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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी ने विज्ञान एवं दर्शन सम्मत विषयों का गहन अध्ययन किया है। देशभर में प्रवास के दौरान वे इन विषयों पर व्याख्यान देते हैं और श्रोताओं पर उसका गहरा प्रभाव होता है। यद्यपि श्री सोनी राजनीति शास्त्र के छात्र रहे हैं तथापि विज्ञान उनकी रुचि एवं लेखन का प्रिय क्षेत्र है। एक लेखक के रूप में उनकी “भारत-अतीत वर्तमान और भविष्य” तथा “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” पुस्तक के महत्वपूर्ण अंशों का प्रकाशन पहले भी पाञ्चजन्य में किया गया है। श्री सोनी की एक अन्य महत्वपूर्ण कृति है “भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा”। आधुनिक, विशेषकर पश्चिमी वैज्ञानिक पश्चिमी देशों को ही विज्ञान का जनक कहते और मानते आ रहे हैं। दुर्भाग्य से अपने ही देश के बौद्धिक संस्थान और प्रचार माध्यम भी इस दुष्प्रचार का हिस्सा बन गए और भारतीय इतिहास को ग्लानि एवं आत्मनिंदा की दृष्टि से देखने लगे। भारतीय वैज्ञानिक परम्परा, वैज्ञानिक दृष्टि और विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय ज्ञान को हमेशा नकारने की कोशिश की जाती रही है। श्री सोनी की यह पुस्तक इस नकारात्मक भाव से मुक्त करती है और विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय ज्ञान के स्वाभिमान को स्थापित करती है। श्री सोनी ने विद्युत शास्त्र, धातु विज्ञान, विमान शास्त्र, वस्त्र उद्योग, गणित शास्त्र, कालगणना, खगोल विज्ञान, स्थापत्य शास्त्र, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान एवं प्राणि विज्ञान आदि-आदि में भारतीय ज्ञान की उज्ज्वल परम्परा को सहज व सरल भाषा में बड़ी सिद्धता से स्थापित किया है। हाल ही में इस पुस्तक का तीसरा संस्करण अर्चना प्रकाशन (17, दीनदयाल परिसर, ई/2, महावीर नगर, भोपाल 462026) ने प्रकाशित किया है। 205 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य है मात्र 65 रुपए। अपने पाठकों की अभिरुचि को देखते हुए इस पुस्तक के अंश हम क्रमश: प्रकाशित कर रहे हैं- सुरेश सोनीविश्व के रंगमंच पर अनेक देश हैं। इतिहास की गहराइयों में जाकर हम झांकते हैं तो जो दृश्य हमारे नेत्रों के सामने उभरता है वह यह कि भारत सदियों से विश्व में मानव जाति के लिए प्रेरणा का केन्द्र रहा है। हमारे पूर्वजों ने “कृण्वन्तो विश्वम्आर्यम्” अर्थात् सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाएंगे और “वसुधैव कुटुम्बकम्” संपूर्ण वसुधा एक कुटुम्ब है तथा “स्वदेशो भुवनत्रयम्” तीनों लोक हमारे लिए स्वदेश हैं, की उदात्त भावना ले सम्पूर्ण विश्व में संचार किया तथा विश्व की सुख, समृद्धि हेतु कला, कौशल तथा दर्शन का अवदान दिया। इसी कारण भारत प्राचीन काल से जगद्गुरु कहलाता रहा, जिसकी झलक पाश्चात्य चिंतक मार्क ट्वेन के निम्न वक्तव्य में दिखाई देती है-“भारत उपासना पंथों की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित रहते हैं और एक बार उसकी हल्की सी झलक मिल जाए तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।”इतिहास में भारत मात्र धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान एवं श्रेष्ठ जीवन मूल्यों में ही नहीं अपितु व्यापार, व्यवसाय, कला, कौशल में भी अग्रणी था। एक प्रसिद्ध स्विस लेखक बेजोरन लेण्डस्ट्राम, जिसने पुरातन मिरिुायों से लेकर अमरीका की खोज तक 3000 वर्ष की साहसी यात्राओं और महान खोजकर्ताओं की गाथा का अध्ययन किया, अपनी पुस्तक “भारत की खोज” में लिखता है, “मार्ग और साधन कई थे, परंतु उद्देश्य सदा एक ही रहा-प्रसिद्ध भारत भूमि पर पहुंचने का, जो देश सोना, चांदी, कीमती मणियों और रत्नों, मोहक खाद्यों, मसालों, कपड़ों से लबालब भरा पड़ा था।” (सोने की चिड़िया लुटेरे अंग्रेज-सुरेन्द्र नाथ गुप्त-पृष्ठ 10) बेजोरन लेण्डस्ट्राम से ही मिलते-जुलते अनुभव अनेक चिंतकों, शोधकों तथा हीगल, गैलवैनो, माकर्#ोपोलो आदि के हैं। इसी कारण सदियों से भारत को सोने की चिड़िया भी कहा जाता रहा है।हजारों वर्षों तक जो देश जगद्गुरू व सोने की चिड़िया रहा, उस पर पिछले 1500 वर्षों में हुए बर्बर आक्रमणों, कुछ अपने सामाजिक दोषों तथा मुसलमानों के मजहबी आक्रमणों, लूट और अंग्रेजों के 190 वर्षों के शासन में आर्थिक दृष्टि से देश का इतना शोषण हुआ कि सोने की चिड़िया कंगाल हो गई। यहां के कृषि, उद्योग, व्यापार को नष्ट किया गया। इस कारण आज जब हम देखते हैं कि दुनिया के देशों की पंक्ति में भारत का कौन सा स्थान है, तो हम पाते हैं कि उसका 124 वां स्थान है। दुनिया में भारत को फिर से जगद्गुरू और सोने की चिड़िया बनाने की चुनौती आज की पीढ़ी के सामने हैं। स्वाधीनता संग्राम के अनेक सेनानियों तथा चिंतकों ने भव्य भारत का जो स्वप्न देखा, उसे साकार करने का आह्वान आज की पीढ़ी के सामने है।ऊपर उल्लिखित स्वप्न को साकार करना है तो आवश्यकता है कि देश के कला, कौशल, व्यापार, वाणिज्य, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में पुन:प्रगति हो। सैद्धांतिक दृष्टि से धर्म, दर्शन के क्षेत्रों में देश की श्रेष्ठता आज भी विश्व को मान्य है। पर जहां भौतिक समृद्धि का प्रश्न आता है या तत्वज्ञान के अनुकूल समाज जीवन में व्यवहार का प्रश्न आता है, तो उत्तर देना कठिन हो जाता है। अत:सर्वांगीण उन्नति की परिकल्पना एवं उसके उपायों पर विचार करने की आवश्यकता है।हजारों वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था “यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:” जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात् भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस याने आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।दुर्भाग्य से विगत अनेक वर्षों से हमारे देश में धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नति हेतु तो प्रयत्न चलते रहे, परंतु समग्र उन्नति की परिधि में भौतिक उन्नति के पक्ष की समाज जीवन में उपेक्षा हुई, जबकि भौतिक उन्नति सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी मानी गई थी।जब समाज में भौतिक दृष्टि से उन्नति का प्रश्न आता है और इसके माध्यम या साधनों पर हम विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि समय के प्रवाह में ये परिवर्तित होते रहे हैं। जैसे एक समय में हमारे देश में भौतिक समृद्धि का माध्यम था-कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य अर्थात् पारिवारिक और सामाजिक धरातल पर समृद्धि का आधार खेती और खेती के आधारभूत गौवंश तथा व्यापार थे। हजारों वर्षों तक ये ही समाज जीवन में समृद्धि के माध्यम रहे। सम्पूर्ण विश्व में भारत की कृषि व समृद्ध व्यवसाय की मान्यता थी। सम्पूर्ण विश्व में भारत का व्यवसाय फैला हुआ था। बहुत पुराने काल का वर्णन छोड़ भी दें तो अभी-अभी सन् 1750 तक विश्व में उत्पादन के मामलों में भारत की क्या स्थिति थी, इसका हम विचार करें तो सेम्युअल हंटिंग्टन द्वारा लिखित पुस्तक “दी क्लैश आफ सिविलाइजेशन” में जो तुलनात्मक चार्ट दिया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि 1750 में भारत का उत्पादन समूचे यूरोप और सोवियत संघ (इसकी परिधि में टूटने के पूर्व के सोवियत संघ तथा वारसा पेक्ट के सभी देश) से अधिक था। भारत का उत्पादन 24.5 प्रतिशत था, जबकि यूरोप का 18.2 प्रतिशत तथा सोवियत संघ का 5.0 प्रतिशत था। (दी क्लैश आफ सिविलाइजेशन, सेम्युअल इंटिंग्टन, पृष्ठ, 86)विज्ञान का महत्वसमय के साथ परिवर्तन आता है। एक समय कृषि और व्यापार समृद्धि के मानक थे, परंतु आज विज्ञान के विकास के साथ उत्पादन के साधनों में परिवर्तन आया है। आज विज्ञान और तकनीकी भौतिक समृद्धि के साधनों के आविष्कार, उत्पादन तथा वितरण हेतु माध्यम बने हैं। आज जिस देश में विज्ञान जितना विकसित होगा, जिसके पास जितनी प्रगत एवं अद्यतन तकनीकी होगी, वह देश दुनिया के रंगमंच पर उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ पायेगा।इस परिप्रेक्ष्य में हमारा देश पुन: समृद्धि के शिखर पर पहुंचे और विश्व को अपना कुछ अवदान दे सके, इस दृष्टि से देश में जहां एक ओर वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को गति देने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर यह भी ध्यान रखना होगा कि यह विकास अपनी संस्कृति, प्रकृति और आवश्यकता के विपरीत भी न हो। ये दोनों उद्देश्य प्राप्त हों, इस दृष्टि से कुछ प्रश्नों पर हमें विचार करना पड़ेगा।1-विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी?2-भारत में किन-किन क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास हुआ था?3-विज्ञान और तकनीकी के अंतिम उद्देश्य को लेकर क्या भारत में कोई विज्ञान दृष्टि थी? और यदि थी तो आज की विज्ञान दृष्टि से उसकी विशेषता क्या थी?4-आज विश्व के सामने विज्ञान एवं तकनीक के विकास के साथ जो समस्याएं खड़ी हैं उनका समाधान क्या भारतीय विज्ञान दृष्टि में है?आज का यथार्थभारत में विज्ञान के इतिहास को जानने के लिए जब हम प्रथम प्रश्न “विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी?” पर विचार करें तो जो आज का यथार्थ हमारे सामने आता है, उसे हम निम्नलिखित दो-तीन घटनाओं से समझ सकते हैं।1-संस्कृत भारती नामक संगठन देश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार और उसे जन भाषा बनाने की दृष्टि से विगत कुछ वर्षों से कार्य कर रहा है। इस संगठन ने संस्कृत मात्र धर्म-दर्शन ही नहीं अपितु विज्ञान तथा तकनीक की भी भाषा है, इसे लोगों को बताने की दृष्टि से गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि के जो संदर्भ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं, उनका आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से कैसा साम्य है, यह बताने वाले पांच भित्तिचित्र तैयार किये हैं। उसे प्रचारित-प्रसारित किया जाए, इस दृष्टि से भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रमुख अधिकारियों के साथ वार्तालाप हेतु फरवरी 2001 में संस्कृत भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री च.मू.कृष्णशास्त्री अपने साथ पांचों भित्तिचित्र लेकर गये। वार्तालाप के समय वे भित्तिचित्र अधिकारियों के देखने के लिए उनके सामने रखे गये।उनमें गणित से संबंधित भित्तिचित्र के प्रारंभ में ही उन अधिकारियों ने देखा कि शताब्दियों पूर्व आर्यभट्ट नेः(पाई)का मान 3.1416 निकाला था तो आश्चर्य के साथ उन्होंने उद्गार व्यक्त किये, “अच्छा #ः (पाई) का मान हमारे पूर्वजों ने इतने वर्ष पूर्व निकाल लिया था।” यह घटना इंगित करती है कि भारत वर्ष में विज्ञान के विकास की दिशा निर्धारित करने वाले व्यक्ति भारत वर्ष में विज्ञान की परंपरा की सामान्य जानकारी से भी अनभिज्ञ हैं।अगले अंक में जारी13
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