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साहित्य का महत्व कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। हालांकि आधुनिक प्रचार माध्यमों के कारण साहित्य का महत्व थोड़ा-सा कम हुआ है, किन्तु यह कमी उतनी नहीं है, जितनी कि चर्चा की जाती है। प्रकाशन उद्योग बड़ा होता जा रहा है। नए-नए प्रकाशक दिखने लगे हैं। केवल दिल्ली में ही 500 से अधिक प्रकाशक होंगे। पुस्तकें छप रही हैं, बिक रही हैं। इसका अर्थ यह है कि हमारे यहां एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है, जो नई-नई पुस्तकें और प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएं खोज कर पढ़ता है। यही कारण है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रभाव के बावजूद लिखित शब्द का महत्व बरकरार है। हालांकि ह्यास तो जरूर कुछ हुआ है। उदाहरण के लिए, प्रिन्ट मीडिया को ही लें। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में काफी अन्तर आया है। उस समय इन दिनों की तरह साहित्यिक पत्रकारिता और अखबारी पत्रकारिता के बीच दरार नहीं थी, क्योंकि जो सम्पादक थे वे साहित्यकार भी थे। चाहे आप गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी या उस समय के कुछ अन्य सम्पादकों को देख लें। वे लोग पत्रकारिता में जितने सक्रिय थे उतने साहित्य में भी थे। बाद में हमारे जो बड़े सम्पादक हुए उन्होंने सम्पादक नाम की संस्था की महत्ता बरकरार रखी। अक्षय कुमार जैन, राजेन्द्र माथुर, विद्यानिवास मिश्र आदि के समय तक प्रबंध तंत्र और सम्पादन तंत्र में एक-दूसरे का हस्तक्षेप नहीं होता था। सम्पादक जो चाहता था वही छापता था। प्रबंध तंत्र सम्पादकीय कार्य में हस्तक्षेप करने की हिम्मत भी नहीं करता था। किन्तु आज बिल्कुल उल्टी स्थिति है। जो मालिक हैं वही सम्पादक बन बैठे हैं। इसलिए प्रबंधन ही तय करने लगा है कि अखबार में क्या छपेगा। इन लोगों का तर्क है कि पाठक जो पसन्द करता है वही छापना है, जैसे-फैशन, खान-पान आदि। अखबारों में भाषा का भी ह्यास हुआ है। पहले लोग अखबार पढ़कर अपनी हिन्दी ठीक करते थे, किन्तु अब अखबार पढ़कर लोगों की हिन्दी खराब हो रही है। एक विकृत भाषा पैदा हो रही है, जो हमारी नई पीढ़ी को भाषा की दृष्टि से विकृत कर रही है। यह चिन्ता की बात है। उपरोक्त बातें साहित्य पर भी लागू होने लगी हैं। इसका उदाहरण है मंचीय कविता। कविता का स्तर फूहड़ चुटकुलेबाजी तथा आंगिक मुद्राओं तक रह गया है। वास्तव में इन्हें कविता नहीं कह सकते। देखा जाए तो यह साहित्यिक अवमूल्यन का दौर है। जिस मंच से शिव मंगल सिंह “सुमन”, रामधारी सिंह दिनकर, निराला, महादेवी वर्मा, पन्त, नीरज जैसे कवियों को सुना जाता था, उस मंच पर अब हाथ उठा-उठाकर फूहड़ पंक्तियां सुनाने वाले लोग आने लगे हैं।इसके बावजूद साहित्य रचा जा रहा है। अच्छा साहित्य का काम और धर्म भिन्न प्रकार का है। साहित्य मन को बदलता है और व्यक्ति में एक नई चेतना और सोच पैदा करता है। जब मन बदलता है तो समाज के गठन में भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। साहित्य मनुष्य को यथार्थ जीवन का दर्शन कराता है, वह सपनों की दुनिया में नहीं ले जाता। जीवन के तमाम संघर्षों को भी साहित्य हमारे सामने लाता है। एक तरह से साहित्यकार की भूमिका इतिहासकार से कम नहीं है।द (वार्ताधारित)8
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