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विभेदकारी विशेष दर्जाद नरेन्द्र सहगलथ् मजहबी बहुमत के आधार पर जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष संवैधानिक दर्जा न केवल भारतीय लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और संघीय ढांचे को चुनौती दे रहा है अपितु यह गरीब, वंचित और महिला विरोधी भी है।जम्मू-कश्मीर को विश्व स्तर पर एक समस्या के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिम्मेदार पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद/अलगाववाद को समाप्त करने के लिए भारत सरकार ने पिछले 63 वर्षों में बेहिसाब और अथाह धन से इस प्रदेश के लोगों विशेषतया कश्मीरियों की जेबें भरी हैं। अरबों रुपयों के आर्थिक पैकेजों, ढेरों राजनीतिक सुविधाओं और हजारों भारतीय सैनिकों के बलिदान के बावजूद देशद्रोहियों को दबाया नहीं जा सका। भारत की सरकार एक के बाद एक राजनीतिक और आर्थिक सुविधाओं के ढेर लगाती जा रही है और जम्मू-कश्मीर सरकार सहित सभी अलगाववादी सुविधाओं के इसी ढेर पर चढ़कर भारत की सरकार, सेना और संविधान से आजाद होने की आवाज बुलंद कर रहे हैं।कश्मीर समस्या की जड़दरअसल कश्मीर समस्या का हल करने की राजनीतिक कोशिश में जुटे सभी नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी लोग समस्या की जड़ों पर प्रहार करने से परहेज कर रहे हैं। कश्मीर घाटी में अपनी जड़ें जमा चुके राष्ट्रद्रोही अलगाववाद की जड़ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370, वहां का अलग संविधान और अपना रियासती झंडा इत्यादि पृथकतावादी प्रेरणाओं को समाप्त करने का निश्चय करना तो दूर की बात है, इन विषयों पर चर्चा करना भी आज फासीवाद, साम्प्रदायिकता और राजनीतिक संकीर्णता समझा जा रहा है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि जम्मू-कश्मीर के इसी विशेष दर्जे ने कश्मीर घाटी में इस्लामिक फासीवाद, फिरकापरस्ती और मजहबी राजनीति को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया है। जम्मू-कश्मीर को दिया गया यह विशेष दर्जा न केवल भारत की अखंडता को ही चुनौती दे रहा है, अपितु वहां के अल्पसंख्यक नागरिकों के अनेक प्रकार के मौलिक अधिकारों का हनन भी कर रहा है। सच्चाई तो यह है कि इस विशेष दर्जे का समर्थन करने वाले राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और मजहबी गुट ही जम्मू-कश्मीर में व्याप्त भारत विरोधी पृथकतावाद, मजहबी उन्माद और विदेशनिष्ठ आतंकवाद के जनक, पोषक और संरक्षक हैं।यहां कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं कि जब भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत जम्मू कश्मीर का पूर्ण एवं अंतिम विलय भारत में हो गया तो इस विलय को “संशयात्मक, अधूरा और सशर्त” करार देने का शोर क्यों मचाया गया? जब शेष 568 रियासतों की तरह ही जम्मू-कश्मीर का बिना शर्त विलय भारत में हो गया तो इस प्रदेश को विशेष दर्जा देने के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान क्यों किया गया? इस अस्थाई अनुच्छेद के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को अपना अलग स्थायी संविधान बनाने की अनुमति क्यों दी गई? जब जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने इस प्रदेश के भारत में पूर्ण विलय का अनुमोदन कर दिया तो जनमत संग्रह अथवा आजादी जैसी मांग उठाने वाले राजनीतिक दलों और सामाजिक/धार्मिक संगठनों को असंवैधानिक घोषित करके प्रतिबंधित क्यों नहीं किया गया? इन्हीं मांगों को आधार बनाकर “ऑटोनोमी, सैल्फरूल, आजादी, पाकिस्तान के विलय, स्वतंत्र ग्रेटर कश्मीर और इस्लामिक राष्ट्र कश्मीर” के लिए भारत विरोधी आंदोलन चल रहे हैं।मजहब आधारित विशेष दर्जा क्योंकेन्द्र में बैठे सत्ताधारियों, कथित मानवाधिकारवादी राजनेताओं और प्रगतिशील संगठनों द्वारा जम्मू-कश्मीर के जिस विशेष दर्जे अर्थात् अनुच्छेद 370 को भारत और जम्मू-कश्मीर को जोड़ने वाला पुल बताया जाता है, वास्तव में इसी विशेष दर्जे ने कश्मीर घाटी में वर्तमान अलगाववाद को जन्म दिया है। मजहबी बहुमत के आधार पर भारत के एक अभिन्न भाग को अपना संविधान और झंडे की अनुमति देकर हमने स्वयं अपने हाथों से मजहबी नेताओं और संगठनों को भारत से कटने की राह दिखाई है। यह भिन्न प्रादेशिक संविधान, विशेष दर्जा, अनुच्छेद 370 ही वह आधार अथवा धरातल है जिस पर खड़े होकर आज कश्मीर घाटी के अनेक दल और इनसे मिलने जाने वाले वार्ताकार भी अलगाववादी भाषा बोलते हैं। अत: जब तक इस पृथकतावादी विशेष दर्जे को समाप्त नहीं किया जाता तब तक इस भाषा में भी बदलाव नहीं आ सकता।वास्तव में जम्मू-कश्मीर से संबंधित भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ने का विरोध सभी राजनीतिक दलों, संविधान सभा और कांग्रेस कार्य समिति के सभी सदस्यों और जम्मू-कश्मीर के चारों प्रतिनिधियों ने किया था। संविधान सभा के अध्यक्ष डा.भीमराव अम्बेडकर ने भी अनुच्छेद 370 के पक्षधर पंडित जवाहर लाल नेहरू को समझाया था कि इस प्रकार के विशेष दर्जे से कश्मीर घाटी में भारतीय राष्ट्रवाद की पकड़ समाप्त हो जाएगी और भविष्य में कश्मीर के युवा अलगाववाद के रास्ते पर चलकर पाकिस्तान की गोद में चले जाएंगे। डा.अम्बेडकर ने अनुच्छेद 370 की फिरकापरस्त जिद पर अड़े शेख मुहम्मद अब्दुल्ला से भी स्पष्ट शब्दों में कहा था, “तुम यह तो चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों को पूरे भारत में समान अधिकार हों, पर भारत और भारतीयों को तुम कश्मीर में कोई अधिकार नहीं देना चाहते। मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ इस प्रकार की धोखाधड़ी और विश्वासघात में शामिल नहीं हो सकता।” इतने विरोध के बावजूद जम्मू-कश्मीर को एक विशेष समुदाय के बहुमत के आधार पर विशेष दर्जा देकर नेहरू ने पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र और संघीय ढांचे का गला घोट दिया।भारत विरोधी इस्लामीकरण को बलइस विशेष दर्जे ने भारत की सरकार को जम्मू कश्मीर के संबंध में पूर्णतया अर्थहीन और अपंग बना दिया है। चाहते हुए भी भारत की केन्द्रीय सत्ता अलगाववादी कश्मीर घाटी में कोई सख्त कार्रवाई नहीं कर सकती। उलटे प्रादेशिक संविधान की आड़ में पृथकतावादी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे इस्लामीकरण के पाकिस्तान समर्थक अभियान को बल मिल रहा है। जम्मू-कश्मीर का अलग प्रादेशिक संविधान द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को न केवल पुनर्जीवित करता है, बल्कि भविष्य में इसे सुरक्षित करने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। भारत का कोई भी नागरिक जम्मू-कश्मीर का नागरिक नहीं हो सकता। भारतीय संसद द्वारा बनाए जाने वाले कानून, राष्ट्रपति के अध्यादेश और सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय महत्व के प्रकल्पों को जम्मू-कश्मीर की विधानसभा की अनुमति के बिना यहां लागू नहीं किया जा सकता। भारत के राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर में आपात स्थिति भी घोषित नहीं कर सकते।1947 में देश विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आए लगभग दो लाख हिन्दु शरणार्थियों को अभी तक भी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस वर्ग के अधिकांश लोग वंचित एवं पिछड़ी जातियों के हैं। इन वंचित भाइयों के बच्चों को न छात्रवृत्ति मिलती है और न ही व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने का अधिकार है। सारी दुनिया में समानता और समाजवाद का शोर मचाने वाले भारत के राजनेता यह नहीं देख रहे कि जम्मू-कश्मीर की अनुसूचित जाति की एक बहुत बड़ी श्रेणी अपने ही देश में गुलामों की तरह जीवन-यापन कर रही है। इन लोगों को सरकारी नौकरी, सम्पत्ति क्रय- विक्रय और नगरपालिका में भी वोट देने का हक नहीं है।जन विरोधी संविधानअलग प्रादेशिक संविधान की वजह से जम्मू कश्मीर की सरकार पर अलगाववादी तत्वों का वर्चस्व होने के कारण भारत सरकार का कोई भी वंचित और गरीब समर्थक प्रकल्प अथवा कानूनी अभियान यहां अनसुना कर दिया जाता है। बहुचर्चित शहरी सम्पत्ति हदबंदी विधेयक, गिफ्ट टैक्स एवं सम्पत्ति कर जैसे सामाजिक समानता के कानून वहां लागू नहीं होते। इस तरह के कानूनों के न होने से अगड़ी जातियों विशेषतया बहुमत वाले समुदाय (मुसलमानों) के धनाढ्य पूंजीपतियों को तो ढेरों लाभ मिलते हैं, जबकि पिछड़ी जातियों (हिन्दुओं) को गरीबी की मार सहनी पड़ रही है। संवैधानिक अन्याय और आर्थिक अत्याचार के कारण अब तो मतान्तरित होकर मुसलमान बन चुके जुलाहे, गुज्जर, बक्करवाल, तेली, जाटव इत्यादि जातियां भी गरीबी का अभिशाप झेल रही हैं। भारतीय संविधान का जम्मू-कश्मीर में वर्चस्व न रहने के कारण पिछड़ी जातियां और भी ज्यादा पिछड़ रही हैं। इस राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक असमानता को प्रदेश का अलग संविधान संरक्षण ही नहीं दे रहा, अपितु पिछड़े और गरीब लोगों की संख्या में भी वृद्धि कर रहा है।बहुचर्चित मंडल आयोग की रपट और सिफारिशों को जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सका। परिणामस्वरूप इस प्रदेश में पिछड़ी जातियों को भारत के शेष प्रांतों की पिछड़ी जातियों जैसा आरक्षण अभी तक भी नहीं मिला। इसी तरह अनुसूचित जनजातियों को राजनीतिक आरक्षण नहीं मिल सका। 1947 से लेकर 2007 तक जम्मू-कश्मीर में वंचितों को किसी भी प्रकार का कोई आरक्षण प्राप्त नहीं था। इस लम्बे कालखंड अर्थात् साठ वर्षों तक वंचितों को नागरिकता के अधिकारों से वंचितों रखा गया। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के 2007 के वंचितों की भलाई से संबंधित एक फैसले को भी प्रदेश की सरकार ने निरस्त करने की पूरी कोशिश की। इसके लिए विधानसभा में कानून बनाने जैसा वंचित विरोधी प्रयास किया गया। परंतु पूरे जम्मू सम्भाग में हुए एक बड़े जनांदोलन के परिणामस्वरूप सरकार इस जघन्य कृत्य में सफल नहीं हो सकी।भेदभाव की पराकाष्ठाजम्मू-कश्मीर का अलग संविधान महिला विरोधी भी है। निरंतर पचास वर्षों तक राज्य के बाहर शादी करने वाली लड़कियां नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित होती रहीं। इनका “स्टेट सब्जेक्ट” खारिज कर दिया जाता था। जम्मू उच्च न्यायालय के एक फैसले से इस काले कानून में बदलाव तो आया परंतु ऐसी लड़कियों को मात्र मां-बाप की सम्पत्ति में हकदार माना गया। शेष अधिकार फिर भी नहीं दिए गए।शेष भारत से यहां आकर रहने वाले और कार्य करने वाले प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कर्मचारी भी नागरिकता के अधिकारों से वंचित हैं। 35-40 वर्षों तक राज्य की सरकारी एवं गैर सरकारी सेवा में रहने के बाद भी इन लोगों को अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए बाहर भेजना पड़ता है। सेवानिवृत्ति के बाद वे लोग जम्मू-कश्मीर में अपना घर बनाकर रह भी नहीं सकते। भारतीय संविधान के लगभग 75 कानून यहां लागू नहीं किए गए। बहुत कम लोग ही जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में “इंडियन पीनल कोड” (आईपीसी) के स्थान पर “रणवीर पीनल कोड” (आरपीसी) लागू है। इस प्रदेश के अलग संविधान के कारण ही जम्मू एवं लद्दाख को विधानसभा व लोकसभा में इनकी जनसंख्या/मतदाता संख्या और क्षेत्रफल के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। अलगावादी संगठनों को गैर कानूनी घोषित करने, आतंकियों पर सख्त कार्रवाई करने और भारत के राष्ट्रीय ध्वज एवं संविधान का अपमान करने वालों को सजा देने को भी अनुच्छेद 370 बाधाएं खड़ी करता है।यही भेदभाव सरकारी नौकरियों, उद्योग-धंधों, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं विकास के अन्य सभी क्षेत्रों में किया जा रहा है। पूरे भारत में सन् 2002 में लोकसभा क्षेत्रों का पुनर्गठन हुआ था। यह काम जम्मू-कश्मीर में नहीं हुआ। इस प्रदेश की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है।राष्ट्रहित में एकत्रित होंस्पष्ट है कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी मुस्लिमपरस्त कुंठित मनोवृत्ति, कट्टरवादी मजहबी नेता शेख अब्दुल्ला के साथ दोस्ती और जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के साथ शत्रुभाव के मद्देनजर राष्ट्रहित को तिलांजलि देकर इस सीमावर्ती प्रदेश को अलागववादी अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा देकर देशद्रोह के बीज बो दिए। वास्तव में जम्मू-कश्मीर की विधानसभा द्वारा 27 अक्तूबर, 1957 को रियासत के भारत में पूर्ण विलय का अनुमोदन कर देने के पश्चात् विशेष दर्जे का औचित्य समाप्त हो गया था। परंतु तुष्टीकरण पर आधारित वोट बैंक की राजनीति में फंस कर अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों को भूल चुके राजनेताओं ने विभेदकारी विशेष दर्जे को समाप्त करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया। परिणाम सबके सामने है- पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद की आग में झुलसती कश्मीर घाटी। इस भारत विरोधी आग को बुझाने का एक ही रास्ता शेष बचा है। कांग्रेस सहित सभी राष्ट्रवादी राजनीतिक दल इस आग की आंच को महसूस करें और राष्ट्रहित में एकत्रित होकर लोकसभा में दो तिहाई बहुमत से भारतीय संविधान में संशोधन करके अलगाववाद की जड़ अनुच्छेद 370 को हटाएं। द10
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