकर अलोकतांत्रिक रवैया दिखा रही है। यह वही रवैया है जो आपातकाल से पहले श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने दर्प में भरकर दिखाया था। हमने राष्ट्रपति को विस्तृत ज्ञापन सौंपकर कहा है कि बढ़ती कीमतें सरकार की गलत नीतियों का परिणाम हैं। यह आसमानी नहीं, “सुल्तानी” संकट है और इस “सुल्तान” का नाम संप्रग सरकार है।”8
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